घोषित तौर पर स्वच्छता और शौचालय वर्तमान सरकार का प्राथमिक एजेंडा है. इस पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाता रहा है. यह इसके बावजूद है कि कई अन्य बुनयादी क्षेत्रों के साथ-साथ निरक्षरता और अशिक्षा भारतीय समाज की गंभीर समस्याओं में एक है. भारत कि साक्षरता दर 75 फीसदी के आसपास है. साक्षर पुरुष 82 फीसदी और महिलाएं 65 फीसदी हैं. साक्षरता का पैमाना वही है, जो क म ला कमला लिख ले और पढ़ ले.
अब 25 फीसदी का तो अक्षर ज्ञान से ही वास्ता नहीं है. जो विद्यालय का मुंह देखते भी हैं उनमें 40 फीसदी 10वीं के बाद स्कूलों से बाहर हो जाते हैं और उच्च शिक्षा तक आते-आते इनकी संख्या 4-5 फीसदी ही रह जाती है. कुल मिलाकर हमारा समाज निरक्षर और अशिक्षितों का समाज बना हुआ है. शिक्षितों की शिक्षा का स्तर भी अक्सर ही दिखाई देता है. एक न्यायाधीश मोर के आंसुओं से मोरनी को गर्भवती करवा चुके हैं. एक डिग्रीधारी मुख्यमंत्री महाभारतकाल में इन्टरनेट का आविष्कार करवा चुके. सारी जनता मिलकर मूर्ति को दूध पिलाने जैसे कारनामे करती ही है. यानि शिक्षा की गुणवत्ता अशिक्षितों, कुशिक्षितों का उत्पादन करती है.
ऐसे कुशिक्षित समाज में तर्क के स्थान पर धारणाओं का बड़ा ही महत्त्व होता है. मसलन, तालाब के किनारे रहने वाला हर पहाड़ी कहता है कि इस ताल कि गहराई का आज तक पता नहीं चल पाया है. अलबत्ता कुछ जगह गहराई सरकारी विभाग ने तालाब के किनारे बोर्ड पर बाकायदा लिखी होती है और ऐसा कहने वाला उसके पास से अक्सर गुजरा करता है. अक्सर सुनने को मिलता है ‘अजी अब वो बात कहाँ जो पुराने जमाने में थी, लोग तर माल खाया करते थे. कभी बीमार नहीं पड़ते और सौ-सौ साल जिया करते थे’. दुनिया और भारत में औसत आयु बढ़ जाने के बावजूद इस तरह की मिसालें चलती हैं.
पिछले कुछ सालों में धारणायें गढ़ने का काम बड़े पैमाने पर हो रहा है. यह धारणायें क्षेत्र, धर्म, जाति, समुदायों और समूहों के बारे में गढ़ी तथा प्रचारित कर दी जा रही हैं. जैसे, मुसलमान बड़े कृतघ्न, कट्टर होते हैं, ये भला किसके हुए. इनका कभी भरोसा नहीं करना चाहिए. ऐसा कहने वाले बेवड़े और पाँचों वक़्त की नमाज न पड़ने वाले, रोजा न रखने वाले मुसलमानों को जानते भी होंगे, मगर वह इस धारणा के शिकार होंगे. मजे की बात यह है कि इनमें से अधिकतर वह होंगे जिनकी उधारी हिदुओं ने मारी होगी. इनके घर-परिवार में दहेज़ की शिकार कोई परित्यक्ता बहन-बेटी बैठी होगी. हाल ही में सधर्मी डॉक्टर, वकील से लुटे होंगे. यानि इनके रोजमर्रा के जीवन के कष्टों का कारण सधर्मी ही होंगे. विधर्मी के रिक्शे में उसी के बिरादर से सब्जी खरीदकर बैठे चले आएंगे और घर पहुंचकर बोल देंगे कि अरे ये मुल्ले ऐसे ही होते हैं,घर की रिपेयरिंग कर रहे प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन, कारपेंटर के अचकचाने पर थोड़ा झेंप भी जायेंगे.
हालत इतने बदतर हैं कि शाम कि शराब की धर्मनिरपेक्ष समझी जाने वाली दावतों में किसी अल्पसंख्यक मित्र को साथ लेकर जाओ तो सबको साइड ले जाकर सचेत कर देना पड़ता है.
इतना ही हो तो गनीमत है. ऐसी ही धारणायें सधर्मी दूसरे प्रान्त क्षेत्र के लोगों के बारे में भी प्रचलित हैं. अरे! ये बिहारी ऐसे ही होते हैं. इन गढ़वालियों को तो मुसलमान ही समझो. प्लेन्स के लोग बड़े चालू होते हैं. एक ही शहर के सधर्मी हों तो, ये नीची जात वाले बड़े नकारा होते हैं. गन्दगी में रहने के आदी और कामचोर, नशेड़ी होते हैं. अल्मोड़ा के पंडित महाधूर्त होते हैं. काला बामण खतरनाक है.
अतार्किक धारणाओं का भण्डार गढ़ दिया गया है और हम अपनी सहूलियत के हिसाब से इन्हें अपने विश्लेषणों में फिट करते चले जाते हैं. कुशिक्षा इन धारणाओं के साथ समन्वय बैठाने में महती योगदान दिया करती है.
यह गणित बांटो और राज करो की राजनीति के लिए बड़े काम का है. जब जैसा चाहो वैसा विभाजन कर डालो और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक लो. इसलिए आजकल झूठी, अतार्किक धारणायें गढ़ने का काम थोक में चल रहा है. यही वजह है कि शिक्षा सरकारों का प्राथमिक एजेंडा नहीं रहा है. अशिक्षित जनता हमेशा से ही सरकारों के बड़े काम की रही हैं.
सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है. काफल ट्री टीम के अभिन्न सहयोगी.
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एकदम सटीक विश्लेषण!