1960 में हरित क्रांति के नाम पर हमने क्षेत्र विशेष के स्थानीय बीजों को चलन से बाहर करने के लिए जो सीड कंट्रोल एक्ट 1966 और फिर 1983 बनाया, उसके द्वारा हमारी उपज तो बड़ी लेकिन खेती की लागत भी उसी अनुपात पर बढ़ती गई. इन हाइब्रिड बीजों में न केवल बड़ी मात्रा में रासायनिक खाद बल्कि उसी अनुपात में सिंचाई की आवश्यकता होती है. इस सिंचाई में डीजल का उपयोग होता है. इस सब ने जहां कृषि की लागत को 40% बड़ा दिया वहीं हम लगातार धरती की उर्वरा शक्ति को भी समाप्त कर रहे हैं . रासायनिक खादों के जरिए उत्पन्न अनाज पौष्टिक भी नहीं है जिस कारण हमारा इम्यून सिस्टम कमजोर हुआ है. कैंसर जैसे रोग बहुत तेजी से बड़े हैं. इस महंगी होती खेती ने बड़ी संख्या में किसानों को खेती से बाहर कर दिया है.
(Agriculture challenges in Uttarakhand)
हरित क्रांति के नाम पर दुनिया के तीन बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां बीज और खाद के जिस कारोबार को 66% अपने हिस्से ले आई हैं. उससे विश्व में 12000 मिलियन डॉलर के बीज और इससे कई गुना बड़ी संख्या में रासायनिक खादों का कारोबार मात्र तीन कंपनी डुंपांट, बी.एस.एफ और मोसांट के बीच सिमट गया है.
दुनिया के स्थानीय बीजों को 1663 पेटेंट की नस्ल में कैद कर लिया. महंगे बीज और खाद के अंतरराष्ट्रीय दुष्चक्र ने भारत के किसान के हिस्से मौत दी है. अब भारत में प्रतिवर्ष 16 हजार से अधिक किसान आत्महत्या करते हैं. इस प्रश्न को गहरे से विचार करने की आवश्यकता है. फिर 12 बीज निगम और 100 निजी बीज कंपनियों के बीच जो प्रतिस्पर्धा है उसमें भी शुद्ध बीज की गारंटी नहीं है. वहां 75% बीज प्रमाणिक नहीं है इस साधारण बीज की किसान अतिरिक्त कीमत चुका रहा है.
(Agriculture challenges in Uttarakhand)
उत्तराखंड की भूमि संघर्ष की भूमि रही है जल जंगल जमीन के सवाल पर जंगल की अस्मिता को जिंदा करने के लिए उत्तराखंड में चिपको आंदोलन विश्व प्रसिद्ध हुआ. चिपको आंदोलन में सुंदरलाल बहुगुणा जी के नजदीकी सहयोगी रहे विजय जड़धारी, धूम सिंह नेगी, कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर ने यह देखा कि 70 के दशक के आखिर में उत्तराखंड के गांव में सरकार द्वारा बेतहाशा सोयाबीन बोई गई, लगभग सभी गांव में पूरा का पूरा रकबा सोयाबीन बोया जा रहा था. सोयाबीन का बीज और बाजार भी सरकार द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा था. जिसने उत्तराखंड की परंपरागत कृषि मंडुवा, झुंअरा, राजमा भट्ट, गहत, तिलहन का अस्तित्व संकट में डाल दिया. सोयाबीन में बड़ी मात्रा में रासायनिक खादों का उपयोग हो रहा था. सिंचाई भी की जा रही थी जिससे यहां के जल स्रोत और मिट्टी भी संकट में आ गयी, अब यह सिर्फ अनाज का सवाल नहीं रह गया यह जमीन की आबरू का सवाल बन गया.
विजय जड़धारी, धूम सिंह नेगी और साथियों ने तब गांव-गांव जाकर परंपरागत बीज बचाने की मुहिम शुरू की. बारहानाजा बीज जो कि हाइ ब्रीड के नाम पर चलन से बाहर किया जा रहा था, की उत्पादकता और पोषण को लेकर कृषि वैज्ञानिकों के समक्ष चुनौतियां पेश की. जिसमें वह काफी हद तक कामयाब भी हुए. परंपरागत बीजों के साथ यह एक मजबूत पक्ष है कि इसकी उत्पादन लागत बहुत न्यून है. साथ ही बीज का कोई खर्च नहीं है. जबकि हाई ईल्ड़ बीज और हाइब्रिड बीज एक या दो फसल के बाद बदलना होता है. जो एक महंगा काम है. परंपरागत बीज आंदोलन द्वारा पूरी यमुना घाटी तथा टिहरी में बीज यात्राएं निकाली गई. जिसका असर उत्तराखंड के अन्य हिस्सों पर भी हुआ. परिणाम स्वरूप हमारी कृषि आज भी 90% बारहनाजा पर केंद्रित है. इस आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि गत वर्ष धूम सिंह नेगी जी को जमुनालाल बजाज पुरस्कार का प्राप्त होना भी है.
(Agriculture challenges in Uttarakhand)
इसप्रकार परंपरागत कृषि, उत्तराखंड की विशेष भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप है जिसके लिए अभी हाइब्रिड बीजों का उत्पादन नहीं हुआ है. यदि हम विशेष भौगोलिक परिस्थितियों में हाइब्रिड बीज का उत्पादन और प्रयोग करते हैं तो इसका हमारी मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ रहा है. उत्तराखंड के किसान सिर्फ व्यापारी नहीं हैं बल्कि धरती के बेटे हैं. उन्हें पहले चरण में इस धरती की उर्वरा शक्ति को बचाए रखने का संकल्प लेना है.
विजय जड़दारी वर्तमान में पहाड़ के पर्वतीय ढलानों की मिट्टी को कैसे बचाए रखा जा सकता है, कैसे बगैर हल और कृषि यंत्रों का उपयोग किए ही प्राकृतिक तौर पर खेती को उत्पादकता के साथ लाभकारी बनाया जा सकता है, इसके लिए जापान की प्राकृतिक पद्धति फोको-वोका, जो की पूरी तरह कृषि यंत्रों से मुक्त और प्राकृतिक जैविक खेती है, का प्रयोग प्रारंभ कर चुके हैं. इससे हम पहाड़ों में उपजाऊ मिट्टी की परत बचाने का जो संकट है उससे भी लड़ पाएंगे. अब न केवल बीज बचाने हैं बल्कि धरती की इज्जत (उपजाऊ मिट्टी का बहना) बचाने का संघर्ष भी शुरू हो गया है.
अल्मोड़ा स्थित विवेकानंद कृषि रिसर्च संस्थान जिसने पूर्व में भी हमारे परंपरागत बीजों के संवर्धन का कार्य किया है. किसानों को प्रशिक्षित भी किया, वह सीड कंट्रोल एक्ट आने के बाद अब निष्प्रभावी हो रही है. 1936 में विवेकानंद लेब्रोटरी से पर्वतीय कृषि पर सफल यात्रा करने वाली यह संस्थान अब संकट में है.
विवेकानंद कृषि संस्थान अल्मोड़ा उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप परंपरागत बीजों के विकास और संवर्धन का कार्य करता रहा है. 1966 और 1983 के सीड कंट्रोल एक्ट के बाद बाजार के रूप में परंपरागत बीजों के समक्ष संकट है. परंपरागत बीज अर्थात बारहनाजा कि हम अदला-बदली तो कर सकते हैं लेकिन इसका व्यापार नहीं कर सकते. जबकि जो हाइब्रिड बीज है वह बहुत महंगा है उसे लगाए जाने पर रसायन खाद और पानी का बेतहाशा इस्तेमाल बढ़ेगा जो पर्यावरण के संकट को जन्म देगा हमें उत्तराखंड की विशेष भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर सीड कंट्रोल एक्ट में परिवर्तन की सिफारिश करते हुए बारहनाजा को प्रमाणित बीज की श्रेणी में लाना होगा. इस दिशा में हमारा परंपरागत ज्ञान भी पर्याप्त है. भंडारण की तकनीक भी बीज के लिए बने हमारे पुराने कोठार आधे जमीन में और आधे हवा में रहकर गोबर मिट्टी से लीपे जाते हैं.
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उनमें यथासंभव बीज के लिए उपयोगी 14 डिग्री तापमान रखा जाता था. बगैर जमीनी संकट के विश्व सरकार के दबाव से आई नीतियों ने न केवल उत्तराखंड के बल्कि तमाम भारत के खाद्यान्न के आंचलिक कटोरों को नष्ट कर दिया है. धान के लिए प्रसिद्ध मध्य प्रदेश, रायपुर अब सोयाबीन का गड़ बन गए हैं. पहाड़ी लाल चावल धीरे-धीरे अपना रुतबा खो रहा है.
वर्ष 1960 जो हरित क्रांति का मानक वर्ष है तब भारत में खाद्यान्न का उत्पादन 82.33 लाख मीट्रिक टन था. फर्टिलाइजर का उपयोग 206 लाख टन अर्थात 1.99 किलोग्राम प्रति हैक्टयर था जो अब 2019 में 203 लाख टन अर्थात 128 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गया है अर्थात खाद्यान्न में फर्टिलाइजर का उपयोग 60 गुना बढ़ा है. इस अवधि में कुल खाद्यान्न उत्पादन 285 लाख मीट्रिक टन हो गया है. खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि मात्र साढे तीन गुना है. पौष्टिकता की दृष्टि से प्रति केजी पौष्टिकता 1960 के मुकाबले 12 .5 % रह गई है.
1960 में जहां देश में कैंसर के मरीज हजार में थे वहीं 2018-19 में यह आंकड़ा 1 लाख 60 हजार हो गया है. फर्टिलाइजर से हम अनाज के फ्रंट में तो कामयाब हो रहे हैं लेकिन जीवन चक्र और प्रकृति का संतुलन तेजी से बिगड़ रहा है कृषि महंगी हो रही है और किसान जमीन छोड़ रहा है.
पहली हरित क्रांति से लागत बढ़ने से किसान संकट में आया वह धीरे-धीरे खेती को छोड़ रहा है. अब 2025 के बाद जबकि भारत की खपत 300 लाख मैट्रिक टन अनाज की होगी और उतना ही हमारा उत्पादन होगा तब उत्पादन बढ़ाने के लिए दूसरी हरित क्रांति पर जोर होगा और वह खेती कॉर्पोरेट की तकनीक आधारित खेती होगी. जिसकी शुरुआत रिलायंस एग्रो,वॉलमार्ट आदि से भारत में हो चुकी है. पूंजी के इस अंतरराष्ट्रीय चक्र से परंपरा और किसान को बचाने के लिए यह समझना आवश्यक है. उत्तराखंड में हम बारहनाजा जा यह सफल प्रयोग कर सकते हैं.
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प्रमोद साह
हल्द्वानी में रहने वाले प्रमोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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