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जब तिल्लू बड़बाज्यू भिटौला लेकर आये

भिटौली पर याद आया कि उस साल हम पहाड़ में रहे थे जब तिल्लू बड़बाज्यू भिटौला लेकर आये होंगे. आप भी सोचते होगे कि भिटौला और बड़बाज्यू का भी क्या मेल? भिटौला तो भाई या ददा लेकर आते हैं, बेणीं या दिदी के ससुराल में. जी हाँ, ऐसा ही होता है.
(Bhitauli Memoir by Gyan Pant)

असल में श्री त्रिलोचन पाठक जी मेरी आमा के एकमात्र सगे भाई हैं जो उपराड़ा के निकट सरयू पार पाठकों के गाँव में रहते थे तो स्वाभाविक है कि मेरे बड़बाज्यू लगे. आमा उन्हें तिल्लू कहती थी सो हम तिल्लू बड़बाज्यू कहने लगे. एकदम सीधे, सरल और सच्चे इंसान. दीन-दुनिया से बेखबर, अपनी ही दुनिया में मगन.

आमा बताती थी कि बहुत गरीब था उनका परिवार. आय का स्रोत खेती और सिर्फ खेती ही. हाड़-तोड़ परिश्रम के बाद पेट भर अनाज निकल ही आता, साग-भाजी भी हो जाती. केला, अमरुद, नारिंग भी होता तो लोग बेरीनाग बाजार में बेच-बाचकर चार पैसे भी जुटा लेते और इससे हल्दी, मसाले का जुगाड़ होता. लत्ते कपड़े कुछ जजमानी से मिल जाते वरना टा्ल मारकर (पैबंद) जिन्दगी चलती रहती. वह बताती थी कि नौ साल में ब्या के आ गई थी यहाँ, तब पेटीकोट का नाड़ा बाँधना पधानी आमा ने सिखाया था उस टैम ऐसा ही हुआ हो.

चैत की खुशबू फैल गई थी. गाँव के बच्चे धूप बचाकर गौधार की ओर देखते रहते की भिटौल्ली किसके घर जा रहा है. भिटौल्ली मतलब भिटौला लेकर आने वाला. जिनके भाई घरों में नहीं होते तो गाँव के किसी और को भी पटा-पुटू कर कहा जाता- उर्बाज्यू, साबुलि कैं भिटौल दिंण छी, दि आला के? उर्बादत्त जी मान गए तो ठीक वरना बीड़ी, मासिस के लालच पर और भी कई लड़के तैयार हो जाते. बहन के घर भी भिटौल्ली की बड़ी खातिरदारी होती फिर यह बात फैल जाती कि- आ बजेरी आमा वां अल्माड़ बटी कोप भिटौल ल्ही बेरि ऐ रौ. अल्मोड़ा से आने वाला भिटौला अपने आप में कुछ अलग होता और धीरे-धीरे बच्चे ठीक समय पर आमा के घर पहुँच जाते. उन दिनों पहाड़ी गाँवौं में भिटौला बाँटने का प्रचलन था. कहते हैं कि भिटौला जितने अधिक से अधिक लोगों में वितरित होता है उतनी ही भाई के घर यानी मायके में खुशहाली आती है.
(Bhitauli Memoir by Gyan Pant)

भिटौला मतलब पहाड़ी पकवानों से है जिसमें सै, पुवा, सिंघल और पूरी प्रमुख हैं. सै, चावल के आटे को दही में भिगोकर बनाया गया हलुवा है जिसकी खुशबू लाख छुपाओ, छुपती नहीं और आर पार फैल जाती है. क्षमतानुसार अब ड्राइफ्रूट्स व मिठाई आदि भी प्रचलन में आ गया है.

चैत्र मास में बहिनों को याद करने का ऐसा पर्व अन्य किसी संस्कृति में नहीं मिलता. प्रकृति भी इस समय फुरसत से श्रृंगार करती है शायद बहनों की ही तरह कि भाई आये तो उसे भी पता चले कि बहिन सौभाग्यशाली सुखमय जीवन व्यतीत कर रही है और फिकर की कोई बात नहीं. लेकिन पहाड़ी गाँवों में ऐसा कहाँ होता है. जीवन ही पहाड़ हो जहाँ-वहाँ सपनों को पंख कम ही लग पाते हैं. यह जाते हुए पचास के दशक की बातें हैं आज तो हालात कई बेहतर हो गए हैं.

तिल्लू बड़बाज्यू जब घर पहुँचे तो झुरमुट अँधेरा दरवाजे तक पसर गया था. माँ ने गाय, बछिया, बैल गोठ में कर दिए थे. बाद में आमा चारा डालकर दरवाजे भेड़ देगी. गूल से सीढ़ियाँ चढ़ते हुए माँ ने देख लिया था और आँगन में पहुँचते ही समझ गई थी कि तिल्लू बड़बाज्यू हैं. पैलागा के साथ बड़बाज्यू चाख (बैठक) में छा्ज ( चौड़ी खिड़की ) से लधार कर बैठ गए. मैंने भी दोनों हाथों से पैर छूकर नमस्कार कहा तो जी रये कहते हुए उन्होंने बगल में रक्खी पोटली अपनी ओर खिसकाई और कमर से लगाकर बैठ गए. मैं सोचता कि शायद मुझे देने के लिए उन्होंने ऐसा किया होगा लेकिन मुँह लटकाए माँ के भीतर लौट आया. सिगरेट जैसे जोर की सांस खींचते हुए मैंने कान में कहा- मम्मी भिटौले की खुशबू आ रही है. माँ ने ईशारे से चुप रहने को कहा और चाय बनाने लगी. मैं बड़बाज्यू के सामने ही बैठ गया. वो तो अच्छा हुआ की अँधेरे में बच्चों ने आते हुए नहीं देखा वरना अब तक भीड़ लग जाती. आमा अभी भी घर नहीं पहुँची थी. चाय पीते हुए बड़बाज्यू ने माँ से अनेक सवाल जवाब किए- भलि छै ब्वारी, केदारि ठीक हुन्योल, चहा तुई भल बणूँछी, दिदि ( आमा ) त ढा्ँट पाँणि बणैं दिंछ, धिनालि के छ, साग पात के हरौ…

ऐसी बातों में चाय ख़त्म होती-होती, तभी आमा आ पहुँची. लैम्फू की धीमी रोशनी में आमा ने दरवाजे से पहचान लिया. अरे तिल्लुआ, कस छै भुली, ठीक हुन्योले. घराक् हालचाल ठीकै हुन्याल…

तिल्लू बड़बाज्यू ने होय-होय करते हुए आमा के पैर छुए और पहले की तरह ही बैठ गए. मैं आदतन आमा से जुड़ गया कि क्या पता ता्ल गौं दुकानदार जी के यहाँ से टाफी बिस्कुट कुछ लायी हो. सब्जी काटने के निर्देश के साथ आमा ने यह भी कहा- ब्वारी, आज मैं पकूँन. त्यार टिकुलि जा्स रवा्टनैलि तिल्लू कभै नि भर ( बहू, आज खाना मैं बनाऊँगी. तेरी कागज जैसी रोटियों से तिल्लू का पेट कभी नहीं भरेगा ). यह सुनते ही बड़बाज्यू के बड़े दाँत बाहर निकल आए और उन्होंने बैठे-बैठे ही एक तरफ झुककर दबा हुआ झोला खींचकर बाहर निकाला और उसमें से पोटली आमा को देते हुए बोले- दीदी, भिटौल लै रयूँ…

अभी और कुछ कहते लेकिन आमा भड़क गई- त्यार छाति में भड़ी जौ भिटोल होय, नान्तिनन् जै दि मरनै. ऐल जाँणैं च्या्प ल्ही रोछै-तिलवा, ते अकल कभै नि आ… कहते हुए आमा ने मेरे हाथ में पोटली दी और मैंने पोटली भीतर मम्मी को थमा दी. बड़बाज्यू भी हाथ पैर धोने बाहर निकले क्योंकि झा्ड़-पिसाब के बाद वे संध्या करेंगे और उसके बाद ही ठ्या में आमा खाना परोसेगी. आमा ने पोटली खोलकर सै देना चाही तो मैंने साफ कह दिया- मैं नहीं खाऊँगा. इसमें तिल्लू बड़बाज्यू ने पादा है. बचपन की अकल थी, ऐसा नहीं कहना चाहिए था.

बड़बाज्यू का भी अन्यथा ध्येय नहीं था. उन्होंने सोचा कि सीधे दीदी के हाथों भिटौला देंगें तो वो खुश हो जाएगी कि मायके वालों ने याद किया है कर के और आमा की स्नेहमयी गाली का तिल्लू बड़बाज्यू पर कोई असर हुआ हो मुझे नहीं लगता क्योंकि वे पूरी एक घान आटे की द्वार जेसी रोटियाँ चट कर गए थे. बाद में हम लोगों के लिए आमा ने अलग से आटा साना था. मम्मी से कह भी रही थी आमा कि म्यार मैत्ती तासै खद्दू मरि रयीं. तिल्लू बड़बाज्यू का भिटौला माँ सहित हम तीनों ने नहीं चखा और फिर आमा ने भी मंशा भांपते हुए खाने की जिद नहीं की. दूसरे दिन पूरी बखाई में आमा के भिटौले की चर्चा जोरों पर थी.
(Bhitauli Memoir by Gyan Pant)

पिछली कड़ी: शहर लौटने से पहले आमा और पोते के मन का उड़भाट

मूलतः पिथौरागढ़ से ताल्लुक रखने वाले ज्ञान पन्त काफल ट्री के नियमित पाठक हैं . वर्तमान में लखनऊ में रहने वाले ज्ञान पंत समय समय पर अपनी अमूल्य टिप्पणी काफल ट्री को भेजते रहते हैं. हमें आशा है कि उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.

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