उत्तराखंड अगर मानव शरीर होता तो आज किशोर होता और स्कूल छोड़कर कॉलेज जाने की तैयारी कर रहा होता. कल्पना कीजिये कि 9 नवम्बर, 2018 के दिन वो कैसा दिखाई दे रहा होता?
हमारे गाँवों का रूपाकार आज कुछ हद तक तो बदला हुआ है, मगर पीछे लौटकर देखने पर फ़ौरन सवाल उठता है, बदला क्या है? गाँवों से शहर आई हमारी पीढ़ी, जो आज उम्र के सत्तर दशक पूरे कर चुकी है, इस उम्र में पैजामा और नेकर की जगह पैंट पहनना शुरू कर रही थी और बस्ते की जगह कापी-किताबें हाथों से ले जाने लगी थी, तब गाँव और शहर दोनों ही आज जैसे नहीं थे; बहुत कुछ बदल चुका है और ये फेसबुकी बयान तो सचमुच वाहियात है कि हम और अधिक पीछे धकेल दिए गए हैं. या हम हताशा और निराशा के अन्धकोप में जा फंसे हैं.
9 नवम्बर, 2000 से पहले हम क्या थे? वही पेड़-पौंधे, जंगल-नदियाँ और खेत-बगीचे आज भी हैं; जिस साल बारिश अच्छी हो जाती है, हरियाली कुछ और बढ़ जाती है, नहीं होती तो पेट भरने के लाले पड़ जाते हैं. चारों ओर शोर है कि बाहर से आकर लोगों ने हमारी जमीनें हथिया ली हैं और हमारे लोग अपने ही खेतों में बनी अट्टालिकाओं में चौकीदारी कर रहे हैं.
सवाल यह है कि उन्होंने पहले ऐसी अट्टालिकाएं क्यों नहीं बनाई?
कैसे बनाते? उनके पास कहाँ था इतना पैसा और इतना साहस?
तब फिर अब दुखी क्यों हैं? तुम्हारी युवाशक्ति बाहर चली गयी और बाहर से आकर युवाशक्ति ने खुशहाली ला दी है.
इसे आप खुशहाली कहते हो? अपना घर फूककर तमाशा देखना ये नहीं तो और क्या है?
खुद तो उद्यमी नहीं बनेंगे, दूसरा कोई उद्यम करेगा तो हम इर्ष्या से जल मरेंगे. एक आलसी और अकर्मण्य समाज ही तो कुंठाग्रस्त होता है और दूसरे की खुशहाली से जल मरता है.
उत्तराखंड जैसे मुख्यधारा से कटे हुए समाज की विडंबना यह कतई नहीं है कि उसके पास शक्ति और प्रतिभा नहीं है. सैन्य शक्ति का इन दिनों ढिंढोरा पीटा जा रहा है. धार्मिक और आध्यात्मिक पर्यटन के साथ इसकी जड़ें जोड़ी जाती हैं; न जाने कितनी बार इस बात का रोना रोया जाता रहा है कि हम हिमाचल क्यों नहीं बन पाए. हमारी युवाशक्ति का लगातार पलायन हो रहा है और उनकी जगह फूहड़, दिखावटी और चमत्कारी संस्कृति का बोलबाला होता जा रहा है!
एक उत्तराखंड के अन्दर आज जो अनेक उत्तराखंड विकसित हो गए हैं, उनका असल चेहरा क्या है? पहाड़-मैदान का चेहरा, अलग-अलग जातियों का चेहरा, खतड़ुआ-गाई का चेहरा और हिमालय, बुग्यालों, फूलों की घाटी और गंगोत्री-केदारनाथ का चेहरा! क्या ये चेहरे कभी एक सूत्र में बंध पाएंगे जैसे कभी बंधे हुए थे.
कुछ ही साल पुरानी बात है, उत्तराखंड में भी एक जन-नायक पैदा होने की प्रक्रिया में था, पहली बार उसने यहाँ के गरीब मुल्क की विरासत की बात की थी; मडुआ, भांगा, गहत, भट और गाड़-गधेरों की बात की थी; मगर हमारी ही धरती को वह नहीं पचा. उस महाबली से उसने पंगा लिया जिसे नास्त्रदामस ने पृथ्वी का नया अवतार कहा है.
लेकिन हमने उसे क्या दिया? अपनी आँखों के सामने ही उस आतंक को हमने साक्षात् झेला जिसका शिकार आज पूरा देश है. वह खुद शिकार बना, ये कोई खास बात नहीं है.
हमारे जैसे अविकसित और भावुक समाज की यही नियति है. अगर आप भावुक हैं भी तो अपने ही परिजनों के लिए क्यों भावुक हैं? अब तो नया राज्य भी बन गया, कब तक बैसाखी को दिखा-दिखाकर भीख मांगते रहेंगे? कब हम आत्म-निर्भर होंगे?
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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एक और आन्दोलन की आवश्यकता है।