भाबर का भौगोलिक अर्थ तो सभी जानते हैं. हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों के दक्षिणी ओर की आठ से पंद्रह किलोमीटर चैड़ी पट्टी. पथरीला, कंकड़, गाद, बालू से भरा क्षेत्र. भाबर के दक्षिण में बीस से तीस किलोमीटर का तराई क्षेत्र होता है. तराई में घने जंगल और घास के मैदान मिलते हैं. नमी की अधिकता अर्थात् तरी होने से इसका तराई नामकरण हुआ. उत्तराखण्ड की बात करें तो इसमें चार प्रकार का भूभाग पाया जाता है – उच्च हिमालयी भाग, पहाड़ी भाग, भाबर और तराई. भाबर-तराई को पहाड़ में माळ भी कहा जाता है.
(Bhabhar ni Jaunla)
पुराने समय में पहाड़ के कुछ ही लोगों का, किसी खास मकसद से भाबर जाना होता था. तब पहाड़ी लोग पूरी तरह आत्मनिर्भर थे. गुड़, नमक, तम्बाकू और सूती कपडे जैसी गिनी-चुनी चीजों के लिए इन्हें भाबर जाना पड़ता था. भाबर की मण्डियों से ये जरूरी चीजें लाने वाले लोगों को ढाकरी कहते थे. कह सकते हैं कि ढाकरी पहाड़ी व्यापारी थे, जिनके लिए लाभार्जन से अधिक महत्वपूर्ण अपने समाज का हित था. ढाकर में नगद और वस्तु विनिमय दोनों ही प्रणालियाँ प्रचलित थी.
उत्तराखण्ड के गीतों का इतिहास देखें तो माळ का पहला परिचय घुघूती पक्षी के साथ मिलता है. माळ-घुघूती के ऋतु-आधारित प्रवास ने पहाड़ी लोगों में सदैव ही कौतूहल पैदा किया है. अगर उस समय के लोगों के ऑडियो रिकाॅड्र्स उपलब्ध होते तो हम सुन सकते थे, उन्हें बतियाते हुए कि मज़े तो घुघूती के ही हैं. कड़ाके की सर्दी में भाबर और बसंत-गर्मी में पहाड़ों में. काश हमारे भी पंख होते. पैदल तो इतनी दूर आना-जाना बस का नहीं है. इसी तरह भाबर का पहला परिचय बैलों के साथ मिलता है. भाबर्या बल्द अर्थात् अच्छी कद-काठी वाले सफेद बैल. गुलाबराय, गढ़वाल में भाबर्या बैलों की प्रसिद्ध मण्डी थी. ये वही जगह है, जहाँ आजकल रुद्रप्रयाग जिले का जिला पंचायत कार्यालय है और जहाँ 1926 में ज़िम कॉर्बेट ने रुद्रप्रयाग का कुख्यात गुलदार मार गिराया था.
(Bhabhar ni Jaunla)
भाबर के समीप के पहाड़ी लोग, पूस-माघ के महीने भाबर घाम तापने भी जाया करते थे. घाम तापने भाबर आने वाले पहाड़ियों को घमतप्पू कहा जाता था. कुमाऊँ के एक लोकप्रिय लोकगीत के बोल हैं – लगला बिलोरी का घाम. ये बिलौरी कहाँ था, ये तो किसी को भी मालूम नहीं, पर ये पक्का है कि था भाबर में ही. भाबर की प्रमुख मण्डियाँ हल्द्वानी, टनकपुर, रामनगर और कोटद्वार हैं. भाबर के हल्दू वनी को 1834 में कुमाऊं कमिश्नर ट्रेल ने हल्द्वानी बना दिया. चिलकिया के समीप स्थित भोटिया पड़ाव और कारोबार के महत्व को समझते हुए, कुमाऊं कमिश्नर रैमजे ने एक व्यवस्थित व्यापारिक मंडी बनवायी, जो रैमजे के नाम से ही रामनगर कहलाने लगी. टनकपुर मंडी 1898 में स्थापित की गयी. इससे पहले नेपाल की ब्रह्मदेव मंडी शारदा नदी की बाढ़ में बह गयी थी. कोटद्वार रेलहेड 1890 में बना. यहाँ पहली पैसेंजर ट्रेन 1901 में चली. कोटद्वार के उभार से पहले इस ओर की मण्डी दोगड्डा थी. गंगा-यमुना के बीच का देहरादून जिले का भूभाग दून है, भाबर नहीं. विडंबना देखिए कि एक दौर वो भी था जब मुख्यमंत्री (गोविंद बल्लभ पंत) के खुले आमंत्रण और निशुल्क ज़मीन दिये जाने की घोषणा के बावजूद कोई पहाड़ी भाबर नहीं बसा और एक दौर वर्तमान का भी है, जब भाबर की ओर ही पूरे पहाड़ की दौड़ दिखायी दे रही है.
भाबर की इस पृष्ठभूमि के आलोक में, हाल ही में रिलीज ’भाबर नि जौंला’ गीत को समझना आसान भी होगा और रोचक भी. नरेन्द्र सिंह नेगी जी का गीत-संगीत उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप है. लिरिक में जिस मल्टी लेयर स्किल के लिए वो जाने जाते हैं, उसका खूबसूरत प्रयोग है. संगीत मर्मस्पर्शी है. नेगीजी के स्वर में वही कशिश है, जो सीधे दिल में उतरती है. प्रतिक्षा बमराड़ा के स्वर में मिठास है. कबिलास नेगी का निर्देशन इसलिए भी प्रशंसनीय है कि उन्होंने विषय के अनुरूप चकाचैंध से परहेज रखा और प्राकृतिक फिल्मांकन में कैमरे को भटकने नहीं दिया. गोविंद नेगी की सिनेमेटॉग्रफी उनकी ख्याति के अनुरूप है.
शैलेंद्र पटवाल और अंजलि नेगी के अभिनय में पहाड़ी मासूमियत खूब उभरी है. गीत में दोनों के अभिनय को देख कर लोककवि घनश्याम सैलानी जी के गीत के बोल याद आने लगते हैं – हर्चि कख गढ़वाल को कोदो अर कंडाळी. जैन बण्या रौंदा छया मस्त सब्बि गढ़वाली. लोकेशन टिहरी की कुंजड़ी पट्टी का कोटी गाँव है. फिल्मांकन में सीमेंटेड मकानों से बचा जा सकता था. रसोई में रखे प्लास्टिक के डब्बों से भी. फिर भी सिनेमेटॉग्रफी कलात्मकता से भरपूर है. उषा नेगीजी की वस्त्र-सज्जा गीत के साथ पूरा न्याय कर रही है.
(Bhabhar ni Jaunla)
गीत का केंद्रीय भाव, प्रवास करें कि न करें का सवाल है. नव-विवाहित दम्पति के संवाद के रूप में इसका चार अंतराओं में कलात्मक विकास किया गया है. हालांकि पति का प्रस्ताव अल्पकालिक प्रवास का है, फिर भी पत्नी को अहसास है कि थोड़ा आगे, थोड़ा आगे करके ही लक्ष्मणरेखा कब पार हो जाती है, पता भी नहीं चलता. उसका कहना है कि प्रेम में शीत ऋतु तो क्या ज़िंदगी भी कट जाएगी. ये भी कि दिन धूप सेंक कर बितायेंगे और शाम अंगीठी की आग सेंक कर. घी-चुपड़ी रोटी खिलाउंगी और प्रेम के छौंक वाला साग. मीठी प्रेम भरी बातों को ओढ़ेंगे-बिछायेंगे. पति कहता है कि तेरी चिकनी-चुपड़ी बातों से पेट नहीं भरेगा. और न ही प्रेम की माला जप कर ज़िंदगी कट पायेगी. कोई रोज़गार ढ़ंढेंगे कुछ कमा कर लायेंगे. इस पर पत्नी कहती है कि खेती-बागवानी करेंगे, उत्पाद बाज़ार में बेचेंगे. गाय-भैंस पालेंगे, घी-दूध का व्यापार करेंगे. उस भाबर में रखा ही क्या है. यहीं कमाएंगे और उपभोग करेंगे. इस पर पति कहता है कि गर्मी के दिन ठंडे पहाड़ों में बितायेंगे. घर-गाँव में मौज करेंगे. वर्षाकालीन चैमास ऊँची पहाड़ियों में रहेंगे और शीतकाल में गर्म भाबर में. वहाँ बड़े-बड़े हाट-बाजार हैं, कुछ लत्ते-कपड़े खरीदेंगे.
(Bhabhar ni Jaunla)
गीत के बोल इस तरह हैं –
भाबर नि जौंला
यख पहाड़ों मा जडू ह्वेगे भारी
चार छै मैंना भगी, मैंना चारेक भगी भाबर जयौंला
तुमरी माया मा ह्यूंद क्या उमर भि
यखि कटि जाली सुवा यखि रै जौंला सुवा.
भाबर नि जौंला..
दिन काटला घाम तापीकी ब्यखुनि अगेठी आग
हे सुवा, सुवा हे
घ्यू चुपणीं रोटि खवोलु माया मा छौंक्यू साग
मिठी-मिठी मयाळी छुयूं ओड़ला बिछौला.
चार छै मैंना ……………………..भाबर जयौंला..
तेरि चिफळी चुपड़ि छुयूंन पेट नी भरेण
हे भगी, भगी हे
माया कि माळा जँप जँपी की जिंदगी नी कटेण
रोजगार खोज्यौंला वख कुछ कमैकि लौंला.
यखि कटि जाली …………..भाबर नि जौंला..
खेति करला साग सगोड़ी भट्ट बेचला बजार
गौड़ि-भैंसी पाळला सुवा घ्यू दूधौ ब्योपार
क्या छ धर्यूं वै माळ भाबर यखि कमौला समौला.
चार छै मैंना ……………………..भाबर जयौंला..
रूड़ि काटला ठंडा पाड़ों मा मौज मनौला घर गौंऊं मा
चैमास डाँडा छान्यूं मा रौंला ह्यूंद वै तैला भाबर
वख बड़ा-बड़ा हाट बजार लत्ता कपड़ा मोल्यौंला.
यखि कटि जाली …………..भाबर नि जौंला..
अर्थ विस्तार से भाबर का अर्थ परदेश भी हो जाता है. वो फिर दून हो या दिल्ली. या फिर दुबई या सुदूर यूरोप-अमेरिका. इस अर्थ में भाबर नि जौंला का अर्थ, पलायन नहीं करेंगे भी हो जाता है. ऐसे समय, जब कहा जा रहा था कि नेगीजी अपना सर्वश्रेष्ठ दे चुके हैं, उन्होंने भाबर नि जौंला जैसा प्रभावी गीत प्रस्तुत करके सबको चैंका दिया है. ऐसे समय, जब पहाड़ की नयी पीढ़ी गानों के नाम पर बीट्स पर थिरक रही है, नेगीजी ने लीक से हट कर ट्रेंड दिया है. ये भी सिद्ध किया है कि गीत-संगीत शोरगुल मात्र नहीं है, बल्कि वो सुरीला हथियार है, जिसके जरिए मुद्दों की बात भी की जा सकती है. कुछ इस तरह कि बात सीधे दिल में उतर जाए और मस्तिष्क को झकझोर दे. गौरतलब ये भी कि गीत में भाबर की जगह देहरादून का प्रयोग भी किया जा सकता था, पर वो सायास नहीं किया गया है.
भाबर के प्रयोग से ये भी दिखाया गया है कि जौंला कि नि जौंला की बहस और दुविधा सदियों पुरानी है. रोज़गार-व्यापार के लिए जाना अलग बात है और देखादेखी में जाना अलग बात. पहाड़ की भावी पीढ़ियाँ जब पर्यटकों के रूप में अपने घर-गाँव की ओर लौटेंगे तो पूछेंगे जरूर कि उजड़े घरों से जब हमारे पुरखे इस स्वर्ग को छोड़ कर जा रहे थे, तो क्या किसी ने उन्हें कोई गीत गाकर रोका नहीं था. शायद तब किसी पहाड़ी पाख से कोई सुरीली गूँज सुनायी दे – भाबर नि जौंला.
गीत को हिंदी में भी समझने में असुविधा हो तो अंग्रेजी भावानुवाद के इस प्रयास से कुछ मदद मिल सकती है.
It has become very cold here in the mountains,
Let us go to Bhabar for four months.
In your love, dear! not only winter even life will pass here,
We should stay here.
We won’t go to Bhabar.
We will spend our days basking in the sun,
And nights in the warmth of the fireplace, my dear!
I will feed you Rotis coated with Ghee and Saag sprinkled in Love.
Will spread sweet love-filled words.
We should stay here.
We won’t go to Bhabar.
Your smooth talk will not fill our bellies my dear,
Life will not be spent by chanting the rosary of love.
Let’s look for some employment and earn something from there.
We should go to Bhabar.
We will do farming n gardening
Will rear cows n buffaloes,
We will sell black beans in the mart,
Will trade in Ghee and milk,
What is there in that Bhabar dear,
We will earn here, and will be satisfied.
We should stay here.
We won’t go to Bhabar.
We will spend the summer in the cold mountains,
Will have fun in our home n hamlet,
Will stay in the hilltops in the rains
And in the hot Bhabar in the winter.
Big marts are there, we can buy clothes and garments.
We should go to Bhabar.
We won’t go to Bhabar.सम्प्रति राजकीय इण्टरमीडिएट कॉलेज में प्रवक्ता हैं. साहित्य, संस्कृति, शिक्षा और इतिहास विषयक मुद्दों पर विश्लेषणात्मक, शोधपरक, चिंतनशील लेखन के लिए जाने जाते हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ ( संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित), कैप्टन धूम सिंह चौहान (सैन्य इतिहास, विनसर देहरादून से प्रकाशित), घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित) और सीखते सिखाते (शैक्षिक संस्मरण और विमर्श, समय-साक्ष्य देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी प्रकाशित हैं. आकाशवाणी और दूरदर्शन से वार्ताओं के प्रसारण के अतिरिक्त विभिन्न पोर्टल्स पर 200 से अधिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं.
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कितना सुंदर आलेख !
आभार और अभिवादन लेखक !
बहुत सुंदर लेख और रिसर्च
“लगला बिलोरी का घाम. ये बिलौरी कहाँ था, ये तो किसी को भी मालूम नहीं, पर ये पक्का है कि था भाबर में ही“
दरअसल बिलौरी एक गाव है जो बागेश्वर के कफ़लीग़ैर छेत्र मे पड़ता हैं वहाँ की भौगोलिक संरचना के ऊपर वो लोकगीत है जहां तक मेरी जानकारी है