हर कहानी में एक विलेन यानि खलनायक होता है पर हमारी कहानी में विलेन ही विलेन थे. हीरो भी बेशुमार. कुल मिलाकर अलमोड़े में जिंदगी गजबज का शिकार थी. (Almora Satire Vivek Sonakiya)
‘भसड़’ यूं तो आगरा, अलीगढ में प्रयोग होने वाला अपभाषिक शब्द है जिसके समानार्थक कुमाऊनी में हाकाहाक या बेहतर होगा तो गजबज ही ठहरते हैं. (Almora Satire Vivek Sonakiya)
कहा जाता है और यह सच भी है कि अल्मोड़े से ज्यादा बुद्धिजीवी पूरे पहाड़ में कहीं नहीं मिलेंगे. एक इतिहासकार महोदय तो यह भी कह चुके हैं कि दुनिया की सबसे ज्यादा अधिक बुद्धिजीवी मानव प्रजाति इस शहर के सात-आठ किलोमीटर के दायरे में रहती है. बुद्धिजीवियों से ठूंस-ठूंस कर भरे इस शहर में बौद्धिक टकराव बेहद आम था. बस हर बार यह टकराव हिंसक होते-होते रह जाता.
पेश हैं दो किस्से –
कचहरी का अस्तित्व बिना वकीलों और उनके मुवक्किलों के संभव नहीं है. कचहरी ही एक ऐसा स्थान है जहां वकील, मुवक्किल को और मुवक्किल, वकील को एक स्तर तक झेलने के बाद बेवकूफ बनाने लगते हैं. शायद इसके पीछे अदालतों में फैसलों में सालों लगने वाला वक्त है.
अल्मोड़ा कचहरी में आबकारी दफ्तर के गेट के ठीक बायें हाथ पर एक ओपन कम क्लोज टाइप का बरामदा है, जो एक किंवदंती के मुताबिक कभी अस्तबल का हिस्सा था. मुख्य घोड़ों के बंधने स्थान पर आबकारी दफ्तर है. संयोग है कि शराब और हिनहिनाने (आदमी हो या घोड़ा) में एक अप्रत्यक्ष संबंध है. खैर.
बरामदे में तखत, बेंच, मेज-कुर्सी नाम की दो-चार बाबा आदम के जमाने की चीजें पड़ी हुई हैं जिन्हें आश्चर्यजनक रूप से अब भी कानूनी भाषा में तखत, बेंच, मेज-कुर्सी ही कहा जाता है. जिन पर वकील अपनी जवानी के दिनों से कब्जा किए हैं. कब्जे के पुरातात्विक साक्ष्य वकीलों के झड चुके बाल और उम्र से पहले लटक चुके चेहरे बताते हैं. (Almora Satire Vivek Sonakiya)
मुवक्किलों को कुर्सी पर बैठने की मुमानियत है सो वे वहीं पड़े तख्तों पर बैठ कर लेट लेते हैं, और लेटकर बैठ भी लेते हैं. तख्त के नीचे बैठे कुत्ते भी दिन भर यही करते रहते हैं. अल्मोड़े की एक मशहूर कुत्ताप्रेमी महिला भी वहां बैठी पाई जाती है.
भसड़ को ढंग से समझने के लिए उक्त चित्रालेख खींचना जरूरी था.
“अजी खत्याड़ी-खोल्टा को नगरपालिका में मिलाने का क्या फायदा हुआ“
सुरती घिसते एक मुवक्किल ने दूसरे मुवक्किल से पूछा.
“कूड़ा उठने लगेगा खत्याड़ी वालों का. नाली-पानी, गू-मूत उठाने का सारा काम नगरपालिका देखेगी बल“ दूसरे मुवक्किल ने कुल पंद्रह शब्दों में अपना संक्षिप्त सा प्रेसनोट जारी करके कोने में ऐसे थूका कि अब वह अपने काम पर ध्यान देगा इसके अलावा किसी पर नहीं.
पहले मुवक्किल ने भुनभुनाते हुए कुछ कहा कि जिस अंतिम शब्द “मूत“ था. दूसरा मुवक्किल को जो अपना ध्यान वास्तव में अपने काम पर लगाये था, उसे कुछ अलग सुनाई पड़ा.
“क्या है जी!, खुलकर कहिए किसी के बाप का दिया नहीं खाते हैं.”
“देखिए बाप पर ना आइए. हमारी एक आवाज को पूरा खत्याड़ी-खोल्टा इकट्ठा हो जाएगा“
“हां तो कल्लो सालो, और क्या किया है तुम लोगों ने सिवाय इकट्ठा होने के, उखड़ता तो तुमसे कुछ है नईं. पोस्टर लगाते हैं कि गांव में रहेंगे, चले हैं लाला बाजार बनने“
इतना कहकर दूसरे मुवक्किल ने फिर उसी कोने में हिकारत के साथ गले से या नाक से कुछ घरघराहट की आवाज निकाल कर जोर से थूका. अबकी बार का थूकना पहली बार के थूकने से सौ फीसदी अलग था, यह पहले मुवक्किल को लग गया. (Almora Satire Vivek Sonakiya)
“क्यों तुम कौन सा लंदन में रहते हो. तुम्हारे यहां भी साले लोग कंधे से कंधा सटाकर मूतते हैं. साला गली-गली में तो पिसाब की बास आती है. कंधे छिल जामे हैं, झोला फट जाता है लाला बाजार में. चलते हैं साले खत्याड़़ी की बराबरी करने.“
अबकी बार थूकने की बारी पहले मुवक्किल की थी. चूंकि मुंह में सुरती दबाए हुए था सो कड़क आवाज नहीं निकल सकी.
समूचा दृश्य वीररस प्रधान हो गया था. वकील साहब जो एक महिला वकील के कानों में मुंह खोंस के कुछ समझा रहे थे या कुछ समझने का आग्रह कर रहे थे, उनके लिए यह दृश्य पिचहत्तर प्रतिशत श्रंगार और पच्चीस प्रतिशत वीर रस का मिश्रण था.
दोनों मुवक्किलों की नथुने फड़क रहे थे. कल्ले खड़े हो गए थे. तखत के नीचे उनींदे अलसाये कुत्ते भी एकदम अलर्ट हो गए थे. आसपास के वकीलों का ध्यान खिंच चुका था. खेमेबंदी साफ दिख रही थी. दोनों पक्ष बमबार्डिंग के लिए कमर कस चुके थे. पर यह क्या.
“ दस रूपये का स्टांप लाओ तब नकल मिलेगी“
अपने वकील की आवाज सुनते ही दूसरा मुवक्किल अपनी अक्षौहणी सेना, दल-बल, पान-पुड़िया के साथ एक दिशा में रफू हो गया.
मैदान में बचे दूसरे खिलाड़ी को भी कुछ याद आया तो वह भी भुनभुनाते हुए उड़नछू हो गया.
बरामदे में सर्वत्र एक भुनभुनाहट फैल चुकी थी. वार्ताकारों के चार-पांच गुट बन चुके थे. बीड़ी सुलग चुकी थी. कुल मिलाकर विहंगम दृश्य उपस्थित था.
असल में अल्मोड़ा नगरपालिका विस्तारीकरण के विरोध में आसपास के गांव एकजुट थे. उन दिनों हर तरफ इसी मुद्दे को लेकर भसड़ मची थी.
घटनास्थल से लगभग तीन सौ मीटर दूर लोहे के शेर के पास अपने-अपने मुंह में पान दो रसा दबाये हुये दो आदमी, जिनमें एक कचहरी का पेशकार था और दूसरा आदमी जो अपनी किसी फरियाद को उसी पेशकार की इजलास में पेश करके आया था में बहस जारी थी.
“देखो दाज्यू एक हजार बहुत ज्यादा ठरे.“
कन्नी उंगली से चूना चाटते हुये हुए लखनऊ में रहने वाले पहाड़ी क्लाइंट ने नजदीकी दिखाने की कोशिश करनी चाही.
“कहां ठहरे“
“…”
“इत्ते से कम में काम ना होगा“
“ममकोट के हो सो इतने में काम कर रहा हूं, नहीं तो चप्पल के साथ-साथ भेल घिस जाती कचहरी में आते-आते“
कचहरी में किसी अफसर के पेशकार ने पहले दिखाई गई फर्जी नजदीकी पर असली और प्रैक्टिकल वास्तविकता की मुहर लगाते हुए कहा.
“ अमां पर हमारे लखनऊ में तो इस काम के पांच सौ लगने वाले हुए“
“अजी होंगे“
“क्या“
“पांच सौ“
“देख ही रहे वह पव्वा कितना महंगा हो गया है, साला नया आबकारी वाला डीओ आया है तब से ठेकेदार ने बीस रूपये बढ़ा दिए हैं तो फिर हम क्यों नहीं“
“आबकारी वाले से तुम्हारा क्या लेना-देना“
“अजी वह भी तुम्हारे लखनऊ के आसपास का ठरा. साला चूना चाटता भी है और लगाता भी. पर तुम्हारी तरह उंगल से नहीं माचिस की तीली से“
“ यह तो गलत बात है“
“क्या“
“पव्वा महंगा हो गया“
“साला पहले ही यहां बूंदी का रायता फैला हुआ था, उस पर ये आ गया“
बात बाबू और फरियादी के बीच लेनदेन से आरंभ हुई थी और पहुंच गई आबकारी विभाग के नए अफसर के चरित्र निर्धारण तक जिसमें पानवाला उभयपक्ष की तरह रस ले रहा था. (Almora Satire Vivek Sonakiya)
लाला बाजार की भसड़ कचहरी की भसड़ से अलग होने वाली हुयी. यहां न तो कल्ले फड़क रहे थे, न ही मारपीट की गुंजाइश बनती दिख रही थी, पर युद्ध विचार के स्तर पर चल रहा था, छीना-झपटी मची हुई थी, कुल मिलाकर पान दो रसे और लोहे के शेर की कुकरगत बनी हुई थी कि तभी सामने से रोडवेज के ठेके का इंचार्ज बगल में अपने साथी के कान में कुछ कहते हुए गुजरा –
“साले को रोज आरएस का हाफ फ्री में चाहिए, यहां बूंदी का रायता फैलाने चला है स्साला“ – इतना कहकर उसने अपने पान की पीक को ऐसे थूका कि मानो सारी दुनिया के मलेच्छियों की गंध उसके पान में बस गई हो. वह अपने कंधे उचकाते हुए लंबे पैर फेंकता हुआ ठेके की तरफ जा रहा था. (Almora Satire Vivek Sonakiya)
-विवेक सौनकिया
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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