उत्तराखंड का जौनसार बाबर क्षेत्र अपनी विशिष्ट संस्कृति के लिये जाना जाता है. प्रकृति की अनुपम छटा में बसे इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष वैशाख के पहले हफ्ते एक मेला लगता है इसे बिशु या बिस्सू मेला कहते हैं.
पांडवों को अपना वंशज मानने वाले जौनसार बाबर के लोग प्रकृति प्रेमी होते हैं. बिशु मेले भी प्रकृति के प्रति जौनसार के लोगों का लगाव देखने को मिलता है.
महिला पुरुष बच्चे इस मेले में शामिल होते हैं.नए परम्परागत सुंदर कपड़ों में लोग मेले में आते हैं. इस अवसर पर परंपरागत परिधानों में सजे लोग पूड़ी पकोड़े इत्यादि स्थानीय व्यंजनों का स्वाद लेते हैं.
सामूहिक रूप से ढोल-दमामों-रणसिगों की ध्वनि पर नृत्य करते धनुष, तीर व फरशा लिए धनुर्धारी दो दलों में विभक्त होते हैं. स्थानीय भाषा में इसे ‘ठोटै’ खेलना कहते हैं. सूर्यास्त तक यह धनुर्युद्ध चलता रहता है.
रात के समय यहां नृत्यगीत होता है. पुरुष और महिला अपने पारंपरिक परिधान में लोकगीत गाते हैं और लोकनृत्य भी करते हैं. मेले में उनकी वेशभूषा भी एक विशेष आकर्षण का विषय रहती है.
लोग बहुत दूर-दूर से मेले का हिस्सा बनने आते हैं. ऐसा नहीं है कि इस मेले में केवल जौनसारी समाज के लोग शामिल होते हैं. इस मेले को देखने देहरादून उत्तरकाशी जिलों से दूर दूर से लोग आते हैं.
यह क्षेत्र हिमांचल प्रदेश की सीमा से लगा क्षेत्र है अतः इस क्षेत्र की परम्परा और हिमांचल की परम्परा में सामानता देखी जा सकती है. हिमांचल में कूल्लू क्षेत्र में भी इसप्रकार का एक बड़ा मेला आयोजित होता है. उसे भी बिशु ही कहा जाता है.
सभी तस्वीरें देहरादून के रहने वाले अभिषेक विश्नोई ने ली हैं.
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