शऊर हो तो सफ़र ख़ुद सफ़र का हासिल है – 3

अमित श्रीवास्तव

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं.  6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता)

(पिछली क़िस्त से आगे)

मैच फिक्सिंग

वास्तव में वो तूफ़ान के पहले की ही शान्ति थी क्योंकि थोड़ी देर में ही तूफ़ान आया. 73 डिग्री की सुनामी (टुनामी?)! पूरा बैच सुबह की ट्रेकिंग कर के लौट आया था और चूंकि खुद काफी हल्का फुल्का महसूस कर रहे थे इसलिए हॉस्टल सर पे उठा लिया.

प्राथमिक जानकारियाँ राजेन्द्र से इकट्ठी कर मैं त्रिशूल 3 पहुंचा जहां से द्धितीयक जानकारी देते हुए मुझे एक कार्यालयनुमा कमरे में भेज दिया गया. वहाँ तीन लोग बैठे थे, दो पुरुष और एक लड़की. मैं दूर से ही एक `सर’ जैसे दीखते व्यक्ति, और हाँ एक लचर कारण ये भी कि वो मेज के दूसरी तरफ थे, की ओर बढ़ा और सिखलाई की भाषा में अपना परिचय दिया-

`सर माई नेम इज अमित श्रीवास्तव एंड आई हैव बीन सेलेक्टेड फॉर द पोस्ट ऑफ़ डीवाईएसपी. एक्चुअली सर आई वॉज़ वर्किंग विद डीजीएफ़टी एज़ …’

-`यहाँ हस्ताक्षर करें और कक्ष संख्या 5 में पहुंचें सत्र प्रारम्भ होने वाला है’…

उनकी तरफ से ये आवाज आयी और मैं लगभग निष्ठुर से लगने वाले उस जीव को अजीब निगाहों से देखते हुए, खुद को उनकी बताई हुई जगह पर हस्ताक्षर करते हुए पाया. ये वी के सिंह सर थे. हमारे कोर्स डाइरेक्टर. गंभीर, अनुशासित और कड़क. वही वी के सिंह जो इतने कड़क थे कि ट्रेनिंग भर प्रशिक्षार्थियों को प्रेम पत्र (बकौल मधु नेगी) भेज-भेज कर स्कूल अनुशासन की याद दिला दी और जो अंदर ही अंदर इतने नरम साबित हुए कि ट्रेनिंग खत्म होने की औपचारिक घोषणा वाले उनके आख़िरी ओपन सेशन में बहुत से लोग रो पड़े. खुद वो भी (एक खुलासा). वही वी के सिंह साहब जिनकी मिमिक्री कर मैं पूरे ट्रेनिंग भर तालियाँ बटोरता रहा और नवनीत पांडे मुगले आजम के अपने किरदार में एटीआई के इतिहास में अमर हो गए.

वो जो दूसरे शख्स वहाँ ब्लू शर्ट और टाई में विराजमान थे नोट्स जैसा कुछ तीसरे शख्स के साथ तैयार कर रहे थे और निहायत ही नफासत से पेश आ रहे थे, उन्हें देखते ही मैं समझ गया था कि ये कहीं लखनऊ-इलाहाब्बाद टाइप के पुरबिया हैं, और उन्हें सुनते ही मैं समझ गया था कि इनकी वाणी नहीं बल्कि इनके माथे पर अदा से लटकती काकुलें ही इनके सही व्यक्तित्व की पहचान हैं. ऊपर से सभ्य सुशील नजर आने वाले ये महाशय अंदर ही अंदर खतरनाक साजिशों के भण्डार हैं. ये थे डा. आनंद श्रीवास्तव जिनका मेरा गहरा नाता ट्रेनिंग के दौरान होने वाला था और जो आख़िरी दिन विदाई की बेला में मुझे अपने सीने से लिपटा कर ज़ार-ज़ार रुलाने वाले थे.

दूसरी मोहतरमा थीं सरिता रावत जो `सर मुड़ाते ही ओले पड़े’ जैसी कैफियत में माथा खुजा रही थीं. ये वही सरिता रावत थीं जो अपना पदनाम बताती थीं तो लोगों को झटका लगता था. पुलिस के परम्परागत कड़ियल स्वरुप के बरक्स ये चेहरा खासा चौंकाने वाला था. इसे देखकर पता चलता है कि उत्तराखंड पुलिस के मोटो `मित्रता-सेवा-सुरक्षा’ में मित्रता पहले क्यों रखा गया है. बाद में पता चला कि ये दोनों डे ऑफिसर कम मॉनिटर थे जो आज की क्लास में पढ़ाने आने वाले रिसोर्स पर्सन का इतिहास-भूगोल तैयार कर रहे थे. उफ्फ! तो क्लास यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ने वाली थी.

मैं क्लास यानी कमरा नंबर 5 में पहुंचा. लगता था सभी आ चुके थे मैं पूरा एक दिन लेट पहुंचा था और स्कूल की अपनी परम्परानुसार खासा शर्मसार था. वो तो बाद में पता चला कि प्रदीप, प्रमोद, जगदीश, ममता जैसे लोग मुझसे भी ज्यादा लेट लतीफे थे. क्लास में अच्छा खासा दोस्ताना माहौल था. लोग एक दूसरे से बातें मुलाकातें कर रहे थे. उनकी इस बेतकल्लुफी ने मेरी शर्म और झिजक और बढ़ा दी. मैं कोने की एक अलग-थलग सीट पर जा बैठा. थोड़ी ही देर में वो दो लोग जो मुझे कोर्स डाइरेक्टर के कमरे में मिले थे और जिन्हें मैं प्रथम द्रष्टया फैकल्टी मेंबर समझ रहा था दो और लोगों के साथ प्रकट हुए. नीली शर्ट ने लहरियादार भाषा में उनका परिचय दिया. `ऑन बिहाफ ऑफ….मिस्टर प्रदीप जोशी, एसिस्टेंट प्रोफ़ेसर, कुमाऊँ यूनिवर्सिटी’… इसमें आप राग यमन के निचले सुर के कुछ आरोहावरोह शामिल कर लें.

ये एक नई विधा थी जिसका दोहन बाद में खूब किया गया. सभी ने अपने-अपने तरीके से परिचय और वोट ऑफ थैंक्स के तरीके ईजाद किये और भरपूर इम्प्रोवाइज भी किया. कोई तो इतना भावनात्मक हो जाता था कि अगला आत्ममुग्धता का शिकार हो जाए. कोई ऐसे शब्द जाल बुनता था कि अगला ये सोचने में ही पूरा सत्र खतम कर देता था कि इसने मेरी तारीफ़ की या भारी भरकम शब्दों में मेरा कच्चा चिट्ठा ही खोल दिया. जैसे-

`हमारे लिए अपार हर्ष का विषय है कि हमारे मध्य श्री… हृद्यानिहित भाव भंगिमाओं के अति सूक्ष्म स्पन्दनों का स्पर्श कर लिया… किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ कि किन शब्दों में इनके चरण प्रक्षालन करूँ…’

या फिर-

`हम आपका इस सरजमीं पर तहे दिल से इस्तेकबाल करते हैं. आप आये हमारी क्लास में खुदा की नेमत है, कभी हम आपको कभी इस खुशकिस्मत क्लास को देखते हैं….’

वोट ऑफ थैंक्स तो कभी-कभी ऐसा लगता था कि श्रद्धांजलि अर्पित की जा रही हो और बन्दा अपनी ही याद में रो पड़ता था.

`हमारी ज्ञान पिपासा को अपने व्याख्यान रूपी शीतल जल से शांत करने वाले जोशी जी का आज यहाँ आख़िरी व्याख्यान होगा ये सोचकर ही ह्रदय में वेदना की हिलोरें सी उठ जाती हैं.’

व्याख्यान कब शुरू हुआ कब खतम पता ही नहीं चला क्योंकि जोशी जी ने ट्रेनिंग की ज़रूरत पर बताया था और ट्रेनिंग को तो वैसे भी हम बहुत गंभीरता से लेने वाले थे. हमने लिया भी, ट्रेनिंग ने हमें गंभीरता से लिया या नहीं इसका पता नहीं.

शाम के सत्र में उसी दिन प्रशिक्षार्थियों के बीच कमेटियों का चयन हुआ और उसमें भी बड़ी गंभीरता रही. मेहरबान सिंह बिष्ट ने सब पर मेहरबानी करते हुए जी एस का जिम्मा उठाया और अंत तक गिरने नहीं दिया. कई बार प्रशासनिक खींचतान हुई अनुशासन के नाम पर लेकिन जिम्मा हाथ से नहीं छूटा, कई बार साथी अधिकारियों ने धक्का दिया मेरी कल की ट्रेनिंग मुआफ कराओ, इतवार भ्रमण ऑफ कराओ, कारण बताओ से पीछा छुड़ाओ लेकिन जिम्मा हाथो में बरकरार.

नवनीत सिंह को स्पोर्ट्स सचिव बनाया गया. उसने मुझे अपना नाम अनुमोदित करने के लिए कहा, मैंने कर दिया. मुझे नहीं मालूम था कि वो टीटी का इतना जबर्दस्त खिलाड़ी है. मैंने तो उसके चेहरे की जल्दबाजी से ये तुक्का लगाया था कि खेलकूद से इसका कोई पुराना याराना दिखता है वर्ना हम जैसे लोग जिन्होंने कभी मैदान का कोना भी न विजिट किया हो उनके चेहरे पर तो सुकून का स्कोर बोर्ड ही छपा होता है. वो तो नवनीत अपनी तबियत की वजह से ट्रेनिंग के बीच में ही चला गया वरना बहुत से कप जो लोगों की आलमारियों में सुशोभित हो रहे हैं….

राजेन्द्र लाल वर्मा जिन्हें `बेडू पाको’ से लेकर `लस्का ढस्का’ तक के सारे स्टेप्स कमरानी याद थे उन्हें सांस्कृतिक कार्यक्रमों का सचिव बनाया जाना लाजिमी था. वैसे उनकी नृत्यकला की प्रतिभा का पता तो बाद में ही चला. फिलहाल उनके हाव भाव ही काफी थे. प्रकाशन समिति की अध्यक्षा पूनम सोबती बनीं. मैं भी इस समिति का हिस्सा बनना चाहता था क्योंकि अपने आप को मैं तब भी एक लिक्खाड़ समझने की भूल करता था, छुट पुट कोशिश भी की लेकिन पता चला कि सारा मैच फिक्स था. वो तो बहुत बाद में जाने किसके दिमाग में कीड़ा कुलबुलाया और मुझे अपनी दिमागी खुजली मिटाने का मौक़ा मिला.

संजीव सोलंकी को मेस का भारी भरकम प्रभार सौंपा गया. ओब्वियस च्वायस थे. नवनीत को खेलकूद, राजेन्द्र को संस्कृति, पूनम को प्रकाशन विभाग देने पर शक किया जा सकता है लेकिन संजीव को खान पान विभाग का सचिव बनाए जाने पर कोई शक नहीं किया जा सकता. उनके डील-डौल को देखकर लगता था कि अगर डील और डौल के बीच दो-तीन शब्द और फंसा दिए जाएँ तो दिक्कत नहीं होगी. बखूबी उठाया उन्होंने भार और शायद इन्ही के दबाव का परिणाम था कि बिष्ट जी बकरा न मिलने पर बकरी उठा लाये डिनर के लिए.

वो तो खैर बाद की बात अभी तो इस नई जिंदगी से मेस्मराइज्ड सा मैं था, इतने सारे साथियों के बीच मेरा अकेलापन था और मेहताजी की सीटी से शुरू होकर मेरी पर्सनल काली डायरी में चुपचाप बुझ जाने वाले दिन थे.

(जारी)

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