मुगले आजम
(सलीम-अनारकली एंड वाट इज़ देयर इन नेम)
इसकी पटकथा भी वहीं लिखी गयी त्रिशूल के कमरा नंबर पांच की सबसे पीछे वाली पंक्ति में जहां हमारी प्रतिभा जबर्दस्त हिलोरें मारती थी. उस दिन आनंद अपने क्रिएटिव मोड और खतरनाक मूड के चरम पर थे जब ये विचार कौंधा. `यार मुगले आजम करते हैं एटीआई का.’ (इसे किसी गाली की तरह न लिया जाए बल्कि चुटकुले की शक्ल का कोई हास्य समझें जिसमें व्यंग का तड़का हो) शायद इससे पहले की रात कैंडी (हमारा मानना था कि नौमेनक्लेचर की हमारी तरकीबों से गुजरकर कांडपाल का कोई दूसरा नाम बहुत शर्मनाक हो उठता था इसलिए उन्हें कैंडी कहा गया, उसी प्यार से जिससे हम प्रमेन्द्र डोबाल को डोबू और जब प्यार सीमा तोड़ देता था तो डोब्स बुलाते थे) और आनंद ने मिलकर मुगले आजम देखी थी और इसीलिये आनंद शहंशाह अकबर की तरह ग़मगीन मुद्रा में बैठे छल्ले उड़ा रहे थे, जुल्फों के! (डिस्क्लेमर- सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.)
मैं, जिसने वी के सिंह सर से लेकर बद्री जी किसी की भी मिमिक्री का मौक़ा नहीं छोड़ा था तत्काल तैयार था सलीम उर्फ दिलीप कुमार की भूमिका के लिए. मिमिक्री और अभिनय दो अलग अलग चीजें हैं, उनमें खासा अंतर होता है, लेकिन हम उस अंतर के बीच ही काम करना चाह रहे थे, इनके बीच के गैप को कम करते हुए.
दरअसल हम ऐसे बहुत से अंतरों के बीच काम कर रहे थे. हम इतिहास और वर्तमान का अंतर मिटा रहे थे. एक तरफ तो सलीम अनारकली की कहानी थी दूसरी तरफ एटीआई में प्रेम की एक कपोल कल्पना थी, मतलब ये कि हम कल को आज से लड़ा रहे थे. एक तरफ तो ऐसे किरदार थे जो इतिहास से आते थे अकबर, जोधा, सलीम, मानसिंह जैसे लोग दूसरी तरफ खालिस आज के कैरेक्टर थे वी के सिंह, डॉ. बग्गा, प्रो. श्रीवास्तव, हेमा, पंवार, रामेंद्री दी आदि-आदि. इनके बीच वो किरदार भी थे जिन्हें मुगले आजम मूवी से सीधे डिराइव किया गया था जैसे दिलीप कुमार, दरोगाए जिंदान आदि. हम ये चाहते थे कि इन किरदारों के बीच स्विच ओवर इतनी सफाई से हो कि लोग कान खुजाते रह जाएँ कि हम इतिहास वाले राजा मान सिंह को देख रहे हैं, पिक्चर वाले या आज के वी के सिंह साहब को. इस तरह के स्विच ओवर से फायदा ये भी था कि एक तो हम किसी `क्लीशे’ में नहीं बंध रहे थे जो पृथ्वीराज कपूर और दिलीप कुमार वाली मुगले आजम मूवी के कारण अक्सर हो जाता है, दूसरा हमारे अभिनय का कच्चापन बहुत सफाई से छिप जा रहा था.
अनारकली के लिए हमें ऐसा खिलंदड़ा किरदार चाहिए था जो हास्य को व्यंग में और व्यंग को हास्य में बखूबी लपेट सके. पूनम सोबती अपनी बेलौस हंसी, सैटरडे नाईट फ़रवर में जबर्दस्त डांस और किसी भी साथी को बेझिझक धौल जमा देने के कारण चुनी गईं. हमने प्रस्ताव रखा उन्होंने फ़ौरन मान लिया. बात अकबर पर आकर अटक गयी. अकबर को दमदार होना था. हमने बहुत से साथियों पर नजर दौड़ाई… दौड़ते-दौड़ते अचानक एक जगह वो टन्न् से टकराई और नीचे गिर गयी. ये चट्टान जैसी चीज थी संजीव सोलंकी. शरीर के साथ भारी भरकम आवाज के स्वामी. हमने प्रस्ताव रखा कुछ क्षण तर्जनी से माथे को खुरचा फिर बोले `साले पिटवाओगे तुम लोग` और फिर मान गए. बाकी की स्टार कास्ट को जोड़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगा.
तब तक `कॉमेडी नाइट्स विद कपिल’ जैसे कार्यक्रम नहीं आए थे और मंचीय क्षमताएं पारसी थियेटरों से दशकों आगे बढ़ चुकी थीं, हमें दूर-दूर तक किसी पुरुष को महिला किरदार में पेश करने की फूहड़ता नहीं सूझी थी. रामेंद्री दी का एक संक्षिप्त सा किरदार कांडपाल ने निभाया था वो भी इसलिए कि दीदिया के जिस `बेटू पुच्च’ (दीदिया के लिए हर ट्रेनी उनका बच्चा था जिसे वो मुन्नाभाई आने के बहुत पहले जादू की झप्पी और मासूम सी पप्पी बेखटके दिया करती थीं) वाले जज्बे को हम दर्शाना चाह रहे थे वो दीदिया के अलावा किसी महिला के बस की बात नहीं थी और उन्हें अपना ही किरदार निभाने के लिए कैसे कह सकते थे?
अमित जिन्होंने दारोगाए जिंदान का रोल किया था और जो बिना डायलॉग के भी अपनी झुकी कमर के सदके ठहाके निकलवा रहे थे असल में कम्प्यूटर असिस्टैंट कैलाश के वेश में थे. इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात ये थी कि अकबर जो डील-डौल के धनी थे यादाश्त के मामले में उतने ही निर्धन, बार-बार डायलॉग भूल रहे थे. अमित के हांथो में उनके डायलॉग की कॉपी थी जो बड़ी चतुराई से झुककर सलाम पेश करते समय इनके सामने पेश कर देते थे. ये उपाय खासा कारगर साबित हुआ.
राजा मानसिंह यानी कि नवनीत पांडे जिस रोल को निभा रहे थे वो वास्तव में वी के सिंह साहब का मिमिक था जिसमे आधिकारिक तौर पर मेरी दक्षता मानी जाती थी. लेकिन जिस अदा से नवनीत ने खुद को किरदार में और किरदार को नाटक में ब्लेंड किया सबसे ज्यादा तालियाँ बटोरने वालों में से रहे. मुझसे बेहतर कर गए वी के सिंह.
मजे की बात ये थी कि नाटक की स्क्रिप्ट बड़ी ही तरल थी. पात्रों को अपने हिसाब से इम्प्रोवाइज करने की खुली छूट थी. मनीष उप्रेती ने दुर्जन सिंह का रोल किया और हिमांशु जोशी सर को बहुत लाउडली पेश किया. हर बार दर्शकों की तालियों और हंसी के साथ इनका लाउडनेस बढ़ता ही जा रहा था. `इसमें तो एक भी एडवांस फीचर नहीं है’ इनका ये डायलॉग कमाल कर गया. सुनीता पांडे ने जोधा को कभी हेमा बिष्ट तो कभी रूचि तिवारी से रिप्लेस किया. इनका स्विच ओवर जबर्दस्त था. नीरज बेलवाल खालिस वर्तमान के किरदार थे क्योंकि हमें ए टी की योगा क्लास का भी मुजाहिरा करना था हमने सलीम-अनारकली को योगा क्लास में भेजा और नीरज रतूरी सर को मुग़ल काल में ले गए.
डाईरेक्टर साहब यानी आनंद ने तो इतने रोल किये कि लोग लगातार हैरत में रहे कि अचानक डा. एन एल श्रीवास्तव में से वीरेंद्र कुमार उर्फ फाइनेंशियल हैंड बुक कैसे निकल रहे हैं. डा. बग्गा की अद्भुद वाक् कला `ब्रूद की बदबू’ कहते-कहते अचानक राजेन्द्र लाल वर्मा का डेढ़ फुटिया डांस ऐसे निकला कि लोग आज तक कायल हैं.
फाइनल मंचन से एक दिन पहले हमें अचानक लगा कि अब रिहर्सल कर ही लेनी चाहिए क्योंकि बाकी के कार्यक्रम वाले लोग बड़ी गंभीरता से तैयारी कर रहे थे. निर्णय ये लिया गया कि जब-जब जिसको समय मिले आकर अपने पार्ट की रिहर्सल कर ले. रिहर्सल न हुआ लंगर हो गया. वैसे कारण जेनुइन था. नाटक के ज्यादातर पात्र किसी अन्य कार्यक्रम में भी हिस्सा ले रहे थे और वो कार्यक्रम ज्यादा गंभीर थे.
रिहर्सल के लिए सबसे पहले अकबर के दरबार का सीन चुना गया. जोधा मटका डांस में बिजी थीं इसलिए उनकी जगह एक कुर्सी, कुर्सी पर एक किताब और किताब पर एक लेडीज रुमाल रख दिया गया कि अकबर को फील आती रहे. उनके डायलॉग बोलने की जिम्मेदारी आनंद ने उठाई. अकबर को सीन समझाया गया किसने समझाया ये कहना ज़रा मुश्किल है क्योंकि सब अपने हिसाब से निर्देशक हुए जा रहे थे. सीन समझते-समझते अचानक अकबर में रोहित पैदा हो गया.
डाईरेक्टर- इसके बाद उधर से सलीम की एंट्री होती है.
अकबर- कौन सलीम ..अबे अपने बैच में सलीम कौन है?
डा.- सलीम तुम्हारी औलाद यार.
अ.- मेरी तो अभी शादी ही नहीं हुई फिर बेटा कहाँ से आ गया?
डा.- अकबर का… अकबर का लड़का यार.
अ.- अबे अकबर का लड़का तो जहांगीर था, ताजमहल वाले का बाप.
डा.- उसी का नाम सलीम था… यार सीरियसली कर लो.
अ.- तो जहांगीर कहो सलीम क्यों कह रहे हो.
डा.- क्योंकि जहांगीर-अनारकली नहीं फिट होता, सलीम-अनारकली बोलने का ही कायदा है. नाम पर मत जाओ भाई…
इसी बीच मैं भी कूद पड़ा `हाँ भाई नाम पर मत जाओ क्योंकि कबीरदास ने कहा है वाट इस देयर इन नेम’
अ.- अच्छा अब तुम लोग कबीरदास से अंगरेजी में भी लिखवा लो.
मैं- वही तो मैं कह रहा हूँ कबीरदास ने नहीं तो शेक्सपियर ने कहा होगा…नाम में क्या रखा है… वाट इस देयर इन नेम.
अकबर फिर भी मुतमईन नहीं हुए. अपना अगला डायलॉग पढ़ा. शेखू तुम्हारी ना… नाफर… नाफर्मानियाँ इतनी बढ़ गईं हैं कि… अब ये शेखू कौन है?’
डा.- सलीम ही शेखू है.
अ.- पर सलीम तो जहांगीर था.
डा.- फिर नाम का चक्कर अरे ये भी उसका नाम था.
अकबर ने डायलॉग की कॉपी एक तरफ कर दी `एक ही बार में क्यों नहीं बता देते कि कितने नाम हैं बड़ी मुश्किल से तो मुह से सलीम-सलीम निकाल रहा हूँ वर्ना तो इसको देखकर खट अमित निकल जाता है. भईया एक नाम फिक्स करो नहीं स्टेज पर मेरे मुंह से कुछ का कुछ निकल जाएगा तो मत कहना.’ फिर हमारी तरफ मुखातिब हुए और कहा `अच्छा है यार कृष्ण-सुदामा टाइप कुछ नहीं हो रहा है नहीं तो उनके तो हजार नाम थे और तुम लोग हर सीन में एक,… ठक!’
अकबर संवाद रटने की कोशिश करते रहे और आखिर तक असफल रहे. हम सब की स्थिति कोई बहुत बेहतर नहीं थी. एक बार डाईरेक्टर के एक्शन बोलने की देर थी कि हम शुरू हो जाते और हर बार अलग-अलग ढंग से अलग-अलग डायलॉग बोलते. इम्प्रोवाईजेशन की इन्तेहाँ थी. स्थिति ये आ गयी कि वो पहला और आख़िरी रिहर्सल रद्द करना पड़ा. ये निर्णय लिया गया सीधे फाइनल टेक देंगे स्टेज पर…सब परफेक्ट हैं.
मजे कि बात कि इस फुल ड्रेस ग्रैंड रिहर्सल होने तक भी नाटक के अंत का निर्धारण नहीं हुआ था. नहीं जी, ग्रैंड रिहर्सल जैसा टर्म किसी रियैलिटी शो के ग्रैंड प्रीमियर से प्रभावित होकर नहीं लिया गया है बल्कि 20 फरवरी 1990 की दुखद याद की वजह से आया है जब मैं जनक कुमारी बाल शिक्षा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में आठवीं का विद्यार्थी था जहां एनुअल फंक्शन होता था 22 फरवरी को और उसके पहले 20 को फुल ड्रेस रिहर्सल होती थी. उस साल अपने अत्यधिक शर्मीले स्वभाव के बावजूद मैंने अपने दो दोस्तों शैलेन्द्र सिंह `मुन्ना’ और योगेन्द्र सिंह के साथ एक लघु नाटिका, जिसका राइटर, डाईरेक्टर, कैमरामैंन, प्रोड्यूसर सब मैं ही था, न केवल तैयार की थी बल्कि उसका मंचन भी किया था. जब बहुत सी तालियों के बीच हम मंच से उतरे तो लगा था कि यही नाटक इस बार 22 की हाईलाईट होगा. शाम तक लेकिन जब सेलेक्टेड कार्यक्रमों की सूची पढकर सुनाई गयी तो कहीं किसी कोने में हमारा नाटक नहीं था. कारण जो भी रहा हो हम तो यही समझते रहे कि किसी गुरु का वरद हस्त नहीं होना ही हमें हाशिए पर ठेलने के लिए काफी था. मीरा मैडम की मेरे गालों पर थपकी के साथ दी गयी शाबाशी ही शायद वो इकलौता धागा था जिसने मेरे अंदर के कलाकार की पहली अंगड़ाई, जो उठते ही चटाख से टूट गयी थी, को कहीं न कहीं बाँध के रखा था और जो आज फिर मचलकर उठने को तैयार थी.
नाटक के अंत का निर्धारण इसलिए नहीं हो पा रहा था क्योंकि हम दीवार में चुनवा देने जैसी चीज नहीं करना चाह रहे थे, खामखां एक फाइनेंस अफसर कम हो जाता. फिर प्रश्न यही था कि अगर अनारकली को ज़िंदा रखना है तो वो किसे मिले. पूनम इस डिस्कोर्स में सबसे ज्यादा खुश थीं. वो इस मुगालते में रहीं कि सारा प्रपंच अनारकली नहीं बल्कि उनके लिए हो रहा है. सबकी दावेदारी देखी गयी. सलीम, मानसिंह, दुर्जन यहाँ तक कि योगा टीचर रतूड़ी जी की भी. हममें मतैक्य नहीं हो सका. इसका निर्णय मुल्तवी रखते हुए सबकुछ डाइरेक्टर के विवेकाधीन कर दिया गया. नाटक के पात्रों को भी ये नहीं पता था कि आखिर में क्या होने वाला है.
अंततः जो स्टेज पर अंत हुआ वो बड़ा ही ऐतिहासिक बल्कि यों कहें कि बड़ा ही पौराणिक रहा. हद दर्जे की नाटकीयता के साथ नाटक के आख़िरी पड़ाव पर अचानक पवन पुत्र हनुमान की एंट्री होती है और बंशीधर तिवारी सबके सामने अनारकली को जड़ी बूटी समझ के ले उड़ते हैं. मुगले आजम में हनुमान!! ये हमारा आख़िरी पञ्च था. द लास्ट इम्प्रोवाइजेशन.
हनुमान अनारकली ले उड़े और कैलेण्डर का दसवां पन्ना हमारी खुशियाँ. सांस्कृतिक कार्यक्रम, परीक्षा, फोन नंबर आदान-प्रदान, स्मारिका… ट्रेनिंग के आख़िरी हफ्ते में इतनी गतिविधियां रहीं कि उत्साह, भय, रति, शोक, क्रोध जैसा कोई भी स्थाई भाव इतना स्थाई नहीं रहा कि किसी परमानेंट रस् का निर्माण कर सके. कुल मिलाकर ये एक अद्भुद खिचड़ी भाव था जिससे खिचड़ी जैसा ही अगोचर, अनिवर्चनीय रस् आ रहा था. जब स्वाद धीरे-धीरे स्थाई हुआ तब मैंने खुद को लॉन में अकेले बैठे अपने नोकिया 3310 की फोनबुक में रुचिता का नंबर सर्च करते पाया.
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता)
(पिछली क़िस्त से आगे)
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