चंद्रशेखर बेंजवाल

भांग की चटनी – चटोरे पहाड़ियों की सबसे बड़ी कमजोरी

चंदू की चाची को चांदनीखाल में चटनी चटाई

जूनियर कक्षाओं में बाल मंडली ने अनुप्रास अलंकार का एक घरेलू उदाहरण ईजाद किया-था “ चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को चांदनी चौक में चांदी की चम्मच से चटनी चटाई”. अब ये चंदू कौन था और इसके चाचा ने इसकी चाची को चटनी क्यों चटाई इसे कोई नहीं जानता था. मगर इस उदाहरण से इतना तो साफ था कि चंदू का चाचा कोई सेठ आदमी था, जो चाची को चांदनी चौक में ले जाकर चांदी की चम्मच से चटनी चटा सकता था. वरना उस जमाने में छोटे-मोटे आदमी के पास चांदी तो दूर पीतल की चम्मचें भी कम ही मिलती थीं. (Bhang Chutney from Uttarakhand)

दूसरे इससे यह भी पता चलता है कि चटनी कोई गरीबों का ही भोजन नहीं है, अपितु चंदू के चाचा जैसे बड़े सेठ भी इसे पसंद करते हैं. राजस्थान की एक महारानी के बारे में पढ़ा था कि उसे भोजन में बाजरे की रोटी के साथ लहसुन व लाल मिर्च की तीखी चटनी अनिवार्य रूप से चाहिए होती थी और ऐसा न होने पर रसोइये की शामत आ जाती थी. इसी उपन्यास में एक उल्लेख यह भी आता है कि राजस्थान के एक महाराजा को लाल मांस और भात के साथ करौंदे की चटनी बेहद पसंद थी. ये तो राजा-महाराजाओं के किस्से हैं. इसी राजस्थान में किसान खेतों में कड़ी मेहनत के बाद बाजरे की रोटी में लहसुन-मिर्च की चटनी और प्याज रखकर ही अपनी क्षुधा शांत कर लेते हैं. (Bhang Chutney from Uttarakhand)

भट के डुबके – इक स्वाद का दरिया है और डुबके जाना है

चटनी का डंका विश्वव्यापी बजता है. हिंदुस्तान के अलावा बाकी एशियाई मूल के लोग तो खैर चटनी के मुरीद हैं ही, गोरे अंग्रेज भी चटनी के कम चटोरे नहीं. उनकी चटनी के नाम भले ही सॉस या केचप हों, पर हैं तो वो चटनी ही. चटनी का मतलब कुछ खट्टा, कुछ तीखा ऐसा कि जिसे चाटने का मन करे, चटखारे लेने का जी चाहे और इस मामले में हम हिंदुस्तानियों का कोई मुकाबला नहीं. कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अरुणाचल प्रदेश से गोवा, दमन दीव तक यहां हर प्रांत में नाना प्रकार की चटनियां मौजूद हैं. आम की चटनी, टमाटर की चटनी, धनिया-पोदीने की चटनी, लहसुन-मिर्च की चटनी, इमली की चटनी, नारियल की चटनी, करौंदे की चटनी, खुमानी की चटनी आदि-आदि. सूची इतनी लंबी है कि पूरी एक पुस्तक ही चटनियों पर लिख डाली जाए.

पहाड़ी मूले का थेचुवा खाइए जनाब, पेटसफा चूरन नहीं

वैसे तो स्त्रियों को विशेष चटनी प्रेमी बताया जाता है, पर चटनी की दीवानगी में पुरुष भी उनसे कहीं उन्नीस नहीं. मैंने तो ऐसे-ऐसे विकट पुरुष देखे हैं, जो बिना सांस लिए एक-एक कटोरा चटनी पेट में धसका लें और उफ्फ तक न करें. इन दिनों तो सड़कों पर खड़े चाउमिन-मोमो के ठेलों पर ऐसे वीर पुरुष भी नजर आ जाते हैं, जो बीस रुपये का चाउमिन लेकर उस पर ठेली की पटरी पर रखी टोमैटो सॉस की बोतल में से लगभग बीस ही रुपये का सॉस उंडेल कर उस चट कर जाते हैं. वैसे घटिया ब्रांड के इन कथित टोमैटो सॉस में टोमैटो कम और कद्दू ज्यादा होता है और टमाटर की खुशबू के लिए टोमैटो एसेंस डाल दिया जाता है.

एक अन्य महोदय तो मोमो की प्लेट में तीन-तीन बार मिर्च वाली लाल चटनी मांगते हैं. तीसरी बार मांगते समय तो मोमो वाला भी खूब बड़ी आंखें कर उन्हें घूरने लगता है, पर कुछ कहते-कहते उसकी जुबान रुक जाती है. यह महाशय शी-शी-शी करते हुए इस चटनी के साथ मोमो डकारते हैं. हालांकि उन्होंने कभी यह नहीं बताया कि वो इस चटनी को इतनी मात्रा में स्वाद के कारण खाते हैं या माले मुफ्त के इरादे से. ये दोनों सज्जन तो माले मुफ्त वाले चटनीखोर हैं, पर अपने ही मोहल्ले के पंत जी मेहनत की चटनी खाते हैं.

अद्वितीय होता है कुमाऊं-गढ़वाल का झोई भात

पुरखों की जोड़ी हुई जमीन उन्होंने आज भी सहेज कर रखी हुई है. सर्दी के दिनों में जब उनके खेतों में टमाटर उगने लगते हैं तो हरी और लाल दोनों रंगत लिए हुए अधपके टमाटरों को तोड़कर लाते हैं. उन्हें लकड़ी के चूल्हे की आग में भूनते हैं. घर के बरामदे में ही रखे सिलबट्टे पर हरी मिर्च, धनिया व लहसुन के पत्ते मिलाकर तबीयत से चटनी बनाते हैं और फिर दोगुनी तबीयत से इसे खाते भी हैं. न केवल खाते हैं, बल्कि प्रेमपूर्वक भाभी जी को भी खिलाते हैं. मुझे लगता है कि भाभी जी के साथ पंत जी की 37 साल लंबी बेहतरीन पारी का राज शायद ये चटनी ही है.

चटनियों के इस विशाल सागर में से आप चाहे कितनी ही चटनियां खा लें, लेकिन अगर आपने भांग की चटनी नहीं खाई तो समझें आप अभी अधूरे हैं क्योंकि जिस तरह हिमालय इस देश का मुकुट है उसी तरह हिमालय की विशिष्ट भांग की चटनी भी तमाम चटनियों की सरताज है. भांग की चटनी का नाम सुनते ही वे पाठक चौंक सकते हैं. जो उत्तराखंड के खानपान से बावस्ता नहीं हैं. ऐसे लोगों को मैं बता दूं कि ये कोई भांग के पत्तों की नशीली चटनी नहीं है, जैसा वे समझ रहे हैं अपितु भांग के पौधों में से निकलने वाले बीजों की चटनी है.

भांग के बीज

नशे से बिल्कुल मुक्त, पर स्वाद में अनूठी और सोंधी सुगंध से भरपूर. दरअसल उत्तराखंड देश का ऐसा राज्य है, जिसने भांग के पौधों को मात्र नशे के उपयोग तक ही सीमित नहीं रखा और इसके नाना प्रकार के उपयोग किए हैं. इसके बीजों से चटनी, सब्जियों का मसाला और तेल बनाए तो इसके तनों से निकले रेशों से रस्सियां तैयार कीं. उत्तराखंड भांग के जिन उपयोगों को सदियों पहले जान गया था, दुनिया अब उसका अनुसरण कर रही है और यूरोप व अमेरिका में हाल के दिनों में भांग के बीज से तैयार हेम्पसीड ऑयल, हेम्पसीड मिल्क, हेम्पसीड प्रोटीन पाउडर जैसे उत्पाद लोकप्रिय हो रहे हैं. भांग की इस बढ़ती उपयोगिता व लोकप्रियता को ही भांप कर उत्तराखंड देश में भांग की खेती को वैधानिक रूप प्रदान करने वाला राज्य बन गया है.

स्वादिष्ट होने के साथ ही पथरी का अचूक इलाज भी है गहत की दाल का फाणा

भांग की इस वैधानिक खेती को कैसे किया जा सकता है, इसकी चर्चा किसी अन्य आलेख में करेंगे. फिलहाल तो बात भांग की चटनी की.

तासीर में गर्म, पहाड़ के सर्द मौसम में भरपूर उष्णता प्रदान करने वाली, नथुनों में सोंधी महक भर देने वाली और जीभ को अनूठे स्वाद से लबरेज कर देने वाली भांग की चटनी अपने चटपटे स्वाद के कारण तो विशिष्ट है ही, शरीर के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की भी इसमें कोई कमी नहीं. सौ ग्राम भांग के बीज से हमें 566 कैलोरी ऊर्जा हासिल हो जाती है. 38.3 ग्राम प्रोटीन मिल जाता है और 6.58 ग्राम कार्बोहाइड्रेट. मजे की बात यह है कि इसमें कोलेस्ट्रोल की मात्रा शून्य होती है. ये चटनी है भी त्रिकाल उपभोग के योग्य. आप इसे सुबह नाश्ते में मंडुवे की रोटी के साथ लीजिए या दोपहर में दाल-भात के साथ. रात को इसके साथ रोटी-सब्जी का स्वाद बढाइए या फिर शाम की चाय में आलू के गुटकों, माश की दाल के बड़ों या पालक-प्याज के पकौड़ों के साथ, यह चटनी हर व्यंजन के साथ सामंजस्य बिठा लेगी.   

जब भांग की ये चटनी स्वाद में इतनी बेहतरीन है और पौष्टिक गुणों से भरपूर भी तो फिर क्यों न इस बार भांग की चटनी पर ही हाथ आजमाया जाए. मेरा मानना है कि एक बार इसे खा लेने के बाद आप हिमालयी क्षेत्र की इस विशिष्ट चटनी के मुरीद बन जाएंगे और चंदू की चाची वाले उदाहरण के बोल बदलकर कुछ यूं हो जाएंगे- “चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को चांदनीखाल में चांदी की चम्मच से भांग की चटनी चटाई” (चांदनीखाल – चमोली जिले के नागनाथ पोखरी ब्लॉक में पोखरी-गोपेश्वर मार्ग पर स्थित एक स्थान) . 

तो निकाल लीजिए घर के कोने में पड़ा अपना सिलबट्टा बाहर. अगर सिलबट्टा न हो तो ग्राइंडर से भी काम चल जाएगा.

आवश्यक सामग्री

भांग बीज- 100 ग्राम

हरी मिर्च- चार

लहसुन- चार कलियां

पोदीना- 10 ग्राम

हरा धनिया- 10 ग्राम

नमक- आधा चम्मच से कम

कागजी नींबू- 2 से 3 (यदि पहाड़ी गलगल मिल जाए तो बेहतर)

बनाने की विधि

भांग के दानों को छानकर उन्हें किसी कड़ाही में तब तक भून लें, जब तक वे चटक कर अपनी खुशबू न देने लगें. अब इन दानों को थोड़ा-थोड़ा करके सिल पर बारीक कर पीस लें. सारे दानें पिस जाने के बाद इस सामग्री को छलनी में छान कर भांग के छिलकों को बाहर निकाल लें और शेष बचे को फिर सिल पर रख दें. साथ में नींबू को छोड़कर अन्य सामग्री को भी सिल पर रख लें. अब इन सबको हल्का-हल्का पानी डालते हुए महीन पीसकर पेस्ट बना लें. तैयार पेस्ट को किसी बरतन में निकाल लें और ऊपर से नींबू का रस निचोड़कर मिला लें.

लीजिए आपकी चटनी तैयार है. खाने के बाद हमें भी कमेंट बॉक्स में लिखकर बताइएगा कि स्वाद कैसा था.         

चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय  से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी  संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखते हैं.

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  • मगर भांग के बीजों का इंतजाम करना समस्या होगी।

  • आधा लॉकडाउन तो भांग की चटनी बनाने में ही गुजरा दिल्ली में। भांग की चटनी और लहसुन, धनिया वाले नमक के साथ आधा क्विंटल खीरे तो खा ही लिए होंगे 2-3 महीने में।

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