मूल निवास व भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति की ऋषिकेश में संपन्न महारैली से उत्तराखंड आंदोलन के समय उपजे जोश की स्मृतियां जीवंत हो गयीं. प्रदेश के मूल निवासियों के हक-हुकूक की बुलंद आवाज प्रतिध्वनित करने के साथ जनता की सबल व निर्णायक भूमिका को तत्पर जन सैलाब अपनी संस्कृति के संरक्षण के प्रति सजग दिखा.
(bhu-kanoon andolan uttarakhand 2024)
अनुशासित रह पूरे मनोयोग से अपनी बात कहने की तत्परता और बिना कोई तनाव हुए महारैली संपन्न हुई. आशा जगी कि आंदोलन चरण बद्ध तरीके से ऐसे कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाने में सक्षम होगा कि गांव-गांव, कस्बे-शहर, नगर-महानगर तक हर निवासी इस आव्हान के उद्देश्य व संवेदनशीलता को आत्मसात करेगा.
स्कूल-विद्यालय, महाविद्यालय-विश्व विद्यालय के साथ हर शिक्षण संस्था के बच्चे- किशोर व युवा छात्र छात्राएं इसकी भावना व मर्म को समझेंगे. इससे जुड़े मुद्दों पर संवाद होंगे. आंदोलन घर-घर पहुंचे यह मुख्य अधिमान बने. अपने शुरुवाती दौर में ही पहाड़-मैदान-तराई के हर हिस्से के प्रतिनिधित्व के साथ प्रवासी उत्तराखंडी एकजुट दिखे. यह एक शुभ संकेत बना.
उत्तराखंड सरकार ने एक जनवरी २०२४ को निर्णय लिया था कि भू-कानून प्रारूप समिति की रिपोर्ट आने तक प्रदेश से बाहर के निवासियों द्वारा कृषि व उद्यान हेतु क्रय की जा रही भूमि पर प्रतिबन्ध रहेगा. आवासीय उपयोग के लिए 250 वर्ग मीटर की सीमा तक ही भूमि का क्रय किया जा सकेगा. अगले बजट सत्र में सरकार सख्त भू कानून लाने का निर्णय भी जाहिर कर चुकी है.
भू-कानून का मसविदा तैयार करने के लिए सुभाष कुमार समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखा जाना है जिसके लिए मुख्य सचिव राधा रतूड़ी की अध्यक्षता में समिति बना दी गई है.
उत्तराखंड में दूसरे राज्य के निवासियों द्वारा खरीदी गई भूमि की पड़ताल के आदेश भी हुए तो इस मांग ने भी जोर पकड़ा कि राज्य बनने से पूर्व व उसके बाद नियम विरुद्ध क्रय की गई भूमि का पंजीकरण भी निरस्त किया जाए.
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अभी बाहर के निवासियों द्वारा परिवार के एक से अधिक सदस्यों के नाम खरीदे भू खंड का ब्यौरा इकट्ठा होना है. यदि नगर क्षेत्र से बाहर परिवार ने 250 वर्ग मीटर से अधिक की भूमि कब्ज़ा रखी है तो अधिशेष भूमि को सरकार अधिग्रहित कर लेगी.
उत्तराखंड की सुरम्य वादियों में आवास बनाने के साथ ही निवेश और बेहतर प्रतिफल के लिए भी विनियोगी भूमि का क्रय करते हैं.ऐसे में यदि उन्होंने 12.5 एकड़ से अधिक भूमि हासिल की व जिस परियोजना के लिए इसकी खरीदारी की गई उसका अन्य प्रयोग किया तो ऐसी भूमि सरकार जब्त कर लेगी.
उत्तराखंड में आरक्षित वर्ग की भूमि भी सुनियोजित तरीके से बिक रही है. भूमि की इस खरीद-फरोख्त में दो टप्पे के कई खेल हैं. बड़े स्तर की मिलीभगत है. प्रॉपर्टी डीलरों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वह अनुसूचित जाति-जनजाति व अन्य पिछड़े वर्ग की भूमि को स्वयं कब्जे में ले फिर दूसरे राज्य के निवासियों के हवाले कर देते हैं.
गावों में ऐसा बिचौलिया वर्ग तेजी से पनप गया है जो स्थानीय दुर्बलताओं के चलते आसानी से उन निवासियों को बरगला लेता है जिन्हें अपनी किसी भी आवश्यकता के लिए रकम चाहिए. यह चक्र इतने लम्बे समय से चला आ रहा है कि जहां खेत खलिहान थे, आज वहां सजी-धजी इमारतें, कॉटेज, व्यवसायिक उपक्रम हैं और जिनकी यह धरोहर थी उसकी कई कथाएं सुनाई देती हैं.
अतीत के भूमिधारी अब यहाँ चौकीदारी कर रहे. माली हैं, रसोइया बन गए हैं.जब उन्हें जमीन बेच रकम मिली तो उसकी पंप प्राइमिंग बेटी की शादी, तमाम कर्मकांड, और तेजी से पनपे दारू के अड्डों व ठेकों तक होती रही. फिलहाल जमीन बिक्री जाँच की शुरुवात नैनीताल, अल्मोड़ा,पौड़ी व टिहरी से होनी है.
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दशकों से नैनीताल, भीमताल, भवाली, रामगढ़, मुकतेश्वर, प्यूड़ा से अल्मोड़ा, मसूरी, ऑली, धनौल्टी, टिहरी के पर्यटन स्थलों के पास की भूमि रसूखदार धन कुबेरों के कब्जे में है. सवाल वर्षों से सुलग रहे हैं.
सशक्त भू कानून के लिए आहूत स्वाभिमान रैली में जिन प्राथमिकताओं को चिन्हित किया गया उनमें:
1. मूल निवास की कट ऑफ समय अवधि वर्ष 1950 घोषित किया जाना तथा राज्य के मूल निवासियों का सर्वेक्षण कराना है. इसके आधार पर राज्य के मूल निवासियों को सरकारी व निजी क्षेत्र की नौकरी के साथ ठेकेदारी व तमाम संसाधनों पर हिस्सेदारी भी सुनिश्चित की जाए.
2. उत्तराखंड में तीस साल से रह रहे निवासियों को आवासीय भवन बनाने के लिए 250 वर्ग मीटर क्रय करने की स्वीकृति मिले. इसके लिए तीस वर्ष पहले से उत्तराखंड में निवास की शर्त अनिवार्य रखी जाए साथ ही प्रदेश के सभी ग्रामीण इलाकों में खेती की जमीन क्रय-विक्रय करने पर पूरी पाबंदी लगे.
3. राज्य गठन से अद्यतन विभिन्न सरकारी संस्थानों व निजी कंपनियों को विक्रय की गई तथा लीज तथा दान में दी गई भूमि का विवरण को सार्वजनिक किया जाए.
4. उद्योग के लिए दस वर्ष की लीज पर भू खंड आवंटित हों. ऐसी भूमि पर पचास प्रतिशत की हिस्सेदारी स्थानीय निवासियों के लिए तय हो. इस प्रकार लगे उपक्रमों में नब्बे प्रतिशत रोजगार स्थानीय निवासियों को मिले. जिस उद्योग हेतु भूमि का आवंटन किया गया है उसका निरीक्षण व मूल्यांकन नियत समय अंतराल पर कराया जाए तथा इस प्रक्रिया के बाद ही लीज बढ़ाई जाए.
प्रदेश के मूल निवासियों को संसाधनों पर वाजिब अधिकार मिले. संसाधनों के अति दोहन व इससे उत्पन्न भूमि के अवक्षय के लिए कठोर व सशक्त भू कानून लागू किया जाए जो आंचलिक विशेषताओं व भूगर्भ स्थितियों के अनुकूल हो. अवस्थापना निर्माण में हुई ऐसी अनदेखी के गंभीर परिणाम पहाड़ के भंगुर व संवेदनशील इलाके भुगत चुके हैं.
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राज्य बनने के बाद से ही भू कानून लागू किये जाने की प्रक्रिया चल रही है. हो हल्ला भी कि यह हिमाचल और पूर्वोत्तर से भी अधिक कठोर व दृढ़ होगा. बीते दौर में जमीनों पर कब्ज़ा जारी रहा. 2024 के बजट सत्र में वृहत भू कानून लाने की घोषणा भी की गई. इसके लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में प्रारूप समिति कार्यरत हुई.हालांकि वर्ष 2003 में, पहले से विद्यमान भू कानून जिसे नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश तथा भूमि प्रबंधन कानून 1950 की धारा 154 को संशोधित करते बनाया था, अमल में नहीं लाया जा सका जिसमें आवासीय प्रयोजन हेतु 500 वर्ग मीटर की भूमि खरीदे जाने का प्राविधान था.
सितम्बर 2024 में एक बेमिसाल स्वयं स्फूर्ति भरा आयोजन सफलतापूर्वक संपन्न हुआ. सशक्त भू-कानून व मूल निवास की मांग को ले कर विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक संगठनों की विशाल रैली ऋषिकेश की सड़कों पर शांतिपूर्वक उतर आई. इसमें पूर्व सैनिक भी थे तो सेवानिवृत कर्मचारी भी, महिलाओं, युवा वर्ग के साथ बुजुर्ग भी जो बस सशक्त भू कानून व मूल निवास 1950 की मांग पर अड़े थे. भू-कानून समन्वय संघर्ष समिति की महारैली रविवार 30 सितम्बर को सुबह से ही आई डी पी एल में जुटना शुरू हुई व साढ़े दस बजे से त्रिवेणी घाट को रवाना हुई. नटराज चौक पर इन्द्रमणि बडोनी की प्रतिमा पर पुष्प गुच्छ चढ़ाये गये.
भू-कानून समन्वय समिति के संयोजक मोहित डिमरी ने दो टूक कहा कि उत्तराखंड के निवासी अब दोयम दर्जे के नागरिक बनते जा रहे हैं ,युवा वर्ग के पास नौकरी नहीं है उनका पलायन जारी है तो भू माफिया जमीन हड़प रहे हैं. नारे उभरते रहे:
‘सुन लो ! दिल्ली देहरादून ,हमें चाहिए भू कानून’
‘जल जंगल जमीन हमारी ,नहीं चलेगी एक तुम्हारी’
‘मातृ भूमि कि सुणा पुकार, भै-बैणयूं भोरा हुंकार’
‘नशा नहीं रोजगार चाहिये’
रैली की खासियत यह कि घर-घर जा भीड़ नहीं जुटाई गई. मूल निवास संघर्ष समिति के आह्वान में जनमानस के अवचेतन में छुपी यह भावना सर्वोपरि रही कि एक-दूसरे से सुन कर लोग आते रहे. सैलाब बढ़ते रहा. पहाड़ के गीत मचलते रहे. जन गीत गूंजते रहे. हाथों में तख़तियाँ लिए सड़क पर जन सैलाब उमड़ गया. दूरस्थ स्थानों से बाइक और कार रैली आई. सब अपने साधनों से अपनी व्यवस्था से चले आये. कोई प्रलोभन नहीं, सब कुछ स्वयं स्फूर्ति से संयमित जो हकीकत में स्वाभिमान रैली के नाम को चरितार्थ कर गया.पहाड़ की अपनी छाप अपने लोक की रंगत पारम्परिक वस्त्र पहनी मातृ शक्ति ने सजीव कर दिया तो कई स्थानों में ढ़ोल थाली बजा जागर के कृत्य भी सम्पन्न किये गये.
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जन समूह की सोच स्थानीय युवकों के सामने उभर रहे रोजगार अवसरों के लगातार सिमटते जाने से ले कर महिला सुरक्षा की विगलित स्थिति को जता रही थी. अंकिता हत्याकांड के साथ अनगिनत ऐसी ही वारदातें, बढ़ते हुए हिंसक कृत्य और इनके पीछे छुपे समाज के तथाकथित प्रभावशाली तबके के कारनामें जाहिर होने के बावजूद महिला सुरक्षा के प्रति उदासीन तंत्र का चेहरा फिर याद दिलाया गया.तमाम किस्म के नशे और व्यभिचार के साथ तेजी से बढ़ते पर्यटन से पनपी अपसंस्कृति पर चिंता पनपी जिन्हें समय पर थामा नहीं गया तो लोकथात समूल विनिष्ट हो जाएगी.
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के बाद जनता के जाग्रत होने का यह मुद्दा प्रबल प्रयास बना जिसने स्वयं स्फूर्ति से जागरण का संदेश दिया. गंगा मैया की शपथ ले जनसमूह ने संकल्प लिया कि जब तक लोगों के हक हुकूक को संरक्षित करने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए जाएंगे यह आंदोलन जारी रहेगा.
उत्तराखंड बनने से पूर्व यह राज्य उत्तरप्रदेश का भू भाग था इसलिए यहाँ के भूमि कानूनों का आधार उत्तरप्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, १९५० बना जिसे उत्तराखंड राज्य ने भी अपनाया. इसके अधीन भूमि का उपयोग कृषि व गैर कृषि उद्देश्यों के लिए अलग-अलग किया जाता. भूमि का उपयोग बदलने अर्थात कृषि से गैर कृषि के लिए धारा 143 के अधीन अनुमति लेनी आवश्यक थी.
उत्तराखंड की बेहतर जलवायु, रमणीक प्रकृति, शांत वातावरण से आकर्षित हो कर प्रदेश से बाहर के निवासियों के द्वारा यहाँ भूमि खरीदी गई जिससे अनेक समस्याएं पैदा हुईं. तब पारंपरिक ग्रामीण व पर्वतीय क्षेत्रों में बाहरी व्यक्तियों द्वारा भूमि क्रय पर प्रतिबन्ध लगाने की कवायद हुई. ऐसे विधान बने जिसमें राज्य सरकार की अनुमति के बिना कृषि भूमि सीधे न खरीदी जा सके.
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यह नियम राज्य की जैव विविधता और परंपरागत ग्रामीण समाज की थात को बनाए बचाए रखने के लिए लागू किया जाना तय हुआ.विधान के अनुरूप, उत्तराखंड में कोई भी व्यक्ति 12.5 एकड़ से अधिक भूमि नहीं खरीद सकता, चाहे वह राज्य का निवासी हो या दूसरे राज्य का.
उत्तराखंड के भूमि संरक्षण कानून की महत्ता इस कारण खास हो जाती है क्योंकि यहाँ का अधिकांश भू भाग, विशेषत: पहाड़ी इलाका पर्यावरण की दृष्टि से भंगुर व संवेदनशील है.इसलिए राज्य के भूमि कानूनों में पारिस्थितिकी सुरक्षा के विशेष प्राविधान होने चाहिये. हालांकि यह दावे लगातार किये गये कि लागू कानूनों के अधीन भूमि उपयोग के अनधिकृत रूप से हो रहे प्रयोग को रोकने के लिए नियमों में सख़्ती लाई जाएगी क्योंकि अब जलवायु परिवर्तन, आपदा, वनअग्नि, भूस्खलन व अवस्थापना निर्माण से हो रहे भूक्षरण में प्रकृति का कोप बढ़ते जा रहा है.
वर्ष 2003 में उत्तराखंड विशेष क्षेत्र अधिनियम लागू किया गया जिसमें भूमि के उपयोग व उसके विकास के लिए विशेष नियम लागू होते ताकि इन क्षेत्रों में अनियंत्रित शहरीकरण और अवैध निर्माण पर अंकुश लगाया जा सके.
उत्तराखंड में पट्टे पर जमीन देने के कुछ विशेष नियम रहे खास कर सरकारी और वन भूमि के मामलों में. यह खासकर पर्यटन, कृषि और शैक्षणिक संस्थाओं के मामले में लागू किया गया.
वर्ष 2021 में राज्य सरकार ने भूमि कानून में संशोधन कर राज्य से बाहर के निवासियों द्वारा भूमि क्रय के प्रतिबंधों को शिथिल करने के निर्णय लिए जिससे राज्य में निवेश को प्रोत्साहन मिले व नई परियोजनाएँ स्थापित की जा सकें. इस मुद्दे पर राज्य के सामाजिक व ग्रामीण संगठनों द्वारा विरोध जारी रहा क्योंकि इससे भूमि अधिग्रहण की बारम्बारता बढ़ती. ऐसा विस्तार शहरी इलाकों में ज्यादा होता जिससे कई सामाजिक व पर्यावरण की विसंगतियां उत्पन्न होतीं.
निवेशकों व कंपनियों के द्वारा सरकार से मिली छूट, प्रोत्साहन, सब्सडी के अधीन भूमि प्राप्त की गई तो बड़े पैमाने पर निजी स्तर पर भूमि क्रय हुई. इससे पारम्परिक संस्कृति, सामाजिक ढांचे व स्तरीकरण व पर्यावरण संतुलन पर विपरीत प्रत्यावर्तन प्रभाव पड़े जिसका स्थानीय स्तर पर विरोध हुआ. चिपको की भांति इस मुद्दे पर सशक्त जमीनी आंदोलन तो उभर नहीं पाया पर स्थानीय स्तर पर पहाड़ के अलग-अलग हिस्सों में सुगबुगाहट होती रही. सरकारी स्तर पर भूमि उपयोग के लिए सख्त नियमों के लागू होने की घोषणाएं होती रहीं पर उनमें ऐसे झोल थे कि प्रभावशाली लॉबी के द्वारा कब्जे निरंतर होते रहे.
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प्रचलित भू कानूनों का प्रभावी रूप से क्रियान्वयन संभव न हुआ. हाल के वर्षों में भू स्खलन और प्राकृतिक आपदाओं के साथ अवस्थापना हेतु किये जा रहे कार्यों की गुणवत्ता निरंतर गिरती गई. पहाड़ में जमीनें बिकी जिनको बेचने वाले भी स्थानीय ही थे. भू माफिया तेजी से पनपा जिनके शीर्ष पर नियंत्रण करने वाले गिरोह बहुत शक्तिशाली व हिंसक मनोवृति के भी थे.
उत्तराखंड को प्रभावशाली लोगों व सरकारी अधिकारियो द्वारा हमेशा चारागाह के रूप में देखा गया जिसमें प्राकृतिक संसाधनों की लूट भी शामिल है. इससे घोटाले बढ़े, भूमि की असमानता बढ़ी, ऊपर से चल रही बंदरबाँट का असर मातहतों तक फैला. पूरे परिवेश पर इसका असर पड़ा और स्थानीय जन भी उदासीन व तटस्थ बना दिखा. ऐसे में व्यक्तियों द्वारा भूमि खरीद की सीमा तय करने के साथ ही ऐसे सभी उपाय व हेराफेरी के तरीकों पर भी सख़्ती करनी जरुरी समझी गई जिनकी आड़ में नियत कानूनी विधान का उल्लंघन होता रहा. पहले हो चुके ऐसे सौदों की समीक्षा व जाँच की निरंतरता तो अब सबसे जरुरी है.
अवैध भूमि अधिग्रहण की पहचान व उस पर तुरंत कार्यवाही अन्यथा लंबित मामले ऐसी हर कोशिश को और मजबूत बना देंगे. उच्च दर पर भूमि कर जरुरी समझा गया तो ऐसे स्वतंत्र भूमि आयोग का गठन भी जिसके अधीन उन सभी विवादस्पद मामले की जाँच हो जहाँ प्रचलित विधान का उल्लंघन करके जमीन की बंदरबाँट की जा चुकी थी. यह भी सुनिश्चित किया जाए कि क्रय की गई भूमि का उपयोग पारदर्शी हो. यदि किसी संस्था या व्यक्ति द्वारा कृषि भूमि खरीदी गई हो तो उसका उपयोग भी नियत उद्देश्य के लिए किया जाए. भूमि को खाली छोड़ने पर भी पैनल्टी लगे.
बाहरी निवासियों और निवेशकों के द्वारा खरीदी गई भूमि पर अवैध निर्माण हुए. पर्यटन और रियल स्टेट के क्षेत्र में अनियंत्रित निर्माण कार्यों पर कोई निगरानी न होने से न केवल प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण हुआ बल्कि इनके दोहन की रफ़्तार भी बढ़ती गई. तेजी से बढ़ रहा भूस्खलन घटिया निर्माण कार्यों से और अधिक समस्या पैदा कर गया. इसके साथ ही कृषि भूमि का गैर कृषि कार्यों में उपयोग बेलगाम होता गया.
भूमि की कीमतों में भारी वृद्धि हुई जिससे स्थानीय लोगों के लिए सामान्य आवास हेतु जमीन खरीदने पर अधिक खर्च करना पड़ा. ग्रामीण व शहरी भूमि पर बिचौलियों की सख्त पकड़ बनी है जिसके रहते आम नागरिक नुकसान में ही रहता है. प्रदेश के बाहर के निवासियों के साथ ही राज्य के समर्थ पूँजीपतियों द्वारा क्रय की गई जमीन का उपयोग अक्सर बड़े आवसीय परिसर, होटल, रिसोर्ट के निर्माण के लिए होता रहता है जिससे स्थानीय व्यक्तियों के सामने आवासीय भूमि प्राप्त न होने का संकट पैदा हो चला है. इन सब बेलगाम गतिविधियों से शहरी क्षेत्रों के साथ कसबों में जनसंख्या घनत्व व आधारभूत संरचना पर दबाव बना. अधिकांश शहर धारक क्षमता से अधिक बोझ वहन करने लगे. अवलम्बन क्षेत्र सिकुड़ते गया.
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बाहरी व्यक्तियों के साथ ही अनियंत्रित पर्यटकों की भीड़ स्थानीय पर्यावरण के मापदंडो की अवहेलना करती दिखती है. कचरे, पॉलीथिन, जल प्रदूषण और वन्य जीवों की बसासत का सिमटना समस्या बन गई है.पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों जैसे पहाड़ी इलाकों,उनके अवलम्बन क्षेत्र जैसे वन, चारागाह,प्राकृतिक जल स्त्रोत, व नदियों, गल व हिमनद के निकट भूमि अधिग्रहण पर प्रतिबंध हो तथा इन इलाकों में भूमि के क्रय-विक्रय के मामलों की जाँच होनी चाहिये.
पहाड़ की खेती, पशुपालन, सब्जी, मसाले, मौसमी फल, जड़ी बूटी- भेषज पर आश्रित जीवन निर्वाह की गतिविधियां खेती की भूमि की अंधाधुंध खरीद से न्यून होती गईं. कृषि भूमि के गैर कृषि उपयोग से किसानों की आजीविका प्रभावित होती रही. बाहर से आये समृद्ध वर्ग व स्थानीय के बीच आर्थिक व सामाजिक असमानता बढ़ी. यह सामाजिक द्वेधता है तो बाहर से आये कामगारों में कार्य कुशलता व विशिष्टीकरण होने से उन पर निर्भरता भी बढ़ी है. स्थानीय कार्य सक्षम श्रम शक्ति के निरंतर पलायन का यह मुख्य कारक है.
उत्तराखंड में अन्य प्रदेशो के निवासी बड़ी संख्या में आ बसे हैं जिससे स्थानीय संस्कृति, रीति रिवाज, परंपरा और सामाजिक ढांचे में कमोबेश नकारात्मक प्रभाव पड़ा है. स्थानीय त्यौहार, रीति रिवाज व जीवन शैली की परंपरागत खूबियां विलुप्त हो रहीं हैं तथा नये चलन के नशे, हीन आचरण, आपराधिक कृत्य व यौन हिंसा का लगातार प्रसार हो रहा है. ऐसा सांस्कृतिक झटका अब पहाड़ की संस्कृति को खोखला करता जा रहा है.
एक स्वतंत्र भूमि आयोग का गठन जरुरी है जो राज्य में भूमि खरीद के ऐसे मामलों की जाँच करे जहाँ सरकारी अधिकारियों और प्रभावशाली व्यक्तियों ने अनैतिक तरीके से भूमि खरीदी है. इसके साथ ही जनता के पास भी जमीन के क्रय विक्रय से जुड़े मामलों की शिकायत का अधिकार होना चाहिये. मंडल के कमिश्नर द्वारा की जा रही जनता की समस्याओं को दूर करने के अवसरों में सबसे अधिक मामले भूमि की समस्याओं के देखे गये.
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इस तरह के शिकायत व निगरानी तंत्र की एक पृथक हेल्पलाइन व ऑनलाइन पोर्टल हो जिसमें स्थानीय जन अवैध भूमि सौदों की रिपोर्ट दर्ज करवा सकें. इसके साथ ही भूमि पुनर्वास व पुनः वितरण योजना पर काम हो. जिन व्यक्तियों ने अवैध रूप से भूमि क्रय की है उनसे भूमि वापस ले कर उसे राज्य के भूमि बैंक में डाला जाए. इस भूमि का उपयोग स्थानीय जरुरत मंद समुदायों के पुनर्वास या कृषि व अन्य उद्देश्यों में किया जाना संभव है. ऐसे ही जिन समुदायों की भूमि अनैतिक तरीके से ली गई है या जिनकी अजीविका इनसे प्रभावित हुई है उन्हें सरकार द्वारा उचित मुआवजा या वैकल्पिक भूमि प्रदान की जाए.
भूमि पंजीकरण व रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया डिजिटल है जिसे और पारदर्शी बनाने के लिए इसकी प्राविधि नवीनतम व पारदर्शी बनी रहे. भूमि खरीद के सभी रिकार्ड्स सार्वजनिक रूप से उयलब्ध होने चाहिये. राज्य के निवासियों को यह जानने का हक हो कि उनके प्रदेश में कौन लोग भूमि क्रय-विक्रय कर रहे और उसका उपयोग किस प्रकार से हो रहा. आवंटित भूमि का उपयोग निर्धारित उद्देश्य के लिए ही हो इसके लिए जियो टैगिंग व सैटेलाइट मॉनिटरिंग का उपयोग बेहतर है.
स्थानीय स्तर पर भूमि सौदों की निगरानी के लिए ग्राम पंचायतों की भूमिका और अधिक सशक्त बनानी होगी है. पंचायतों का भूमि बिक्री और उपयोग पर नियंत्रण का अधिकार रहना जरुरी है. इसी प्रकार भूमि अधिग्रहण एवम उपयोग से संबंधित प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी तय हो ताकि उनकी विरासत और भावी हितों की रक्षा हो सके.भूमि आवंटन की प्रक्रिया पारदर्शी हो जिससे भूमि का अनावश्यक अधिग्रहण या गलत तरीके से फायदा उठाने के अवसर न मिल सकें.
सरकारी वेबसाइट अद्यतन संशोधित रहे जिसमें सभी आवंटन व उपयोग की जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रहे. सस्ती भूमि प्राप्त करने वाले आवेदकों की सूची व उनके निहित उद्देश्यों की जानकारी रहे. सबसे जरुरी है ऐसे उद्योग व संगठनों का चुनाव जिनकी उत्पादन से संबंधित फीजेबलिटी रिपोर्ट तथ्यात्मक व दृश्य हो. आवंटित भूमि पर शुरू की गई परियोजनाओं की समय समय पर प्रोग्रेस रिपोर्ट का मूल्यांकन हो.
परियोजना के लटकने, धीमी गति से चलने व वास्तविक उपयोग में पिछड़ने पर सरकार प्रभावी हस्तक्षेप करे. एन जी ओ व सिविल सोसाइटी द्वारा भूमि उपयोग व संचालित परियोजनाओं का सोशियल ऑडिट निरन्तरता से हो जिससे स्थानीय समुदायों को इनकी गतिविधि के बारे में स्पष्ट जानकारी रहे व जनता ऐसे किसी भी दुरूपयोग के खिलाफ आवाज उठा सके.
भूमि अधिग्रहण व इसके प्रभावों के बारे में जागरूकता अभियान की शुरुवात विद्यालय व महाविद्यालय स्तर के साथ अन्य शैक्षणिक संस्थाओं से की जाय. विद्यार्थियों के बीच वाद-विवाद, निबंध, पोस्टर व चित्र प्रतियोगिताओं का आयोजन कर उन्हें पुरस्कृत किया जाय. इसका उद्देश्य प्राथमिक स्तर से ही बच्चों में अपने देश की धरती को बनाए बचाये रखने की भावना का संप्रेषण हो. जनता को अपने अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए सिविल सोसाइटी के संगठन व गैर सरकारी संगठन भूमि के अनुचित प्रयोग के खिलाफ आवाज उठाने में सार्थक भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं व जरुरतमंद लोगों को भूमि अधिग्रहण से संबंधित विवादों में कानूनी सहायता प्रदान कर सकते हैं.
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भूमि अधिग्रहण के मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप व निगरानी की जरुरत होती है. अदालती मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए विशेष भूमि अधिग्रहण अदालतों का गठन किया जाना जरुरी है. इसी प्रकार भूमि से संबंधित कानूनों में आवश्यक सुधार किये जाने चाहिये जिससे राज्य व राज्य के बाहर के निवासियों व सत्ता की पहुँच वाले प्रभावशाली वर्ग द्वारा अनैतिक रूप से भूमि खरीदने पर प्रभावी रोक लगे. भू कानून व मूल निवास की इस लहर को तरंग बनना ही है.
(जारी)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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