आईपीसी में अपना बचाव करने का अधिकार है, न कर पाने का ‘अपराध’ नहीं है. कोई धारा नहीं जिसमें सेल्फ डिफेंस न कर पाने पर आपको सज़ा का प्रावधान हो. क्यों? क्योंकि अपराध को रोकने और अपराधी को सज़ा देने की ज़िम्मेदारी राज्य की है. मोटे तौर पर देखें तो समाज की है. विक्टिम की नहीं. इस तरह का माहौल न बनने दें कि विक्टिम को ही सारी तैयारी करनी पड़े और उसके साथ अपराध हो जाने पर जवाबदेही बनती जाए. हर काम से पीछे हटता हुआ राज्य (यहाँ इसे सरकार पढ़ा जाए) एक दिन इस ज़िम्मेदारी से भी हाथ खींच लेगा. Column by Amit Srivastava
तो क्या कर सकते हैं हम? यही उठता है न प्रश्न?
मैं भी नहीं बता सकता. ये परिस्थिति इतनी जटिल और इतने कारकों से बनी है कि कोई निश्चित समाधान नहीं है मेरे पास. फौरी समाधान तो बिल्कुल ही नहीं. फिर भी ये तो कर ही सकते हैं हम-
अगर आप माँ-बाप हैं तो अपने लाडले पर निगाह रखिये. उसकी भाषा, हाव-भाव बहनों और उसकी सहेलियों के प्रति व्यवहार को जांचते रहिए.
अगर आप पिता हैं तो अपने बच्चों के सामने, सार्वजनिक स्थानों पर अपनी पत्नी को जलील करना छोड़िए. बेटे के लिए भी माँ एक स्त्री देह भी है. उसके ज़ेहन में ये बात बैठ जाती है कि इस शारीरिक संरचना वाले जीव के साथ ऐसा व्यवहार वांछित है.
अगर आप पड़ोसी हैं और पड़ोस की बच्ची के साथ ऐसा कोई अपराध हुआ है तो ये निश्चिंत होकर न बैठ जाएं कि आपके बच्चे बच गए. आप उनके साथ खड़े होइए, अस्पताल, थाना, कचहरी जाइये. क्यों? क्योंकि समाज के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी समझिए. यक़ीन मानिए इसके पीछे ‘आपकी बिटिया के साथ होता तो’… जैसी लचर दलील नहीं है. ये उतना ही अश्लील तर्क है जितना ‘तुम्हारे घर में माँ-बहन नहीं हैं क्या’. इस तर्क से तो जिसकी कोई बहन नहीं है उसे किसी भी लड़की को नोचने-खसोटने का अधिकार प्राप्त हो जाता है.
अगर आप सड़क पर हैं तो आस-पास चल रहे, नुक्कड़ चौराहों पर खड़े शोहदों को पहचानिये. उनका पीछा कीजिये, अगर कर सकते हैं. नहीं, तो स्थानीय पुलिस को बताइए. पुलिस पर दबाव बनाइये. उसे ज़िम्मेदार बनाइये. उसे अभिभावक बनने पर मजबूर कीजिये. छोटी से छोटी घटना रिपोर्ट कीजिये.
अगर आप पत्रकार हैं तो मसाले मत छौंकिये. तटस्थ और प्रोफेशनल रिपोर्टिंग कीजिये. निजता और कानून का भी थोड़ा ध्यान रखिये.
अगर आप कार्यालय में हैं तो अपने सहकर्मियों को उनके महिला सहकर्मी को लेकर किये ग़लीज़ मज़ाक पर टोकिये. बॉस हैं तो बाज़ दफ़ा घण्टी दबाकर जूनियर को बुलाने, डिक्टेशन के बहाने उसे घूरने और अहसान जताकर अनाधिकृत नज़दीकी बढ़ाने की कुचेष्टाओं पर रोक लगाइए.
अगर आप शिक्षक हैं तो आप बनिये न सीसीटीवी. देखिये किस बच्चे में मनोवैज्ञानिक बदलाव आ रहा है. हर वो बात बच्चे को समझाइए जो एक-दूसरे को सम्मान दे सकने में कारगर हो. ‘लड़कियों को लुक्स पर मिलते हैं नम्बर’ जैसे तर्कों का समाधान दीजिए उन्हें. समझाने, बताने के बहाने छूने सहलाने का लोभ संवरण कीजिये. वो किसी बच्ची या बच्चे की देह नहीं गीली मिट्टी का मन है. उसपर उंगलियों की गहरी छाप पड़ जाती है बरसों के लिए.
आप कोई भी हों अगर मर्द हैं तो अपने आप को देखिए. देखिये आप किन चुटकुलों पर हंसते हैं. अपनी भाषा पढ़िए, आप किन गालियों को देते हैं या कम से कम सुनते और पचा जाते हैं. अपनी निगाह पर भी निगाह रखिये. Column by Amit Srivastava
अगर आप पुलिसवाले हैं तो शर्म कीजिये. जितना भय किसी अपराधी के चेहरे पर ठीक एनकाउंटर के पहले उभरता है उतना ही भय अगर इन अपराधियों के चेहरे पर अपराध से पहले नहीं आता, तो लानत है आपकी ख़ाकी पर. Column by Amit Srivastava
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
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अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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अत्यंत शिक्षाप्रद, प्रेरणादायक, सर्वकालिक मूल्यों एवं मार्गदर्शक सिद्धांतों को संजोए हुए समयानुकूल लेख!
Very nice
प्रासंगिक और विचारोत्तेजक लेख। और भी महत्वपूर्ण बन जाता है जब लिखने वाला एक पुलिस अधिकारी हो। नमन