कहते हैं कि अंग्रेजों के राज में सूरज कभी अस्त न होता था. तमाम प्रकार की बाँस-बल्लियों के सहारे अपने सूरज को हर तरफ़, हर जगह उगा हुआ दिखाना नजूमी अंग्रेजों की ही बस की बात ठीक और किसी की नहीं. हिन्दुस्तान में पैर जमाते-जमाते हुकूमत-ए-बरतानिया के इन कांइये नुमाइंदों को हिंदुस्तान में अपना सूरज न डूबने के लिए एक मज़बूत बल्ली की ज़रूरत थी, जिसका नाम दुनिया-जहान में बड़े बाबू नाम से मकबूल हुआ. (Bade Babu Satire Vivek Sonakiya)
बड़े बाबू, हर बड़े और छोटे दफ़्तर की एकमात्र शान हुआ करते थे, आज भी हैं, और आगे भी रहेंगे. सरकारी मसलों के मर्मज्ञ आज भी सीधा बड़े बाबू से मिलने और डील करने की राय देते हुए सरकारी गली-गलियारों में टकरा ही जाते हैं.
अल्मोड़ा में स्थिति कुछ अलहदा थी. यहां आबकारी दफ़्तर में बड़े बाबू का पद ता था पर उस पर गद्दीनशीन छोटे बाबू थे.
हर काम पर यस सर के अलावा और कुछ न उवाचने वाले छोटे बाबू नौकरी में अभी नये-नये थे. पर साहब और ग्राहक को टेकल करना उन्हें अच्छे से आता था. अब इसे अल्मोड़ा के पानी का कमाल कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी. (Bade Babu Satire Vivek Sonakiya)
बड़े बाबू जो कि वास्तव में छोटे बाबू थे, ख़ानदानी नौकरी वाले थे. आबकारी विभाग की नौकरी विरासत में पाने वाले छोटे बाबू को देखते ही मन की सारी कालिमा, कुसंस्कार, पाप सीधे गंगा नहाने निकल पड़ते थे. एक शरीफ़ घर का शरीफ बच्चा इतने येडे़ और टेढे विभाग में आकर अभी भी इतना शरीफ बचा है, यह देखकर लोग रामचरितमानस की चैपाइयां मुंहज़ुबानी बुदबुदाने में देर न लगाते.
छोटे बाबू का रूटीन था, प्रातः दफ़्तर खुलने से एक घंटे पहले आना और दफ़्तर बंद होने से दो घंटे बाद जाना. इस बीच में कुल जमा दो सौ बार “जी साब“़ कहने वाला यह व्यक्तित्व किसी भी कार्य को कार्य को धरातल पर लाने के पाप का भागीदार न बनता और अपने सभी संगी साथियों पर प्रेम पूर्वक रौब गालिब करने में न चूकते कि इंसान करते करते ही तो सीखता है.
कभी कभी जब उनकी कार्यशैली दार्शनिक और सांसारिक माया मुँह से ऊपर उठ चुके व्यक्ति की तरह लगती तो दिल पसीज उठता. (Bade Babu Satire Vivek Sonakiya)
एक दिन की बात है
“साब हैड आफिस से मेल आया है कि व्यवस्थापन संबंधी सूचना हर हालत में दो बजे तक भेजनी है”
“दो बजे तक“
“जी दो बजे तक“
“अभी टाइम क्या हो रहा है“
“सर पौने दो बजे हैं“
“और आप मुझे अब बता रहे हैं“
“साब जबाब बना लिया है एक बार आप देखना चाहें …”
“दिखाओ“
“जी साब“
बड़े बाबू ने जो सूचना बनायी थी मैं कुछ इस तरह से थी-
“अल्मोड़ा में कुल चवालीस शराब की दुकाने हैं. आज कल अच्छा ब्राण्ड न मिलने के कारण लोग अपना प्रिय ब्राण्ड की दारू नहीं ख़रीद पा रहे हैं. इसलिए विभाग द्वारा अल्मोड़ा जनपद के ऊपर विशेष कृपा करके राजस्व नहीं बढाना चाहिये.“
ये लिखा हुआ निष्कर्ष था जिसे पढ़कर मुखिया या तो अपना सर फोड़ लेता या बड़े बाबू का. पर सर किसी का न फूटा.सब सही सलामत रहा.
बड़े बाबू मे वो सब गुण थे जो कि छोटे बाबू में होने चाहिए थे. सब उनकी शराफ़त और शहादत का चर्चा करते. शराफ़त ऐसी के बिना कुछ खाए-पिए किसी कागज पर उंगली न धरते और शहादत ऐस कि किसी की भी कसम खा लें पर मजाल कि सच्चाई बाहर आ जाये.
सच का और बड़े बाबू का आपस में खनदानी बैर था. पूरी कचहरी में उनके लिए बेहद मशहूर था कि बचके रहियो बहुत बड़ा टामेबाज है.
टामेबाजी शब्द की व्युत्पत्ति कहीं भी हुयी हो पर वह अपना मूर्तरूप अल्मोड़ा और विशेष रूप से बड़े बाबू में पाती थी. टामेबाजी का अपना एक विशेष सांस्कृतिक महत्व है और अपना एक सामाजिक स्वरूप है जो अल्मोड़ा की पुरानी पटालों के बीच में बने प्राकृतिक गैप से निकलता है.
टामेबाजी का अल्मोड़ा से और अल्मोड़ा का टामेबाजी से संबंध बहुत गहरा और प्रागैतिहासिक है, जिसकी वर्तमान समय में नुमाइंदगी बड़े बाबू करते हैं. बड़े बाबू तो प्रतीक मात्र हैं. प्रतीक एक ऐसी सभ्यता का, जो कथित तौर पर सारे एडवांसमेंट कर चुकी है परंतु अभी भी हाकिमोहुक्काम के बीच उलझी पड़ी है. कायदे और प्रोसेस के नाम पर. बड़े बाबू हों या छोटे बाबू, बाबू तो बाबू होता है. वह न बुबू होता है न बापू होता है. हां उसे बापू की तस्वीर बाले हरे हरे स्यां स्यां करते नोटों से प्यार बेइंतहा होता है.
अपनी पूरी ज़िंदगी, कृपया सहमति की दशा में पत्रावली पर हस्ताक्षर करना चाहें, लिखने वाली यह कौम, एक जड़ता-जो सारे समाज में समा चुकी है- का प्रतीक चिन्ह है उससे ज़्यादा कुछ नहीं. पूरी की पूरी लाइफ़ किसी फ़ाइल में गुम हो जाती है, तबाह हो जाती है और आखिर में दफ़्तर की दीमकों का शिकार हो जाती है, पर बड़े बाबू और उनकी रवायतें न तो बदलती हैं न ही बदलने का नाम लेती हैं.
आबकारी आफिस के बड़े बाबू के पद पर तैनात छोटे बाबू गोपनीयता की कसमें खाते हुये सिस्टम को ही गोपनीय बना देते हैं. गोपनीयता नहीं रहेगी तो कौन पूछेगा कहने वाले बाबू कभी कभी लगता है सही कहते हैं. किसी दूसरे के लिये शाम के पव्वे का इंतजाम करने से बड़ा पुण्य कर्म कोई नहीं है.
“बाबू जी आप तो लेते नहीं हैं ना?”
“यस सर“
“ … ”
“सही कह रहे हैं सर”
–विवेक सौनकिया
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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बहुत बढ़िया है प्यारे । लमोरे के पगलेटों को भी ले लो लपेट में ।संकल्पना है कि की इतनी सीढ़ियां हैं अल्मोड़ा में कि दीवानी की चाल और जवानी वाली धाल मूवमेंट करने पे मजबूर हो जाने वाली हुईं बल ।