अल्मोड़ा से बम्बई चले डेढ़ यार – पहली क़िस्त
पहले अल्मोड़ा से अपनी मीट की दुकान से भागकर मुंबई पहुंचे आधे यार रमेश मटियानी उर्फ़ शैलेश का किस्सा.
आधा यार इसलिए कि सोलह साल की उम्र में भावुकता में ‘कालिदास बनने का’ सपना संजोए, चाचा के घर से एक हड़पी घी चुराकर बेटिकट मायानगरी बम्बई पहुँच गए. कुछ रोज फुटपाथ पर रात बिताई, हल्के-फुल्के लड़ाई-झगड़े करके हवालात में गए, जेल की रोटियां तोड़कर पेट भरा; बोरीबली से बोरीबंदर तक की बेटिकट यात्रा करके वहां के आम आदमी के अनुभव समेटे और फिर उन अनुभवों पर एक उपन्यास लिखा, ‘बोरीबली से बोरीबन्दर तक’. आज पहाड़ के मिथक बन चुके इस लेखक का यह पहला उपन्यास 1962 में प्रकाशित हुआ और आने वाले वक़्त में अल्मोड़िया मटियानी मुंबई और पहाड़ की स्लम आबादी का चितेरा बन गया.
उसी के दो-एक साल बाद अजमेर में जन्मे दूसरे अल्मोड़िया लेखक मनोहर उर्फ़ जोशीजी उर्फ़ हिंदी साहित्य के श्याम मनोहर भी मुंबई नगरी में ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ करने पहुंचे. पहुंचे क्या, उन्होंने भी इस माया नगरी की परिक्रमा करते हुए लेखक बनने का सपना देखा.
मटियानी आधे यार तो जोशीजी पूरे यार. जोशी जी ठहरे शील-कुलीन पहाड़ी, इसलिए अपराध की दुनिया का हिस्सा बनने की बात तो उनके सन्दर्भ में नहीं सोची जा सकती. अलबत्ता उन्होंने अल्मोड़ा की तरह मुंबई का मध्यवर्ग तलाशा और दोनों को मिलाकर हिंदी कथा-साहित्य का ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ कर डाला. मगर आधा आदमी ‘पूरे यार’ की बराबरी कैसे कर सकता था. मटियानी ने ‘किस्सा नर्मदा बेन गंगू बाई’, ‘एक कोप चा, दो खारी बिस्कुट’ या ‘इब्बू मलंग’ लिखकर ‘पूरा यार’ बनने की कोशिश जरूर की, मगर हिंदी की दुनिया ने उन्हें स्वीकार नहीं किया.
जोशी जी ने अपने अनुभवों को उस वक़्त की मशहूर कहानी पत्रिका ‘सारिका’ में ‘तुलसी या संसार में’ शीर्षक से लम्बी इन्टरव्यू-शृंखला के रूप में लिखा जो बड़ी हिट हुई. उस दौर की अपनी रचनाओं के बारे में जोशीजी ने लिखा, ‘हम आज से कोई चार साल पहले जब पहली बार बम्बई आये, तो जुहू में एक दोस्त के यहाँ ठहरे जो फ़िल्मी दुनिया से दखल रखते थे. एक महीने के जुहू प्रवास में कई लोगों से हमारी मुलाकात हुई जिनमें कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी और कलकत्ता से लेकर कच्छ तक, भारत के सभी प्रदेशों के नुमाइंदे थे – अजीबोगरीब लोग, जो अपने जितने ही अजीबोगरीब मकसद को लेकर बम्बई आये थे.’ उन्हीं में एक लड़का था शैलेश मटियानी, जो अपने सपने लेकर बम्बई आया था और ढेर सारे अनुभव अर्जित कर अपने शहर अल्मोड़ा लौट गया था.
शैलेश जी की बोरीबली से बोरीबंदर तक की इस यात्रा का निचोड़ पेश करते हुए जोशी जी ने अपनी किताब ‘महानगरी के नायक’ में लिखा है:
“दूर के शहर सुहाने. बंधुवर शैलेश मटियानी ‘बोरीबली से बोरीबंदर तक’ बम्बई का अंतरदर्शन करने के बाद अब अल्मोड़ा में अलख जगाये बैठे हैं और एइसा माफक बातां बोलते हैं, जइसा बम्बई का आल-चाल बद्धा उनका बरोबर देकेला नेई होवे! अरे बिजनेस का माइंड उदर अल्मोड़ावाला का एइसा कइसा होवेगा जइसा इदर आपुन बम्बई वाला का है! अंटरव्यू मीन्स मुलाकात. भैंटवाला आता तो आपुन बरोबर सावध रहता – कइसा अंटरव्यू? हमेरा इश्टोरी का कागद-अकबारवाला साला अबी करिंगा क्या? हमेरे कू इसमें मिलिंगा क्या? हमेरे कू कितना, तुमेरे कू कितना? हाँ, जो मिलने वाला बात हो तो बोलो. खालीपीली फ़ोकट में हम अपना अक्खा लायेफ किसकू बी बोलेंगा कईसा? नेई एक बात बोलता हूँ – क्या? बोलूँगा तो बोलेगा कि बोलता है!
“मतलब यह कि अगर शैलेशजी यह समझते हैं कि बम्बई का लोग-बाग इंटरव्यू देने के लिए इंटरव्यूकार के धोरे बनफसेनफीस चले आते हैं तो यही मानना होगा कि वह बम्बई को बिसरा बैठे हैं. बम्बई का बिजनेस पहलू प्रबल होने से है कि कुछ इन्टरव्यू उसे उचित दान-दक्षिणा करने के बाद भी नहीं मिले. दूसरी दिक्कत यह है कि बम्बई की विविधता में स्वभावगत समानता जरूरत से ज्यादा है. अनूठा चरित्र यहाँ ढूंढे नहीं मिलता. मेरी याददाश्त धोखा दे रही हो तो बात दूसरी है, वरना मैं समझता हूँ कि शहर अल्मोड़ा ऐसे ही (सक्रिय और अवकाशप्राप्त) चरित्रों से भरा पड़ा है. ग़ालिब का कुमाऊनी में और खय्याम का ब्रज में अनुवाद करने वाले विद्वानों से लेकर ओवरसियरी की सारी कमाई सुरा और सुंदरी पर बहाने वाले मेजबानों तक आपको वहाँ हर मेल का माल मिल जायेगा. अतिवाद अल्मोड़ा में जिंदाबाद है. वहां आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे जो छायावादी कविता को कविता नहीं मानते और ऐसे भी जो प्रयोगवाद को अजहद पिछड़ा हुआ समझते हैं. मेरी स्मृति में अल्मोड़े का एक प्रतीक दृश्य है. नीचे या दक्षिणी देवी के मंदिर में अखंड रामायण पाठ चल रहा है और ऊपर ठाकुर उदय सिंह (उद्दा) की चायशाला में मार्क्सवाद की महिमा बखानी जा रही है.
“ऐसी विविधता बम्बई में नहीं देखी जाती क्योंकि बम्बई, अल्मोड़ा की तरह मध्यमवर्ग का नगर नहीं है. यहाँ दो ही वर्ग हैं, निम्न और उच्च, चालू और पेशल. दोनों के ही अपने विशिष्ट और निश्चित जीवन तथा जीवनदर्शन हैं. और दोनों को ही अपने काम से काम है. कुल मिलाकर यह कि पात्रों की खोज में हमें काफी परेशानी होती है. कभी किस्मत से कोई ‘करेक्टर’ मिल भी जाता है तो वह या आत्मप्रचार का विरोधी निकल आता है या ‘घरवाली से पूछकर’ ही मुंह खोलता है. कहना न होगा कि घरवाली ‘ख़बरदार’ वाली निषेध आज्ञा जारी करके प्रस्तावित पात्र और इस इंटरव्यूकार दोनों को हमदर्दी का ग्राहक बना डालती है.
“यहाँ यह है कि बम्बई में आबादी बड़ी है और घनी है. यहाँ यह भी है कि इस आबादी में भीड़ ही भीड़ है, आदमी नहीं; समष्टि है, व्यक्ति नहीं. बम्बई वाला समाज की सड़क में आवाजाही के उसूलों का पूरा पावन्द रहता है, यानी वह किसी तरह कतराता है, टकराता नहीं. बचकर चलना बम्बईवास की पहली और आखिरी शर्त है – ‘बिटवा या बम्बई में भांत-भांत के लोग, सबसे बचकर चालिए, जेब-ब्लेड संजोग’ : तो साहब बम्बई का नारा है, ‘सामने वाला, बाजू हट.’ इसके चलते यहाँ कोई किसी के बारे में कुछ जानना ही नहीं चाहता, कोई किसी को अपनी बाबत कुछ बताना नहीं चाहता.
“उस दिन जब बोरीबन्दर के पास इस इंटरव्यूकार ने भक्तों की भीड़ देखी और सोचा कि उनमें से किसी का भी इंटरव्यू वह नहीं ले सकेगा तो उसका मन धिक्कार उठा. लिहाजा संपादकी का स्मरण करके वह फुटपाथ-बिजनिस-बिरादरी में इंटरव्यू का ग्राहक बनकर पहुँच ही गया. बोरीबंदर से जो प्रयास शुरू किया वह कोई पांच मील की पदयात्रा के बाद कैंडल रोड में पहुँचकर पूरा हुआ.”
[उद्धरण साभार : ‘महानगरी के नायक’ और ‘किस्सा पौने चार यार’ (मनोहरश्याम जोशी) वाणी प्रकाशन, दिल्ली. संपादक प्रभात रंजन और वागीश शुक्ल.]
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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कमाल के लेखकों की बात कमाल के लेखक की कलम से।साधुवाद काफल ट्री।