हमरी सीता हैं रात अँजोरी तोहरे राम हैं कारा भँवरवा
जब कवि अपनी बोली -भाषा या कहें कि मातृभाषा में कविता रचता है ,तो वह मात्र कविकर्म ही नहीं कर रहा होता है, अपितु वह अपनी लोकपरंपरा, संस्कार और स्थानीयता के उज्ज्वल पक्ष के संवाहक के रूप में भी देखा – स्वीकारा जाता है आधुनिक अवधी कविता के स्थापित कवियों वंशीधर शुक्ल, रमईकाका, गुरुप्रसाद ‘मृगेश’, बलभद्रप्रसाद दीक्षित ‘पढ़ीस’ की श्रेणी में श्री शिवपूजन शुक्ल को भी गिना -सुना व पढ़ा जाने वाला एक परिचित नाम है. आप संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास की जन्मस्थली गोण्डा के निवासी हैं.
108 अवधी गीतों की उनकी सद्य:प्रकाशित कृति चरनवाँ कै धूर रामकथा केंद्रित पारंपरिक लोकगीतों की धुनों पर आधारित अवधी लोकगीतों व भजनों का अप्रतिम संग्रह है. रामजन्म से उनकी जल – समाधि तक की कथा को खाँटी अवधी में कवि ने जिस माधुर्य व कौशल से उसके एक -एक गीत रचा और गाया है वह भाव व भाषा के प्रवीण कवि द्वारा ही संभव है.
रामजन्म पर एक कौशल्या की प्रिय परिचारिका हठ करती है कि मुझे नया कंगन नहीं चाहिये, आपने जो पहना है वही दीजिये –
कंगनवा हे रानी! लेबै तोर बहुत दिनन से आस लगी थी भाग्य खुले अब मोर.
सोहर की धुन पर राम सहित चारों भाइयों के जन्म पर अवधी गीत, एकाधिक बधाई गीत, अन्नप्राशन , मुंडन, बालचरित (दादरा), ऋषि विश्वामित्र के साथ राम लक्ष्मण के वन-गमनादि पर लोकगायक ने सहज वात्सल्य की बौछार और विछोह को अत्यंत मार्मिक बनाकर ह्रदय जीत लिया है. इसी प्रकार अहल्या उद्धार रामकथा के अंर्तगत मन को द्रवित करने वाले प्रसंगों में से एक है –
चरनवाँ कै धूर दिहेव हमका हे राघव. विपतिया से दूर किहेव हमका हे राघव
मानस में थोड़ा सकुचाते हुए ही सही बाबातुलसी पुष्प वाटिका प्रसंग में जानकी और राम जी के प्रथम नयन-मिलन पर किंचित ठहरते हैं कमोवेश ठीक उसी तरह संग्रह में फुलवारी शीर्षक से तीन मनोहारी दृश्य देखने योग्य हैं –
कुँवर बड़ा बाँका , हे महारानी. सिया संग यै भाँवरि घुमिहैं कइके भंग पिनाका.
और –
सीता सखिया सहेलरी बोलाय के चलीं. नैनवाँ से नैनवाँ मिलाय कै चलीं. रामचंद्र के धनुष भंग के बाद
राजा जनक ने राजा दशरथ को बारात लेकर मिथिला पधारने का विन्रम अनुरोध किया. फिर क्या था, पूरी अयोध्या में लोग जहाँ तहाँ नाचने-गाने लगे. भारतीय हिंदू परिवारों में विवाह में जिन पारंपरिक लोकगीतों की धूम रहती है , कवि के संग्रह में द्वारपूजा, जयमाल, भाँवर गीत, कोहबर गीत बन्ना बन्नी और जेवनार के समय गायी जाने वाली गारी का मनोहारी चित्रण किया है.
हमरी सीता हैं गोरी किशोरी तोहार राम करिया हैं तोहरे राम हैं कारा भँवरवा हमरी सीता हैं रात अंजोरी.
विवाह की मंगलबेला पर देवता, गंधर्व, यक्ष, किरात और किन्नर सभी छद्म वेश में जनकपुर पधारे थे. सीता की विदाई पर माता सुनयना पिता जनक, जनकपुर वासी यहाँ तक कि राजा दशरथ कीआँख भी डबडबा आयी.
हिंया सुनैना एक हुंआ हैं तीन तीन ठौ मइया हम तै जल बिन मछरिया सीता कइसे हम जियब.
ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि जनकपुर से विदा होकर अयोध्या आने के बाद सीता जी फिर कभी जनकपुर गयीं हों. दुल्हन सीता को मुँह दिखाई कौशल्या ने कनकभवन प्रदान किया जो मंदिरों के नगर अयोध्या में मंदिरों में शीर्षस्थ स्थान पर है.
इस संग्रह में सावन महीने में गाये जाने वाले झूलनगीतों की अच्छी संख्या है, तथा विवाह पश्चात् कैकेयी कोप, राम सीता व लक्ष्मण का वनगमन, रामकेवट संवाद, अनुसूइया -सीता संवाद, पंचवटी प्रसंग,सीताहरण, शबरी-भक्ति क्रमश: पूर्वी, लाचारी, खेमटा, दादरा, कहंरा, चैता डेढ़ताल की लय में कवि को पूरी तन्मयता से गाते हुए सुनना अलग आनंदानुभूति का विषय है. राम की भक्ति में सराबोर शबरी का राम-नेह अद्भुत है –
रोज रेज रहिया निहारैं शबरी सूनी सूनी अँखिया से प्रभु का निहारैं अचरा कै कोरवा से रहिया बहारैं शबरी
नवधा भक्ति, सिंधु तीर पर बानर बीर, सीता जी से हनुमान का मिलना,लंकादहन, लक्ष्मण शक्ति, अवधवासियों द्वारा रामजी का स्मरण पढ़ते हुए मलिक मुहम्मद जायसी रचित बारहमासा का स्मरण सहज हो जाता है. शब्दों के चयन की मारकता और मार्मिकता , देशज व स्थानीय शब्दों के प्रयोग तथा उनके ध्वन्यार्थ का दिलोदिमाग में बना रहने वाला आशय, बिम्ब विधान, प्रतीक और वक्रोति सहित विभिन्न अलंकारों का प्रयोग कवि की भावयित्री प्रतिभा को दर्शाने में सर्वदा सक्षम है. हालांकि कहीं कहीं अनुस्वार की कमी भी खटकने वाली है.
शिवपूजन शुक्ल की अन्य अवधी कृतियों में मांगैं थरिया मां अंजोरिया, धरती महरानी, मोहनी मुरलिया प्रमुख हैं. कवि का मन मूलत: भजन में रमता है, वे अयोध्या की वीथियों में प्राय: विचरते देखे जा सकते हैं. उनका संकल्प अवधी की पताका को दुनिया भर में लहराने का है. वैसे भी वे मारीशस, इंडोनेशिया, (जकार्ता, बाली) सहित भारत के करीब सभी सूबे में अवधी गायकी की छाप छोड़ चुके हैं. आपके सतत् लेखन व स्वस्थ दीर्घजीवी जीवन की कामना करता हूँ.
समीक्षक – सन्तोषकुमार तिवारी
चरनवाँ कै धूर, कवि – शिवपूजन शुक्ल, प्रकाशक : लोक संस्कृति शोध संस्थान, लखनऊ, मूल्य – 150 रुपये
इस लेख के लेखक संतोषकुमार तिवारी प्रेमचंद साहित्य के अध्येता हैं. पेशे से अध्यापक व दो कविता संग्रह के रचनाकार संतोष नैनीताल के रामनगर में रहते हैं. निवास श्री अयोध्याधाम, रामनगर, नैनीताल (उत्तराखंड) 09411459081/ 08535059955
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…