पहला दखल
वो एक नम सुबह थी. ये बताना मुश्किल है कि कल रात की ओस ने देवदार की गहरी हरी छाल और उससे टकराकर निकलती हवाओं में ज्यादा नमी छोड़ी थी या मेरी आँखों में. वो हवा जो पेड़ों के गलियारों से गुजरकर सीटियाँ सी बजाती थी आज उदास थकी और ठहरकर चल रही थी. सिर झुकाए ग़मगीन. पत्थरों पर अपने ही पैरों की आवाज पर बार-बार चौंक उठती थी. नहीं… आस पास कोई नहीं था… कुछ सूखे पीले देवदार के पत्ते थे… उड़ते थे अपने जीवन की आख़िरी उड़ान… फिर पैरों के नीचे एक हल्के विरोध के साथ चरमराकर टूट जाते थे.
सब चले गए थे. नींव पड़ चुकी थी. कोर्स खत्म हो चुका था. रह गए थे बस हम बीस पुलिस अधिकारी जिन्हें अगले प्रशिक्षण के लिए कुछ दिन बाद जाना था. सब अपनी खामोशियों में बंद अंदर से चिटखनी लगाए खिलखिलाहट की उस थाप के इन्तजार में जिसने घास पर, बेंच पर सीढ़ियों पर अपनी किलकारियों से कितने ही आड़े तिरछे चित्र उकेर डाले थे. काले-सफ़ेद-रंगीन. पहाड़ी झरने की ऊर्जा और गहरे हरे मीठेपन से लबरेज.
सब चले गए थे. नींव पड़ चुकी थी. कोर्स खत्म हो चुका था. हर तरफ सन्नाटा पसरा था. कॉमन रूम में जहां गिटार, ढोलक की संगत में सुर लहरियाँ देर रात तक हवाओं में संगीत घोलती रहती थीं, आज सरे शाम सन्नाटा था. लॉन की मखमली घास जिस पर जाने कितने ही रिश्तों के गर्म गलीचे बुने गए आज बर्फ सी ठंडी शांत पड़ी थी. क्लासरूम जहां गंभीर खिलन्दड़ेपन के बीच एक बेहतर कल की तहरीर लिखी गयी आज खाली सूने पड़े थे, यहाँ अपनी ही आवाज टकराकर कानों में घबराहट पैदा कर रही थी. भागीरथी जहां स्पर्धा ईर्ष्या तक पहुंचकर फिर सहयोग के पाले में लौट आती थी आज अकेला था, ग़मगीन था, सोच में था किसके साथ खेले, किससे लड़े किसके कन्धों पर सर टिका कर थम कर सांस ले और अगले खेल के लिए दम भरे.
सब चले गए थे. नींव पड़ चुकी थी. कोर्स खत्म हो चुका था. इतिहास लिखा जा चुका था. हमें इस सूबे की नींव में बिछना था. इसके ढाँचे को आधार देना था. हम पहली पहल थे, भोर की पहली किरण जिसे वो जाल बुनना था जो रात उगने वाले सपनों को यथार्थ पर टिका सके. हम पहला दख़ल थे, वो पहली दरार जो हौसलों से भरे एक आज को खुद में समाती है और अपनी गर्मी से उसे एक बेहतर कल में बदल देती है. दूर-दूर से इकट्ठा किये गए ये पत्थरों की जमात, ये पहली पहल, ये पहला दख़ल किसी अनजानी ऊर्जा से भरे बच्चे के हाथ से छूटकर पहाड़ के स्थिर खड़े तालाब के पानी में सार्थक हलचल मचाने जा चुके थे.
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
(पिछली क़िस्त से आगे)
शऊर हो तो सफ़र ख़ुद सफ़र का हासिल है-15, अमित श्रीवास्तव के संस्मरणों की अंतिम कड़ी है. पाठकों ने अमित के संस्मरणों को बहुत पसंद किया. अमित श्रीवास्तव आगे भी काफल ट्री के लिए लगातार लिखते रहेंगे.
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