उत्तराखंड के लगभग सभी उन स्थानों पर जिन्हें सरकार पर्यटन के लिहाज से महत्वपूर्ण मानती है, पिछले कुछ वर्षों में पर्यटन विभाग द्वारा एक नायाब कारनामा अंजाम दिया गया है. पर्यटकों की जानकारी बढ़ाने के उद्देश्य से इन जगहों के बारे में आवश्यक सूचनाएं बहुत ही कलात्मक ढंग से पीले पत्थरों पर उकेरी गयी हैं.
इन पीले पत्थरों को नक्काशीदार लकड़ी और पत्थरों से बनी जिस संरचना में स्थापित किया गया है वह वाकई बहुत कलात्मक है. एक मोटे अनुमान के हिसाब से ऐसी संरचनाओं की संख्या सैकड़ो में होगी. आप इन्हें चौकोड़ी के टीआरसी में भी देख सकते हैं और पौड़ी के कंडोलिया मंदिर में भी. इन्हें नैनीताल के फ्लैट्स में भी देखा जा सकता है और एबट माउंट की परित्यक्त सरकारी कॉटेजों के बाहर भी.
मुझे एकाधिक बार यह जानने की जिज्ञासा हुई कि इनको बनाने में प्रति संरचना के हिसाब से वास्तव में कितना खर्च आया होगा और ठेकेदार को कितना पैसा दिया गया होगा लेकिन आवश्यक संपर्कों और इच्छाशक्ति की कमी के कारण मैं वह जानकारी नहीं जुटा पाया.
दूर से देखने पर ये संरचनाएं वाकई बहुत आकर्षक लगती हैं लेकिन उनमें से अधिकतर में लगे पीले पत्थरों को नजदीक जा कर पढ़ना आपको अचरज, हैरानी और खीझ से भर देता है. अगर आप सही भाषा इस्तेमाल करने के पक्षधर हैं तो आपको बहुत सारा क्रोध भी आएगा.
इन पत्थरों को थोड़ा और ध्यान से पढ़ना शुरू करें तो आपको उत्तराखंड के बारे में ऐसी-ऐसी अद्भुत जानकारियाँ मिलेंगी जो सिर्फ इन संरचनाओं को बनाने वाले महापुरुषों को पता रही होंगी.
हाल में अपनी पौड़ी यात्रा के दौरान मुझे वहां के कुछेक मंदिरों का दर्शन करने का सौभाग्य मिला. जिस मंदिर को पर्यटन विभाग क्यूंकालेश्वर महादेव मंदिर बता रहा है, उसके भीतर जाने पर वहां रहने वाले महंत साफ़ साफ़ कहते हैं कि पत्थर में लिखी सारी जानकारी ‘फेक’ है. और तो और वे यह भी कहते हैं कि मंदिर का नाम क्यूंकालेश्वर नहीं कंकालेश्वर है. सरकारी पत्थर बताता है कि इस मंदिर को आदि शंकराचार्य ने स्थापित किया था. महंत बताते हैं कि ऐसा कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं जो यह सिद्ध कर सके कि शंकराचार्य यहाँ आए भी थे! वे कहते हैं कि जिस मंदिर को सरकार आठवीं शताब्दी का बताने पर उतारू है, वह दरअसल उन्नीसवीं शताब्दी का है. मंदिर का वास्तुशिल्प भी यही साबित करता प्रतीत होता है.
यह सिर्फ एक बानगी भर है. अमूमन इन पत्थरों पर लिखी इबारतों में व्याकरण और भाषा की ऐसी गलतियाँ हैं जिन्हें किसी भी कीमत पर क्षमा नहीं किया जा सकता. लेकिन वे लगी हैं और तब तक लगी रहेंगी जब तक कि कोई और त्रिकालदर्शी अफसर या नेता उन्हें उखाड़ कर उनसे भी बड़ा कारनामा कर डालने की और उद्यत न हो जाए. सार्वजनिक तौर पर लगाई गयी इन इबारतों को लोग सालों से झेलते आ रहे हैं और प्रतिकार या प्रतिरोध का एक भी स्वर मुझे आज तक सुनने को नहीं मिला है.
हाल ही मैं मेरे पास कर्णप्रयाग में लगे ऐसे ही पत्थर की तस्वीर आई है जिसे पढ़कर आप सिर्फ अपना माथा पीट सकते हैं. प्रस्तर-लेखक कहते हैं:
“अति उत्कृष्ठ (*स्पेलिंग गलत है) एक ही लेखक अभिजन्ना-शकुंतला द्वारा शकुंतला एवं राजा दुष्यंत की रोमांटिक कहानियां यहीं लिखी गई.”
मेरा इरादा है कि उत्तराखंड के पर्यटन विभाग द्वारा लगाए गए ऐसे सभी पत्थरों की तस्वीरें तो कम से कम सहेज कर रख ही लूं. अपना ज्ञान बढ़ाने की हसरत किसे नहीं होगी!
इसके अलावा मेरा अपना जीवन नीरस हुआ जा रहा है सो उसमें थोड़े बहुत रंग भरने की नीयत से फिलहाल मैं कर्णप्रयाग के रास्ते लग लिया हूँ. हो सकता है अभिजन्ना-शकुंतला की तरह मुझे भी रोमांटिक कहानियां लिखने की प्रेरणा हासिल हो जाय और मेरी कथाओं से खुश होकर सरकार कोई इनाम वगैरह मेरी झोली में भी गिरा दे.
जय उत्तराखंड! जय देवभूमि!
-अशोक पाण्डे
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