Featured

स्वदेशी का प्रतीक ‘बागेश्वरी चरखा’ अब केवल इतिहास की बात रह चुका है

यह हिमालयी राज्यों का दुर्भाग्य रहा है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में उनके योगदान को उचित स्थान नहीं दिया गया है. 11 राज्यों में फैले इस विस्तृत भू-भाग के लोगों का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में क्या महज इतना योगदान था कि उसे कुछ पंक्तियों में समेटा जा सके. मसलन उत्तराखंड के ‘बागेश्वरी चरखे’ को लिया जाय. उत्तराखंड में आज की पीढ़ी के कितने ऐसे लोग होंगे जिन्होंने ‘बागेश्वरी चरखे’ का नाम तक सुना होगा?
(Bageshwari Charkha Gandhi in Uttarakhand)  

     

पहाड़ में ऐसी अनेक चीजें हैं जो अपने ऐतिहासिक महत्त्व के बावजूद आज हाशिये पर हैं. ‘बागेश्वरी चरखा’ उत्तराखंड की एक ऐसी ही विरासत है जो अब अतीत का हिस्सा हो चुकी है.

महात्मा गांधी 1929 में अपनी कुमाऊं यात्रा पर थे.नैनीताल, अल्मोड़ा होते हुये वह बागेश्वर पहुंचे. बागेश्वर में उनकी मुलाक़ात जीत सिंह टंगड़िया से हुई. जीत सिंह टंगड़िया ने उन्हें पैरों से चलाया जाने वाला एक चरखा भेंट किया. यह चरखा परम्परागत चरखे के मुकाबले न केवल चलाने में आसान था बल्कि इसकी उत्पादन क्षमता भी बेहतर थी.     
(Bageshwari Charkha Gandhi in Uttarakhand)

गांधी जब अपनी यात्रा से लौटे तो उन्होंने पुणे से विक्टर मोहन जोशी को एक चिठ्ठी लिखी. अपनी इसी चिठ्ठी में उन्होंने जीत सिंह टंगड़िया के चरखे को ‘बागेश्वरी चरखा’ नाम दिया. इसके बाद ‘बागेश्वरी चरखा’ की मांग खूब बढ़ गयी. बोरगांव, अमसरकोट के रहने वाले जीत सिंह टंगड़िया ने 1934 से चरखा बनाने का काम शुरु कर दिया.

जीत सिंह टंगड़िया का परिवार आज भी खूब परिश्रम से इस काम को कर रहा है. स्थानीय लड़की और घराट की मदद से बनने वाले यह चरखा आज भी उच्च हिमालय के कई घरों में उपयोग में लाया जाता है. मशीन के इस युग में अब इन चरखों का उपयोग न के बराबर ही होता है, रही सही कसर संरक्षण का अभाव पूरा करता है.

भले ही अभावों के चलते ही स्वदेशी का प्रतीक ‘बागेश्वरी चरखा’ अब केवल इतिहास की बात रह चुका हो पर इतनी कोशिश तो की ही जानी चाहिये कि आज की पीढ़ी को इसका परिचय कराया जाये.
(Bageshwari Charkha Gandhi in Uttarakhand)

मनु डफाली

पिथौरागढ़ के रहने वाले मनु डफाली पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रही संस्था हरेला सोसायटी के संस्थापक सदस्य हैं. वर्तमान में मनु फ्रीलान्स कंसलटेंट – कन्सेर्वेसन एंड लाइवलीहुड प्रोग्राम्स, स्पीकर कम मेंटर के रूप में विश्व की के विभिन्न पर्यावरण संस्थाओं से जुड़े हैं.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

इसे भी पढ़ें: सोर घाटी के बाशिंदों का सबसे पसंदीदा डॉक्टर

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago