पहाड़ों में वेगवान पवन और जलधाराओं के अतिरिक्त कुछ भी तो गतिमान नहीं है. सूरज तो उगता है पर कलियां उदास सी है. चिडियों की चह-चहाट भी कुछ कम सी हो गई है. जीवन स्तर उठा तो घिन्दूड़ियां भी बेगानी हो फुर्र उड़ गई. पधानों का खोला भी लगभग खाली हो चुका है. हां, मकान लेन्टरदार पक्के तो हो चुके पर वातावरण पहले से कुछ ज्यादा ही गर्म और बेरहम हो गया है. पधानों के परिवार का बचा-खुचा एक मात्र वारिश मकड़ू उकड़ू सा बैठा हुआ बीड़ी की लम्बी सुटकी खींच स्वच्छ आसमान में भूरे-सफेद छल्ले उड़ाता हुआ शाम का प्लान बना रहा है.
(Ateet jageshvar joshi Story)
दिन और रात की चिन्ता उसे नहीं है. वो अपने को बहुत सौभाग्यशाली मानता है कि उसका नाम बी.पी.एल की लिस्ट में चढ चुका है सो ये चिन्ता तो सरकार ने अपनी जिम्मे जो ले ली है. वैसे भी यें सरकार का दायित्व है. सरकार भी तो वहीं बनाता-बिगाड़ता है. शाम के समय वह किसी बिगड़ैल नवाब से कमतर नहीं. नवाब तो राजकाज के लिए भी उत्तरदायी होते थे. मकड़ू तो अपने परिवार के लिए भी उत्तरदायी नहीं है.
आप जानते ही हैं जब नाम बी.पी.एल की लिस्ट में चढ चुका हो तो परिवार की काहे चिन्ता. साथ ही मकडू तो रात का अराजक राजा है. घुटकी लगा तीन फुट्टी सड़क के गढ्ढे पर पांव पड़ता तो गांव की सरकार और उसके मुखिया पर जबानी झाग छोड़ कर नेता प्रतिपक्ष सा उग्र हो,प्रधान की सात पुश्तों धो डालता- आखिर बेइमानी की भी तो लिमिट होती है सड़क तो चौफुटी थी एक फुट से तो इसने घर भर दिया. साथ ही सलाद की तरह मुखिया सीमेंट भी खा गया खड्डे तो पड़ंगे ही. अबे मुखिया सुन रहा है.
हम प्याला फुसफुसाया… सचमुच उसकी गाली मुखिया की बीबी ने सुन ली थी. जब उसने अपने प्राणपति से शिकायत की तो वह मुस्करा कर बोला- लाटी इन्हीं गालियों को पचा कर तो कुछ बना हूं. दो… अरे और दो, अरे तुम्हें गालियां देनी है इससे भी बुरी दो. इन्हीं के परताप से ही आगे बढा हूं और दोगे तो और आगे जाउंगा.
वह भली-भांति जानता था कि गालियों की टी.आर.पी. ही उसकी लोकप्रियता का पैमाना है. मुखिया सब्बलसिंह परले दरजे का घुटा इंसान था. उसकी नजर में मकड़ू तो महज उसका छोटा सा मोहरा था. सामान्यतः उसे तो वह एक बीड़ी से भी साध सकता था. थोड़ा और उग्र हुआ तो बीड़ी के बंडल से उसका कमन्डल भर देता. विद्रोह की पराकाष्ठा लांघने पर एक लाल क्वाटर से उसे नतमस्तक कर डालता. लेकिन मकड़ू लजा कर कहता- वह तो बस प्यार का भूखा है प्यार से तो वह बोतल की तलछट से ही तृप्त हो जाता है. फिर तो वह अपनी आन-बान-शान सब नेच्छावर करने को उतारू हो जाता. लेकिन पीठ पीछे उसका कोई भरोसा नहीं था.
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उस दिन मकड़ू कुछ ज्यादा ही आपे से बाहर हो गया हमप्याले से बोला- तू जानता है साऽले… कबि, इस मुखिया के पुरखे हमारे इहां मजूरी-बेगारी करते थे. जब हमारे बाप दादा दस गज की पगड़ियां पहना करते तो इनके बड़े-बूढ़े लंगोटियों से लाज बचाते थे. वक्त की भताग आजादी का लाभ हर किसी को थोड़े ही मिला. हम कुछ शौकीन से हो गये. ये लोग फैदा उठा गये. बड़ी परधानी झाड़ता है.
ये हम प्याला कोई और नहीं मकड़ू का एक मुफ्तखोर दोस्त है पं0 मुंशीराम का पोता सतेश्वर ऊर्फ सत्तू जो जमाने का बी.ए है. जब गांव-देहात में कोई दस-बारह भी बमुश्किल से हो पाते थे. थोड़ा सनकी पर स्प्वाइल सा जिनियस है मकड़ू पधान का लंगोटिया. मकडू की अर्जी-पुर्जी भी तो वही तैयार करता है. बदले में बंडल की बीड़ियां खींच कर बेखौफ़ छल्ले उड़ाता तो था साथ ही छल-बल से प्राप्त एक-आध तुराक उसे भी मिल जाती थी. मकडू को सुन रहा था.बोला- तो तुम्हारी ये गत कैसे हो गई! पधान थे तुम कभी.
बात सुन मकड़ू अतीत में खो सा गया. बात दिल को पंचर कर गई- ये सत्तू तू नहीं बोल रा समय बोल रा है. पधान हम तब भी थे अब भी हैं फर्क ताकत का है. तब पधान रुतबे का सम्बोधन था. आज तंज का. पहले हम विजेता थे आज पराजित हैं. पुराने खूब जर-जायदात छोड़ गये थे. क्या करें हम भी नबाबों की तरह ताश के महलों और शोहबत की गुलाबी दुनिया में खो गये. मौज मस्ती में पता भी न चला कि दौलत भाग कर न जाने कहां सिफ्ट हो गई. लक्ष्मी है न उल्लूओं को उड़ाना खूब आता है उसे. बची जायदात खैकर खा गए. कानून भी हमारे खिलाफ़ हो ही गया. धरती माता भी तो रूठ गई कुछ उगाओ तो दस दुश्मन सामने खड़े. अब तो आदमी क्या-गूंणीं-बांदर,सौल-सुंगर,चखुले-पोथले सब चुनौती दे रहे हैं हमारी पधानी को. मेरे पिता के जमाने में इलाके भर में तेरे दादा पं मुंशीराम ही ज्ञानवान और गुणी व्यक्ति थे. केवल हम ही थे जो उनकी सलाह समझ पाने में समर्थ थे. अब तो हर कोई ज्ञान की खुराफाती रोशनी से जगमगा रहा है. हम निहत्थे और निढाल हो चुके हैं. हे कुलदेवों… पितरो बोलो दारू न पियें तो क्या करें. ताश न खेलें तो क्या खेलें… हम तो बदहाल हैं ही सारा पहाड़ भी बेहाल है. पुरानी मवाशियां घाम लग ही गई हैं नई भी फटेहाल हैं. माल सरकारी और गलेदारों की फौजमय गूंणी-बादरों शाऊल-सुन्गरों समेत लोकतंत्र के डौर-थकुले बजा रहीं है. कर्तव्यनिष्ठ शर्मसार है. हर तरफ अधिकार ही अधिकार हैं. माल है ताल है साथ में खड़ताल भी है धूर्त देवताओं का स्वांग कर धरती का श्रृंगार नहीं बंटाधार कर रहे हैं.
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दुगड्डा, पौड़ी गढ़वाल में रहने वाले जागेश्वर जोशी मूलतः बाडेछीना अल्मोड़ा के हैं. वर्त्तमान में माध्यमिक शिक्षा में अध्यापन कार्य कर रहे हैं. शौकिया व्यंगचित्रकार हैं जनसत्ता, विश्वामानव,अमर उजाला व अन्य समसामयिक में उनके व्यंग्य चित्र प्रकाशित होते रहते हैं. उनकी कथा और नाटक आकाशवाणी से भी प्रसारित हो चुके हैं.
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