1958-60 के वर्षों में जब अमिताभ बच्चन नैनीताल के मशहूर शेरवुड कालेज में पढ़ रहे थे उन दिनों मैं नगर पालिका के जूनियर हाईस्कूल में पढ़ रहा था. वे हमारे ही नहीं, नैनीताल के भी अच्छे दिन थे. शहर की स्थायी जनसंख्या तब पाँच हजार से कम थी और हर आदमी शहर के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ था. फिलैंडर स्मिथ कालेज, जो हमारे जमाने में बिड़ला विद्या मंदिर बन चुका था, के सिर पर से जब सुबह का लाल सूरज धीरे-धीरे अवतरित होता था तो मुट्ठी के अंदर जकड़ी धुनी रुई की गाँठ को जैसे छोड़ दिया जाय. ऐसे ही यह शहर धीरे-धीरे उगता था. सुबह के पौने पाँच बजे मंदिर और गुरुद्वारे के ठीक सामने लंबी बुर्ज वाली मस्जिद में अजान की पहली हाँक लोगों को जगाती और नैनादेवी और पाषाण देवी के मंदिरों में पहले इक्का-दुक्का और फिर घंटे-आधे घंटे के बाद समूह में घंटियों की आवाज घनकने लगती थी तो उनकी गूँज लोअर चीना माल से अपर चीना माल तक फैले हुए पूरे नैनीताल में गूँजने लगती. तालाब के किनारे के डिब्बेनुमा घरों में से विविध भारती का प्रातःकालीन संगीत चारों ओर तैरने लगता तो पूरे शहर में उभरती चेतना को साक्षात् देखा जा सकता था. ठीक नौ बजे कलेक्ट्रेट के अहाते पर तीखा सायरन बजने लगता था जिसे सुनते ही कामकाजी लोग दफ्तर जाने की और बच्चे स्कूल जाने की तैयारी करने लगते.
बुजुर्ग और अधेड़ लोग सुबह-सुबह नैनीताल की प्रसिद्ध सैलानी चोटियों – स्नो व्यू, लैंड्स एंड, कैमल्स बैक, लरिया काँटा, डोरोथी सीट आदि में घूमने के लिए जाते और सुबह के नाश्ते तक लौट आते. 1880 के जबरदस्त भूस्खलन से बने नैनीताल के फ्लैट्स पर नगर पालिका स्कूलों के हम बच्चे एकत्र होते और हाकी, फुटबाल, गुल्ली-डंडा या कंचे खेलते हुए रेत-मिट्टी में लोटते रहते. शनिवार की शाम को ठीक साढ़े चार बजे शेरवुड और सेंट जोसेफ कालेजों के पब्लिक स्कूली बच्चे लाल-लाल टमाटरों की तरह के अपने सुर्ख-सुन्दर गालों, शैंपू-धुले बालों, आसमानी कमीजों के ऊपर झूलती धारीदार टाई, हरे-नीले ब्लेजर और सलेटी पैंट के साथ शहर में प्रवेश करते तो हम हिन्दुस्तानी बच्चे एकाएक अतिरिक्त रुप में सक्रिय हो जाते. नये-नये हिट हुए फिल्मी गानों को गुनगुनाते हुए हम लोग उनसे टकराने की कोशिश करते ताकि उनके कपड़ों के मखमली स्पर्श और सेंट की मदमस्त गंध को महसूस कर सकें.
पब्लिक स्कूली बच्चे सिर्फ शनिवार को शहर में उतरते थे इसलिए हम लोग उनके आस-पास इतनी देर तक मँडराते थे ताकि अपने अन्दर पूरे एक हफ्ते तक के लिए स्पर्श और गंध संचित कर सकें. शनिवार को ये पब्लिक स्कूली बच्चे तालाब में बोटिंग करते थे और कुछ बच्चे नाववालों से बोट चलाना भी सीखते थे. उनके पास जेब खर्च के लिए इतने पैसे होते थे जितने हमारे अभिभावकों को महीने भर का वेतन मिलता था. कभी-कभी असावधानीवश उनकी जेब से रेजगारी नीचे गिरे जाती थी, जिसे वे लोग उठाते नहीं थे, तो उनके आगे बढ़ते ही उन पैसों को पाने के लिए हम लोग जमीन पर झपटते. एकाध अधन्नी या आने-दो-आने पर अपना अधिकार जमाने के लिए हम लोग एक-दूसरे का सिर फोड़ने लगते. नाववाले उन बच्चों को बोटिंग सिखाने में बेहद उत्साह दिखाते और अपनी नावों में बैठाने के लिए उनमें बहुधा छीना-झपटी होती. कभी आपस में मार-पीट भी होती लेकिन उन बच्चों को अपनी नाव की सीट पर बैठाते ही उनके चेहरे पर गर्व का भाव उमड़ने लगता और उनका सारा गुस्सा शांत हो जाता. बोटिंग करने के बाद वे लोग ठंडी सड़क पर घोड़े दौड़ाते और घोड़ेवाले भी नाववालों की तरह ‘गुडवाला पौनी बाबा, रनिंगवाला पौनी’ चिल्लाते हुए उन बच्चों पर झपटते. ठंडी सड़क और निचली मालरोड पर जब पब्लिक स्कूली बच्चे किलकारियाँ भरते हुए घोड़े दौड़ा रहे होते, सरकारी स्कूलोंवाले हम बच्चे उनके पीछे-पीछे चिल्लाते हुए भागते.
छठे दशक के ऐसे ही आरम्भिक वर्षों में मैं भी अमिताभ बच्चन के पीछे-पीछे भागा था लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद उसे कभी नहीं छू पाया. और जब 1999 में रमेश मेहरा की फिल्म में नायक की भूमिका निभाने के लिए शूटिंग के सिलसिले में वे बुदापैश्त (हंगरी) आए थे तो भी मैं उन्हें नहीं छू पाया था, हालांकि मैं उन दिनों वहाँ विदेशी विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाता था और मैंने अपना कहानी-संग्रह ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल-दा’ उन्हें भेंट किया था. उन्होंने हंगरी में भारतीय राजदूतावास के प्रांगण में मेरे कहानी संग्रह का लोकार्पण किया था. उस वक्त हंगरी में भारत की राजदूत लक्ष्मी पुरी और हिंदी के मेरे अनेक विद्यार्थी मौजूद थे. अमिताभ ने अपने हाथों में मेरा संग्रह थामे मेरे साथ फोटो खिंचवाया था. उसी दिन मैंने उन्हें बताया था कि संग्रह में उनके, राजीव तथा सोनिया गाँधी के नैनीताल प्रवास को लेकर लिखी गई कहानी ‘केवट’ भी शामिल है, जिसे वे जरूर पढ़ें. उन्होंने वायदा किया कि वह संग्रह की कहानियाँ अवश्य पढ़ेंगे और अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवगत कराएंगे. उनकी प्रतिक्रिया की मैं तब से आज तक प्रतीक्षा कर रहा हूँ.
1987 की शरद् ऋतु के जिस दिन अमिताभ बच्चन अपने दोस्त तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनकी पत्नी सोनिया गांधी के साथ नैनीताल के तालाब में बोटिंग कर रहे थे, मैं देवसिंह बिष्ट राजकीय महाविद्यालय के हिन्दी विभाग के कमरा नम्बर छत्तीस में अपने विद्यार्थियों को आचार्य रामचंद्र शुक्ल का निबन्ध ‘कविता क्या है’ पढ़ा रहा था. हालांकि उस दिन पूरे नैनीताल नगर की जनता अपने प्रिय प्रधानमंत्री, अभिनेता और विदेशी मूल की प्रथम महिला को देखने के लिए मालरोड पर उमड़ पड़ी थी, लेकिन मैं उन्हें एक साथ तालाब में नहीं देख पाया था क्योंकि उस दिन ठीक उसी वक्त मेरी कक्षा थी.
करीब एक सप्ताह के बाद मुझे मालूम हुआ था कि उस नाववाले ने, जिसका नाम तो मैं नहीं जानता था, अलबत्ता शक्ल से उसे पूरा नैनीताल जानता था, और जिसकी एकमात्र इच्छा थी कि वह नैनीताल के अपने इस तालाब में प्रधानमंत्री जी की नाव चला सके, स्थानीय बी.डी. पांडे अस्पताल में दम तोड़ दिया था. यह सारा विवरण विस्तार से मेरी कहानी ‘केवट’ में अंकित है, जो 1989 में ‘धर्मयुग’ के गणतंत्र दिवस विशेषांक में गणेश मंत्री के संपादकत्व में प्रकाशित हुआ था और बाद में जिसे मैंने राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित अपने संग्रह ‘अनाथ मुहल्ले के ठुलदा’ (1991) में संकलित किया.
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं.
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बहुत बढ़िया बेबाक लेखन बटरोही जी !
आनंद आया पढ़कर
शानदार लेख हमेशा की तरह ।
Anti sundar lekh.
अति सुन्दर कथानक लेखन शैली, बटरोही जी ।
बहुत हीं सरल और सहज भाषा में लिखी गयी इस पोस्ट को पढ़ने का बड़ा सुखद अनुभव रहा| यह इस पठन ने इस प्रकार अभिप्रेरित किया कि मैंने तुरंत ही काफल ट्री का व्हाट्सअप समूह ज्वाइन कर लिया|
बटरोही जी, अब आपसे मिलने, बतियाने और आपके और भी गहरे अनुभव सुनने-समझने की एक छोटी सी इच्छा है| अगर आप अपने मेल या सम्पर्क सूत्र साझा कर सकें तो बड़ी मेहरबानी होगी|