कुछ दिन हुए किताबों के महामेले से लौटी हूं. पुस्तक मेले में जाना मेरे लिए किसी उत्सव की तरह होता है, हालांकि जानती हूं कि वहां से मनों निराशा और टनों उदासी के साथ वापस लौटूंगी. हिंदी किताबों का संसार हजार-हजार फांस बनकर आंखों में चुभता रहता है. छुटपन से इसी सपने के साथ बड़ी हुई थी कि बड़ी होकर लेखक बनूंगी, पर जैसे-जैसे बड़ी होती जाती हूं, लेखक बनने का सपना किसी बीहड़ बियाबान में गुम होता जाता है. पत्रकार बनूंगी, सोचा भी नहीं था, पर वक्त के साथ पत्रकारिता की दुनिया में तथाकथित नाम कमाने और पैसा पीट लेने के सपने न सिर्फ सिर उगाते हैं, बल्कि थोड़ी सी तिकड़मों के साथ उन्हें पूरा करने की राहें भी हर दिन खुलती नजर आती हैं.
पर मुझे अखबार से ज्यादा किताबों से प्यार है.
होश संभालने के साथ ही मैंने पाया था कि किताबें झाडू और कलछी की तरह ही एक कमरे के हमारे मामूली से घर का हिस्सा थीं. मुश्किल से 12 बाई 12 के एक कमरे में मेरे मां-पापा की समूची गृहस्थी थी, जिसका एक बड़ा हिस्सा किताबों से पटा हुआ था. ऊपर टाण पर, मेज पर, कमरे के कोने में ईंटों पर लकड़ी के पटरे रखकर बनाई हुई शेल्फ पर किताबें सजी रहती थीं. लकड़ी पर अखबार बिछाकर पापा करीने से मार्क्सवाद, दर्शन और इतिहास की किताबें रखते थे. जब भी वो घर पर होते तो या किताब पढ़ रहे होते थे या किसी दोस्त के साथ उन किताबों पर कुछ ऐसी उलझी बहसें कर रहे होते, जिसका सिर-पैर भी मेरी समझ में नहीं आता था. मां चुपचाप उसी कमरे के एक कोने में, जहां रखा एक स्टोप, कुछ डिब्बे और बर्तन उसे रसोई जैसा आभास देते थे, में सिर झुकाए चाय बनाती या सब्जी छौंक रही होतीं. मां को वो बातें कितनी समझ में आती थीं, पता नहीं. लेकिन उन्हीं में से कुछ किताबों के अंदर पिता से छिपाकर वक्त-जरूरत के लिए कुछ पैसे रखने के सिवा मां को उनकी कोई खास सार्थकता समझ में आती थी, मुझे पता नहीं. वो अकसर किताबों के इस कबाड़ को लेकर नाराज होती रहती थीं, जिसे दिल्ली, खुर्जा, गाजियाबाद से लेकर अब इलाहाबाद तक पापा साथ-साथ ढोते रहे थे. पापा जिस भी दिन कोई नई किताब खरीद लाते, मां बहुत चिक-चिक करतीं. एक ढंग का पंखा भी नहीं है, सड़ी गर्मियों में भी इस टुटहे टेबल फैन से काम चलाना पड़ता है. ये नहीं कि एक तखत खरीद लें, एक गैस का चूल्हा. स्टोप के धुएं में आंखें फोड़ती हूं. पर इन्हें अपनी किताबों में आंखें फोड़ने से फुरसत नहीं. मां झींकती, पर उन किताबों की देखभाल वही करती थीं. एक-एक किताब कपड़े से साफ करके करीने से रखतीं, उनकी धूल झाड़ती, दीमक और फफूंद से बचाने के लिए धूप दिखातीं. लेकिन शाम को पापाफ़िर कोई नई किताब ले आते और मां की झकबक शुरू हो जाती.
ऐसे आदमी से ब्याह करके उनकी किस्मत फूट गई है, जिसे इन मरी किताबों के अलावा जीती-जागती मां की कोई परवाह नहीं है. शादी के दस सालों में पापा ने उन्हें एक साड़ी भी नहीं दिलाई. जो कुछ भी है, उनकी मुंबईया मां का दिया हुआ है वरना पापा तो निरे फोकटिया ठहरे. मैं सचमुच इस बात पर यकीन करती कि मां पापा को फोकटिया ही समझती हैं, अगर एक बार मैंने मुंबई में नानी के यहां, नानी के ये कहने पर कि तुम्हारा पति तो बिलकुल निठल्ला है, खास कमाता नहीं और जो कमाता है, सब किताबों पर फूंक देता है, मां ने जवाब में ये न कहा होता कि उन्हें अपने पति पर बहुत गर्व है. मां ने उनमें से कुछ किताबें पढ़ी हैं और वो सचमुच ज्ञान का भंडार हैं. तब मेरी उम्र कुछ पांच बरस रही होगी. मैंने बाद में चुपके से पापा से कहा था कि मां नानी से कह रही थीं कि उन्हें आप पर बड़ा गर्व है.
गर्व मुझे भी था. बड़ी मामूली सी उम्र में ही मैंने जिंदगी में किताबों की जरूरत और उसकी कीमत को समझ लिया था. उनमें लिखी बातें मैंने बहुत बाद में पढ़ीं, लेकिन ये हमेशा से जानती थी कि ये किताबें हमारे घर और हमारे होने का निहायत जरूरी हिस्सा थीं.
आस-पड़ोस और मुंबई में हमारे रिश्तेदारों में से किसी के यहां गीता प्रेस, गोरखपुर वाला गुटका रामायण, हनुमान चालीसा, तुलसी उवाच या कबीर के दोहे छोड़कर कुछ खास किताबें नहीं थीं. कोर्स की किताब भी अगली क्लास में जाने के साथ ही बेच दी जाती और अगले क्लास की सेकेंड हैंड किताबें खरीद ली जातीं. सभी रिश्तेदार आपस में सामानों और गहनों की तुलना करते हुए एक-दूसरे से आगे निकल जाने की फिराक में रहते थे. मौसी की नींद इसी बात से तबाह हो सकती थी कि मामी ने पांच तोले का सोने का हार बनवा लिया है और वो अभी तक ब्याह की पतरकी चेन से ही गुजरा कर रही हैं.
लेकिन पापा उस दुनिया का हिस्सा नहीं थे. वो अपने तख्ते, लकड़ी के पटरे वाली शेल्फ, टुटहे टेबल फैन और किताबों में संतुष्ट रहने वाले जीव थे. मैं भी मुंबईया खचर-पचर वाली दुनिया को देखकर चकित-भ्रमित होती थी, लेकिन फिर इलाहाबाद लौटकर पापा की किताबें देखकर खुश भी हो जाया करती थी.
लेकिन जब वक्त गुजरने और आर्थिक तंगियां बढ़ते जाने के बाद भी पापा के किताबें खरीदने पर लगाम नहीं लगी तो मां की जबान पर भी लगाम नहीं रही. वो नाराज होतीं और दुखी भी. जब बोलने पर आतीं तो बोलती चली जातीं. अपनी नहीं तो कम से कम दो-दो लड़कियों की तो सोचो. उनके ब्याह के लिए कुछ जोड़ो. लड़कियां कुंवारी बैठी रहेंगी और ये किताबों में सिर दिए रहेंगे.
मुझे समझ में नहीं आया कि पापा के किताब पढ़ने की वजह से कैसे हमारी शादी नहीं हो पाएगी. जो भी हो, शादी से मुझे वैसे भी चिढ़ थी. बैहराना में महिला सेवा सदन इंटर कॉलेज वाली जिस गली में हमारा एक कमरे का घर था, उसके मुहाने पर एक लॉरी वाला रोज दारू पीकर अपनी बीवी की कुटम्मस करता था. मकान मालिक चौरसिया बात-बात पर अपनी बीवी पर चिल्लाता रहता था, ‘कुतिया के कान में खूंट पड़ी है. हरामजादन सुनती ही नहीं.’ बगल के कमरे का किराएदार पूर्णमासी यादव बीवी के घर से जाते ही मुझे बुलाकर गोदी में बिठाने के लिए चुमकारने लगता था. इसलिए मुझे शादी और आदमी के नाम से ही घिन आती थी. अच्छा ही है शादी न हो. इन किताबों के बहाने ही सही.
छुटपन से ही पापा तरह-तरह की किताबें लाकर मुझे देते थे. उनमें लिखी कहानियां मैंने सैकड़ों बार पढ़ी थीं. रोम का वह दास, जिसे भूखे शेर के सामने छोड़ दिया गया था और शेर उसे खाने के बजाय उसके पैरों के पास बैठकर उसके तलवे चाटने लगा था, क्योंकि बहुत साल पहले जब वो शेर घायल था, एंड्रोक्लीज ने उसके पैरों में से कांटा निकाला था. शेर ने उसे नहीं खाया. वो कहानी मैं रोज एक बार जरूर पढ़ती थी.
पापा के पास रूसी कहानियों की एक किताब थी. एक किताब धरती और आकाश के बारे में थी, जिसमें जर्दानो ब्रूनो, कोपरनिकस और गैलीलियो की कहानियां थीं. जर्दानो ब्रूनो को लंबे-लंबे चोगे पहने और हाथों में क्रॉस लिए पादरियों ने इसलिए जिंदा जला दिया था क्योंकि वो कहता था कि अंतरिक्ष का केंद्र पृथ्वी नहीं सूर्य है. किताब में लिखा था कि ब्रूनो बाइबिल के खिलाफ बोलता था. मैंने बाइबिल नहीं पढ़ी थी, लेकिन दस साल की उमर में ब्रूनो की कहानी पढ़ने के बाद ही मैंने जाना कि धर्म और मुल्कों की सत्ताओं पर बैठे लोगों के साथ कितने बेगुनाहों के खून से रंगे थे. उन्हीं के कारण कोपरनिकस ने कभी वो नहीं कहा, जो उसे लगता था कि सच है और गैलीलियो ने डरकर माफी मांग ली थी, लेकिन फिर भी उन लोगों ने उसे जेल में डाल दिया था. पापा के पास और भी बहुत सारी कहानियां थीं.
मैं उन कहानियों के साथ बड़ी हुई, जिनमें लिखी हुई हर बात जिंदगी की असल किताब में गलत साबित होने वाली थी, फिर भी उन कहानियों पर मेरा विश्वास आज भी कायम है. असल जिंदगी में कॉरपोरेटों में बैठा शेर एंड्रोक्लीजों को भी खा जाता है. फिर भी मैं चाहूंगी कि मेरा बच्चा एंड्रोक्लीज की कहानी पढ़कर बड़ा हो और वो एंड्रोक्लीज पर भरोसा करे.
किताबें पापा की सबसे अच्छी दोस्त थीं. वो कहते थे कि उत्तर प्रदेश के जिला प्रतापगढ़ के जिस छोटे से गांव में वो पैदा हुए थे, वहां से होकर उनके बेहतर इंसान बनने का सारा सफर इन्हीं किताबों से होकर गुजरा था. मुझे भी एक बेहतर इंसान बनना था, इसलिए मैंने उन किताबों को हमेशा अपने पास संभालकर रखा, जिन्होंने सबसे कमजोर और अवसाद के क्षणों में हमेशा मेरा साथ निभाया. उन किताबों को हमेशा ऐसे सहलाया, दुलराया और अपनी छाती से लगाया, मानो वही मेरी प्रेमी हों. वही मुझे संसार के सब गूढ़, अजाने इलाकों तक लेकर जाएंगी, सृष्टि के अभेद्य रहस्यों का भेद खोलेंगी. वो मुझे ऐसे प्रेम करेंगी, जैसा प्रेम के बारे में मैंने सिर्फ किताबों में पढ़ा था.
कभी साहित्य और राजनीति का गढ़ कहे जाने वाले शहर इलाहाबाद के ऑक्सफोर्ड में जहां मैंने बीए तक पढ़ाई की, वहां तब तक पढ़ने-लिखने का कुछ संस्कार बाकी था. जिनके भी साथ मेरी दांत कटी यारी थी, वो सब किताबों से वैसे ही मुहब्बत करते थे. कोई अंबानी नहीं था और न शहर में कॉरपोरेट का व्यापार था. हमारी जेबें खाली होती थीं, लेकिन ट्यूशन, आकाशवाणी या अखबार में कोई छोटा-मोटा लेख लिख देने से जो भी मामूली सी रकम हाथ में आती, उसे बचा-बचाकर हम किताबें खरीदते थे. दस लोग मिलकर एक छोटी सी लाइब्रेरी बना लेते और आपस में मिल-बांटकर किताबें पढ़ते. हालांकि उस पढ़ने का संसार भी बहुत सीमित था. ज्यादातर पार्टियों की बुकलेट्स, प्रगति और रादुगा प्रकाशन के भीमकाय उपन्यास और मार्क्सवाद क्या है, दर्शन क्या है, भौतिकवाद क्या है, आदि-आदि के बारे में छोटी-छोटी पुस्तिकाएं होती थीं. तब पढ़ने का ऐसा भूत था कि हाथ लगा कोई लिखा शब्द अनपढ़ा नहीं रहता था. और तो और, आज जिस अखबार को मुंह उठाकर भी नहीं देखती, तब अमर उजाला के एडीटोरियल तक छान जाया करती थी. आज जब पढ़ने को इतना अथाह मेरे अपने घर में है और पढ़ने का वक्त नहीं है, सोचती हूं ये किताबें उस उम्र में मिली होतीं तो?
लेकिन वक्त इस तेजी से गुजरा है और उसने ऐसे मेरे हमसफरों की शक्लें बदल दी हैं कि दस साल पहले का उनका ही रूप उनके सामने रख दिया जाए तो शायद उन्हें यकीन न हो कि ये वही हैं. जब हम पढ़ रहे थे, किसी को आभास तक नहीं था कि अचानक इस देश की इकोनॉमी का चेहरा इतने वीभत्स अनुरागी ढंग से बदल जाएगा. पत्रकारिता तब कोई ऐसा ग्लैमरस पेशा नहीं था, और न ही उसमें यूं नोटों की बरसात होती थी. तब इलाहाबाद शहर में 10-10 रुपए जोड़कर सतह से उठता आदमी और कितनी नावों में कितनी बार खरीदने वालों को पता नहीं था कि सिर्फ दस साल के भीतर वो देश की राजधानी में ऐसी अकल्पनीय तंख्वाहों पर ऐसी आलीशान जिंदगियां जी रहे होंगे, जो उनके छोटे से शहर और घर में दूर की कौड़ी थी.
कितनी आसानी से किसी को सबकुछ देकर उसका सबकुछ छीना जा सकता है और वो उफ तक नहीं करेगा, उल्टे इस छीन जाने के बदले आपका एहसानमंद होगा. इलाहाबाद के वो साथी आज भी दिल्ली के पुस्तक मेलों में परिवार के साथ घूमते हुए मिल जाते हैं और आज जब किताबें न खरीद पाने की कोई मुनासिब वजह नहीं है, कोई किताब नहीं खरीदता. मोटी तंख्वाहें घर और गाड़ी के लिए लोन देने वाले बैंक उठा ले जाते हैं और जो बचता है, वो मॉलों और गाड़ी के पेट्रोल में खत्म हो जाता है. बचता आज भी कुछ नहीं. आज भी व़ो वैसे ही फोकटिया हैं, जैसे इलाहाबाद में हुआ करते थे. ये पैसा बस अपर क्लास हो जाने के एहसास की तरह उनके दिलों में बसता है. पहले वे जानते थे, अब नहीं जानते कि वे किस वर्ग के हिस्से हैं.
ज्यादातर दोस्तों ने किताबें खरीदना छोड़ दिया है और किताबों के बारे में बात करना भी. गलती उनकी भी नहीं है. जीवन ही ऐसा है. तंख्वाह के अंकों में जीरो बढ़ाते जाने और कॅरियर में एक आला मुकाम हासिल करने के लिए लोग मुंह अंधेरे दफ्तरों के लिए निकलते हैं और रात गए वापस लौटते हैं. बचा वक्त फेसबुक सरखी तमाम बुकों के नाम अलॉट है पर किसी और बुक की जगह नहीं है. लड़कियां तो और भी रिकॉर्ड तोड़ काम कर रही हैं. किताबें न खरीदने और न पढ़ने के मामले में वो तो मर्दों से भी चार कदम आगे हैं. हिंदुस्तान में चायनीज और कॉन्टीनेंटल का मार्केट बढ़ते ही वो बड़े गर्व से घरों में भी इसे बनाने की कला सीख रही हैं. बाकी समय बच्चों की नाक पोंछती हैं, पति का पेट भरती हैं और बिल्डिंग की औरतों के साथ इस गॉसिप में मुब्तिला रहती हैं कि कौन कहां किसके साथ फंसा हुआ है. किसके यहां कौन आया और गया. किसका चक्कर किसके साथ, किसकी बीवी किसके हाथ.
बॉम्बे में तकरीबन आठ साल इस हॉस्टल से उस हॉस्टल के बीच फिरते हुए जहां-जहां मैंने ठिकाना बनाया, वहां सिर्फ दो लड़कियां मुझे मिलीं, जिनकी किताबों से कुछ जमती थी. एमए में मेरी रुममेट शहला भी बैंड स्टैंड और फैशन स्ट्रीट का चक्कर लगाने वाली शोख हसीनाओं को लानत भेजती और दिन भर अपनी किताबों में सिर गोड़े रहती थी. वह अंग्रेजी से एमए कर रही थी और उसी से मैंने एलिस वॉकर, टोनी मॉरीसन, एन्नी सेक्सटन, नादिन गॉर्डिमर, मारर्ग्रेट एटवुड वगैरह के बारे में जाना और उनकी किताबें पढ़ीं. वरना इलाहाबाद में तो हम गोदान को साहित्य का दरवाजा और प्रगति प्रकाशन की किताबों को आखिरी दीवार मानकर मगन रहते थे.
लेकिन कुछ तो वो उम्र ही ऐसी थी और कुछ हम ज्यादा नालायक भी थे, कि अंग्रेजी की किताबों से ढूंढ-ढूंढकर इरॉटिक हिस्से पढ़ते और कंबल में मुंह छिपाकर हंसते. वो लाइब्रेरी से लेडी चैटर्लीज लवर खासतौर से इसलिए लेकर आई थी कि उसके कुछ विशेष हिस्सों पर गौर फरमाया जा सके. ऐसे हिस्सों का ऊंचे स्वर में पाठ होता था. हम मुंह दबाकर हंसते थे. ऊऊऊ … सो सैड, सो स्वीट, सो किलिंग, सो पथेटिक. टैंपल ऑव माय फैमिलिअर पढ़ते हुए शहला बीच-बीच में कहती जाती, ये तो हर चार पन्ने के बाद चूमा-चाटी पर उतर आते हैं.
मैं निराशा से भरकर कहती, ‘बस इतना ही.’
‘अरे नहीं, और इसके आगे और भी है मेरी जान.’ शहला आंखें मटकाती.
पढ़-पढ़-पढ़.’ और फिर एक सेशन चलता ऐसे हिस्सों का. लेकिन यूं नहीं कि बस काम भर का पढ़कर हम किताब को रवाना कर देते. हम गंभीरता से भी पढ़ते थे. उसने मुझे एन्नी सेक्सटन पढ़ाया और मैंने उसे हिंदी कविताएं. दूसरी पढ़ने वाली लड़की थी, डॉकयार्ड रोड के हॉस्टल में केरल की रहने वाली बिंदु, जिसने मुझे वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड पढ़ता देखकर कहा था कि वो ये किताब मलयालम अनुवाद में चार साल पहले ही पढ़ चुकी है. उसे न ठीक से हिंदी आती थी और न अंग्रेजी. मलयालम मेरे लिए डिब्बे में कंकड़ भरकर हिलाने जैसी ध्वनि थी. फिर भी पता नहीं कैसे हम एक-दूसरे की बातें समझ लेते थे और दुनिया भर की किताबों और कविताओं के बारे में बात करते थे.
इसके अलावा लड़कियों की दुनिया बहुत पथेटिक थी और वहां किताबों के लिए ढेला भर जगह नहीं थी. वो बहत्तर रंग और डिजाइन के चप्पल और अंडर गारमेंट्स जमा करतीं, तेईस प्रकार की लिप्सटिक और ईयर रिंग्स और इन सबकेबावजूद अगर उनका ब्वॉय फ्रेंड पटने के बजाय इधर-उधर मुंह मारता दिखे तो उस दूसरी लड़की को कोसते हुए उसके खिलाफ प्लानिंग करती थीं. उन्हें मर्द कमीने और दुनिया धोखेबाज नजर आती. लेकिन कमीने मर्दों के बगैर काम भी नहीं चलता. चप्पलों का खर्चा कौन उठाएगा? लब्बेलुआव ये कि मोहतरमाएं दुनिया के हर करम कर लें, पर मिल्स एंड बून्स और फेमिना छोड़ किताब नहीं पढ़ती थीं और मुझे और शहला को थोड़ा कमजेहन समझती थीं.
ऐसा नहीं कि मैं लिप्सटिक नहीं लगाती या सजती नहीं, फुरसत में होती हूं तो मेहनत से संवरती हूं, लेकिन अगर काफ्का को पढ़ने लगूं तो लिप्सटिक लगाने का होश नहीं रहता. हॉस्टल के दिनों में नाइट सूट पहने-पहने ही क्लास करने चली जाती थी और आज भी अगर मैं कोई इंटरेस्टिंग किताब पढ़ रही हूं तो ऑफिस के समय से पांच मिनट पहले किताब छोड़ जो भी मुड़ा-कुचड़ा सामने दिखे, पहनकर चली जाती हूं. होश नहीं रहता कि बालों में ठीक से कंघी है या नहीं. यूं नहीं कि मैं चाहती नहीं कि लिप्स्टिक-काजल लगा लूं पर इजाबेला एलेंदे के आगे लिप्सटिक जाए तेल लेने. लिप्सटिक बुरी नहीं है, लेकिन उसे उसकी औकात बतानी जरूरी है. मैं सजूं, सुंदर भी दिखूं, पर इस सजावट के भूत को अपनी खोपड़ी पर सवार न होने दूं. सज ली तो वाह-वाह, नहीं सजी तो भी वाह-वाह.
और कभी महीने में एक-दो बार मजे से संवरती भी हूं. ऑफिस में सब कहते हैं, आज शाम का कुछ प्रोग्राम लगता है. मैं कहती हूं हां, मुराकामी के साथ डेट पर जा रही हूं.
कौन मुराकामी?
एक जापानी ब्वॉयफ्रेंड है.
अल्लाह, हमें हिंदुस्तानी तक तो मिलते नहीं, इसने तो जापानी पटा रखा है.
जीवन की रौशनियों और तारीकियों से आंख-मिचौली खेलते मेरी राह में ऐसे ठहराव आए कि कभी तो मैंने किताबों से नाता तोड़ लिया तो कभी किताबों में ही ठौर मांगी. बॉम्बे में आठ साल प्रणव के साथ के दौरान मैंने किताबें नहीं खरीदीं क्योंकि उसके पास हजारों किताबें थीं. लगता था, वो सब मेरी भी तो हैं. हमारे जीवन साझे हैं तो किताबें भी हुईं. उसके घर की आधी किताबें हॉस्टल के मेरे कमरे में गंजी रहती थीं. फिर जब प्रणव दूर चला गया तो उसके साथ सारी किताबें भी चली गईं. फिर बॉम्बे छोड़ने के बाद मैं कूरियर से एक-एक करके उसकी किताबें वापस भेजती रही. एक दिन सारी किताबें वापस हो गईं और इसी के साथ उसकी किताबों से नाता भी जाता रहा. चार साल हुए, अब मैं फिर से थोक में किताबें खरीदने लगी हूं. अब जेब भी इजाजत देती है कि कुछ अच्छा लग जाए तो पट से खरीद लूं. नौकरी पढ़ने की इजाजत जितनी भी देती है, सुबह-रात मौका मिलते ही पढ़ती हूं. कभी दो-चार दिन की छुट्टी हाथ लगे तो किताबों के साथ सेलिब्रेट करती हूं.
पापा के पास सैकड़ों किताबें हैं और ताऊजी के पास हजारों. लेकिन घर में अब कोई किताब नहीं पढ़ता. ताऊजी से कहती हूं कि उनकी सारी किताबें मेरी होंगी. पहले ताईजी जब भी मेरी शादी के बाबत बात करतीं तो मैं कहती थी कि दहेज में ये सारी किताबें दे देना. ताईजी कहतीं, तेरी सास किताबों समेत उल्टे बांस बरेली भेज देगी. मैं कहती, बुढ़िया की ऐसी की तैसी. उसे मैं आगरा भेज दूंगी. ऐसे ही हम सब खचर-पचर करते गुल्लम-पुल्लम मचाए रहते हैं, पर किताबों से मुहब्बत कम नहीं होती.
जब मां पास नहीं होती तो किताबें मां हो जाती हैं. जब कोई प्रेमी नहीं होता दुलराने के लिए तो किताबें प्रेमी बन जाती हैं. जब सहेली नहीं होती खुसुर-पुसुर करने और खिलखिलाने के लिए तो किताबें सहेली हो जाती हैं. किताबें सब होती हैं. वो अदब होती हैं और जिंदगी का सबब होती हैं.
टीवी-18 में सीनियर एडिटर मनीषा पाण्डेय इंडिया टुडे और अन्य प्रतिष्ठित मीडिया घरानों में काम कर चुकी हैं. मनीषा महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर अपने विचारोतेजक एवं अर्थवान लेखन के लिए सोशियल मिडिया का एक लोकप्रिय नाम हैं . वह बेदखल की डायरी नाम का लोकप्रिय ब्लॉग चलाती हैं.
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हाँ किताब अब कौन सोचता है।