जिस ऊॅचाई पर मानव के सिर दिखाई देने बन्द हो जाते है, वहां ब्रह्मकमल उगने शुरू होते हैं. जिन कक्षों (मंदिरों के गर्भ गृह) के द्वार मनुष्य के लिए बन्द रहते हैं, वहां ब्रह्मकमल शोभायमान होते हैं तथा जिन बुग्यालों में मानव के दिग्भ्रमित और मूर्छित होने का खतरा रहता है, वहाँ ब्रह्मकमल सीना ताने मुस्कराते रहते हैं. ( Brahma Kamal and Phyunli )
दूसरी ओर फ्यूंली पहाड़ की रग-रग में उगती हैय पहाड़ के प्रत्येक भीठों-पाखों, खेतों की मेड़ों और दीवार को सजाती है. घर-घर की देहली में बिखराया जाना अपना सौभाग्य समझती है और विवाहित महिलाओं की पीड़ा से द्रवित होकर स्वयं मायके से अतिशय लगाव वाली, लोककथा की नायिका बन जाती है.
फ्यूंली प्रतीक है उस गरीब आम आदमी की जो कहीं भी खुले में चादर तान के सो जाता है, बिना दाल-सब्जी के सूखी मंडुवे की रोटी नमक के साथ खा लेता है, सरकारी नल या किसी धारे -नौले से पानी पी लेता है, जो कुत्तों के लिए कोठी और अपने जैसे इंसान के लिए नीले आसमान की छत को नियति का फैसला और कर्मों का फल मान, संतोष कर लेता है.
ब्रह्मकमल प्रतीक है उन अमीरजादों का जिनको वातानुकूलित कक्षों में ही जीने की आदत है. प्रत्यक्षदेव भास्कर का प्रताप जो झेल नही पाते हैं और ऊँचे पहाड़ों की तरफ ऐश करने निकल पड़ते हैं जिनके कदम गलीचों के आदी होते हैं और मन अप्सराओं के, जिनके शरीर इत्र से महकते हैं किंतु अंतस काले कर्मों के काले बीजों से भरे रहते हैं जिनका असली चेहरा कई परतों को उघाड़ने के बाद ही सामने आता है.
फ्यूंली अगर मासूम बच्चों की अठखेलियाँ है तो ब्रह्मकमल किसी ज्ञानी पण्डित द्वारा की गयी ब्रह्म की विशद व्याख्या. फ्यूंली का सम्पूर्ण अस्तित्व चार पीली नाजुक पंखुडियों के बीच समाहित होता है तो ब्रह्मकमल का सात दीवारों वाले, शेष दुनिया से कटे, अभेद्य दुर्ग सरीखा.
फ्यूंली बसंत में खिलती है तो ब्रह्मकमल बरसात में. पहाड़ों में बसंत को नव-सृजन एवं वर्षा ऋतु को खौफ़ के प्रतीक के रूप में जाना जाता है. इस तरह फ्यूंली को सृजन-दूतिका भी कहा जा सकता है, और ब्रह्मकमल को खौफ़ का रहनुमा.
फ्यूंली के कितने ही फूलों को कदमों तले आप रौंद जाएं, दराती से घास के साथ काट जाएं, किसी के माथे पर शिकन तक नही उभरेगी और एक अदद ब्रह्मकमल को तोड़ने के लिए आपको पूूरा कर्मकाण्ड सीखना पडेगा अन्यथा आप हर लिए जाएंगे-बल.
फ्यूंली झाडियों को भी रंगीन बना देती है. काँटों के बीच मुस्कारते हुए सौंदर्य जगाती है और खण्डहरों, चटृानों को भी आबाद करने का प्रयास करती है, तो ब्रह्मकमल बुग्याली गलीचों मे दागनुमा लगते हैं. रंग-बिरंगे पुष्पों के बीच एक रंग उड़ा पुष्प जैसे शास़्त्रीय गायकों के मध्य कोई बेसुरा स्वर.
ब्रह्मकमल में देवत्व का दुराभिमान है तो फ्यूंली में अपनत्व की अंतरंगता. ब्रह्मकमल से त्रिया-हठ की पौराणिक कहानी जुड़ी है तो फ्यूंली से नारी के भोलेपन की लोक कथा.
फ्यूंली पददमित है तो ब्रह्मकमल शीर्षमण्डित. फ्यूंली दलित है तो ब्रह्मकमल पण्डित. ब्रह्मकमल दुर्लभ है तो फ्यूंली सर्वसुलभ. फ्यूंली लोकगीत है तो ब्रह्मकमल गवेषणा. फ्यूंली जनता की जरूरत है तो ब्रह्मकमल सरकारी घोषणा. वीराने का राजपुष्प ब्रह्मकमल हो तो हो, लोक हृदय सामाज्ञी, लोक पुष्प तो सदैवी रहेगी – फ्यूंली.
-देवेश जोशी
1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी शिक्षा में स्नातक और अंगरेजी में परास्नातक हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनसे 9411352197 और devesh.joshi67@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. देवेश जोशी पहाड़ से सम्बंधित विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं. काफल ट्री उन्हें नियमित छापेगा.
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