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वे तुम्हारी नदी को मैदान बना जाएंगे

अमृतलाल वेगड़ और रजनीकांत के नर्मदा वृत्त के आगे यह नर्मदा की दुर्दशा की अगली कहानी है. शिरीष खरे की यात्रा के लंबे कथोयकथन का यह एक अंश है. लेखक ने यह यात्रा कुछ साल पूर्व ‘तहलका’ में काम करते हुए की थी. पिछले अंक में पाठकों ने शिरीष की मेलघाट (महाराष्ट्र) की एक शोकाकुल यात्रा का विवरण पढ़ा था. पहल का आकाश बढ़ाने में ये नये रचनाकार पहल की सहायता कर रहे हैं. शिरीष खरे इन दिनों पुणे के एक ऐसे संस्थान में काम कर रहे हैं जो जन सरोकारों से गहरे रुप में जुड़ा है.

वे तुम्हारी नदी को मैदान बना जाएंगे
– शिरीष खरे

एक.

घाट पर लोग न के बराबर थे. वहां सन्नाटा था. सूरज आंखों के सामने आ रहा था. सूरज की किरणें ठंडी नदी में तैर रही थीं. फिर भी मैंने चारों तरफ गर्म हवा महसूस की. मैंने बिना छुए ही जाना कि आसपास की चट्टानें हल्की—हल्की तप रही थीं. और हल्की तपती चट्टानों के बीच उस दोपहर एक बूढ़ा आदमी नदी के किनारे पर ही बैठा बीड़ी सुलगा रहा था. एक पल मुझे लगा यह जलती बीड़ी नदी को किसी भी पल झुलसा देगी और उसके आसपास की बड़ी आबादी तबाह हो जाएगी! मुझे ऐसा यूं ही ही नहीं लग रहा था. यह मैंने बाद में जाना.

वर्ष 2011 की 8 मार्च! तारीख ठीक—ठीक इसलिए याद है कि 8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के तौर पर जाना जाने लगा है, और वर्ष इसलिए याद है कि उसी वर्ष मुझसे मेरे हकीकत और फसानों का महानगर मुंबई छूट गया था. और वह दृश्य तो मैं बिल्कुल भी नहीं भूल सकता हूं, जब मुंबई महानगर से दूर हम बरमान में नर्मदा के सतधारा घाट पर बैठे थे. हम यानि मैं और ज्योति. तब हमारी शादी नहीं हुई थी और शादी से एक बरस पहले वह अकेले मुंबई से भोपाल, और फिर भोपाल से मेरे साथ मेरे गांव मदनपुर अपनी होने वाली ससुराल आई थी. उन्हीं दिनों में से एक दिन हम मदनपुर से राजमार्ग चौराहा होते हुए वहां से महज आधे घंटे दूर बरमान में नर्मदा के सतधारा घाट पर बैठे थे. जबलपुर से कोई सवा सौ किलोमीटर दूर नरसिंहपुर जिले से बहने वाली सतधारा के साथ बचपन से मेरा रिश्ता रहा है. वजह, एक तो मेरे गांव की सिंदूरी नदी नर्मदा में मिलती है. फिर, बरमान के सतधारा तट पर हर साल लगने वाला मकर संक्राति का मेला मेरी यादों में बसा है.

नर्मदा का अर्थ है आनंद देने वाली. यह बात सबसे पहले मैंने स्कूल के एक पाठ में पढ़ी. मैंने उस समय ज्योति को बताया कि जब से होश संभाला है तब से देखा और जाना है कि नर्मदा यहां सबकी भूख और प्यास मिटाती आई है. यह बात उसे भली—भांति समझ भी आ गई थी, क्योंकि उसका बचपन भी महाराष्ट्र के सांगली में कृष्णा नदी के किनारे बीता था. लेकिन, कोई दस साल बाद जब मैं सतधारा घाट लौटा तो देखा उसमें जल लगभग रीत गया था. बचपन में नर्मदा में बहुत पानी हुआ करता था,जो एक दशक बाद एक पतली धारा में बदलता दिखा. लगा, नर्मदा सतधारा पर ही जल रही है. हालत इस हद तक पतली हो चुकी थी कि ऊपर पुल से रेत में नदी दिख रही थी, जबकि मेरे लड़कपन तक इसी जगह से नदी में रेत दिखा करती थी.

यही वजह है कि अक्सर मैं अपनी जगह नहीं लौट पाता हूं, या अक्सर मैं अपनी जगह नहीं लौटना चाहता हूं. मैं अपने गांव, खेत,जंगल, घाट, नदी नहीं लौटना चाहता हूं. अक्सर अतीत से जुड़ी उन जगहों पर नहीं लौटना चाहता हूं जिन्हें मैंने वर्तमान में जिया है ज्यों का त्यों और बीते दिनों की याद और घटनाओं में बगैर कोई काट-छांट किए हुए. वे मेरी दुनिया के कई किस्सों में अब तक ज्यों के त्यों रखे हुए हैं. मैं उनमें जरा से बदलाव की कल्पना से सिहर जाता हूं. मुझे लगता है कि थोड़ा-थोड़ा करके सालों तक काफी कुछ बदल गया होगा.

इसलिए, सालों से जगह-जगह घूमकर भी मैं अपनी जगह लौटने से रह जाता हूं. मुझे लगता है कि सालों बाद अपनी जगह लौटूंगा तो उस जगह गांव, खेत, जंगल, घाट, नदी तो मिलेंगे, पर ज्यों के त्यों नहीं मिलेंगे. इतने सालों में चेहरे और नक्शों के अलावा भी तो कितना कुछ बदला ही होगा! मैं जैसा छोड़कर निकला था उससे तो बहुत कुछ बदला ही होगा! और फिर यह भी एक मोर्चा है जहां मैं तो रत्ती भर समझौते के लिए तैयार नहीं हूं.

फिर मेरे वर्तमान में मेरा हस्तेक्षप है. इसमें किसी चीज के बार-बार टूटने की प्रक्रिया से खास फर्क इसलिए नहीं पड़ता है कि मुझे यकीन है यदि मैं चाहूंगा तो आखिरी तक सब संभाल ही लूंगा. लेकिन, मेरे अतीत को तो मैंने कब से आजाद छोड़ दिया है और मुझे लगता है कि अतीत की किसी चीज के होने या न होने या टूटने की प्रक्रिया पर अब मेरा कोई बस नहीं रह गया है.

उस समय कोई दस साल बाद जब मैं सतधारा घाट लौटा था तो पुल के नीचे वर्तमान में ज्योति के साथ उतरते हुए नर्मदा के एकदम किनारे तक जा पहुंचा. वहां हम दोनों ने शीतल धारा में अपने हाथ डुबो दिए. तब धारा की आवाज के अलावा उसमें शामिल हो सकने वाली कोई दूसरी आवाज सुनाई नहीं दे रही थी, यहां तक की आकाश में उडऩे वाली पक्षियों की आवाजें भी नहीं. लेकिन, तभी एक हैरान कर देने वाला ऐसा दृश्य सामने आया जो इसके पहले कहीं नहीं देखा. हमारे करीब ही एक बाबा ने सतधारा में आंखें बंद कर एक कान धर दिया था. मानो वह अर्धनग्न—अधेड़ बाबा डूबकर शांत सुर में नदी की आवाज सुन रहा हो. मैंने उसे सिरफिरा जान जल्द ही वहां से ध्यान हटा भी लिया था. लेकिन, वह ताड़ चुका कि मैं उसकी हरकत से हैरान हुआ हूं.

— ”तुम जानत हो हम का कर रये?’’ उसने मुझसे पूछा.

— ”नदी सुन रये.’’

— ”और?’’ उसने पूछा

इस बार मैंने कोई जवाब नहीं दिया तो वह बोला, ”नदी कहानी सुना रई है.’’ मुझे यकीन हो गया कि वह सिरफिरा है. मैं भी थोड़ा दार्शनिक हुआ. सोचा, नदी का सुर और संगीत हो सकता है, क्या नदी की कोई भाषा होती होगी जो वह कहानी सुनाएगी! हम वहां से चल दिए और पीछे मुड़कर देखा तो वह धारा पर कान लगाकर वैसे ही सुनता रहा जैसे नदी सच में उसे कोई कहानी ही सुना रही हो.

फिर मुझे याद आया कि मैं भी तो बचपन में अपने गांव की सिंदूरी नदी के किनारे बैठकर नदी की आवाज सुनता था. दसवीं में मैंने अपनी कल्पना से एक कविता भी लिखी थी. उन दिनों सिंदूरी पर छोटा बांध बनाने की तैयारी चल रही थी. मैंने जब सुना तो नदी से बात की थी. कविता कुछ इस तरह से लिखी गई होगी :

सिंदूरी

तू एक नदी की सरसराहट भर नहीं है
ग्राम मदनपुर के सैकड़ों लोगों की
सहज, सुंदर अभिव्यक्तियां तुझमें शामिल हैं
कोई पठार अब तक तुझे
विचलित कर नहीं सका अपनी राह से
भला एक छोटा बांध रोक सकेगा
नर्मदा मिलन की चाह से.

सिंदूरी पर बांध बन चुका था. उसका निर्मल प्रवाह रोका जा चुका था. दसवीं की वह कविता टूटी—फूटी याद करते ही मेरे भीतर एक प्रेरणा आई! मैंने तुरंत ज्योति के साथ उसे साझा की. उसे बताया कि अब तक मैंने नर्मदा को अलग—अलग समय में अलग—अलग घाटों से देखा है. लेकिन, अब मैं इसे एक तारतम्य में देखने और सुनने के लिए इसके प्रारंभ से कुछ सौ किलोमीटर की यात्रा करना चाहता हूं. यही पांच, छह, सात—आठ सौ किलोमीटर की. इसके वर्तमान धाराओं पर जा—जाकर कहानियां सुनना और सुनाना चाहता हूं. इस बार वह नहीं समझी. पूछा, ”नौकरी छोड़ेंगे! इतनी लंबी छुट्टी देगा कौन?’’ मैंने कहा देखेंगे! अमरकंटक से होशंगाबाद तक भी घूम पाया तो मेरा मकसद पूरा हो जाएगा. प्रेस की नौकरी से हटकर इसके लिए बीस दिन की छुट्टी भी लेनी पड़ी तो ले लूंगा.

उस दोपहर घरवालों को हमारे घर से बाहर निकलने पर भले ही अच्छा न लगा हो, लेकिन ज्योति मेरे सकारात्मक विचारों को जान खुश हुई. इसके बाद हम कार से घर लौटे. रास्ते में मैं लौटते समय सोचने लगा कि हल्की तपती दोपहरी यदि बूढ़े ने घाट पर बीड़ी न सुलगाई होती तो मुझे मेरे अनुभव और अहसास नदी की कगार पर लगी आग से सचेत नहीं कराते. और यदि वह बाबा सतधारा पर कान धर कहानी न सुन रहा होता तो मेरे मन में प्रेरणा नहीं आती. आमतौर पर प्रेरणाएं विपरीत परिस्थितियों में पैदा होती होंगी.

सतधारा, बरमान से लौटे सात साल हो गए. फिर भी वह घटना और उसके बाद नर्मदा यात्रा कथा—संस्मरण मेरे भीतर इस तरह चल रही होती है मानो यह कोई आठ—पंद्रह दिन पुरानी बात हो.

दो.

12 मार्च, 2011 से हम यात्रा पर हैं. सुबह साढ़े छह बजे ही हम मदनपुर से करेली आए और फिर करेली से हबीबगंज, भोपाल के लिए हबीबगंज जनशताब्दी में बैठ गए हैं. असल में हबीबगंज से अगली ट्रेन पकड़कर मुझे एक अलग दिशा की ओर दिल्ली जाना था और ज्योति को भोपाल एयरपोर्ट पर फ्लाइट से एक दूसरी दिशा की ओर मुंबई उड़ जाना था.

बस की यात्रा पांच घंटे से कम रहे तो ही ठीक. ट्रेन की बात कुछ और होती है! स्कूल के दिनों में कुछ प्राइवेट स्लो-खटारा बसें गांव से बाहर निकलने का मुख्य जरिया हुआ करती थीं. वे बहुत ही ज्यादा समय खा जाती थीं. गांव से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर भोपाल पहुंचने में ही छह—छह घंटे लगा देती थीं. ट्रेन में मैं पहली बार भोपाल के हबीबगंज से इटारसी स्टेशन के लिए कोई नौ साल की उम्र में बैठा था. दूसरी बार ठीक बीस साल की उम्र में हबीबगंज से नागपुर स्टेशन के लिए.

और उसके बाद तो जिंदगी में रह-रहकर कई सुरंगों से गुजरने का दौर शुरू हुआ. कभी छोटी सुरंग तो कभी बड़ी सुरंग, एक के बाद दूसरी और तीसरी और चौथी सुरंग, खुले मैदान और मोड़ों से फिर उन्हीं सुरंगों का अंधेरा, साथ हल्की रोशनी. जैसे नदी में पानी का साम्राज्य, पहाड़ों पर पत्थरों का साम्राज्य, जंगल में वृक्षों का साम्राज्य वैसे ही सुरंगों में अंधेरे का साम्राज्य. जैसे नदी,पहाड़, जंगल में जीवन वैसे सुरंगों के भीतर अंधेरे में भी जीवन का अहसास.
और उसके बाद दिन बदले, दुनिया घूमी लेकिन बचपन की कहानियों के रहस्य-रोमांच से अंधेरा नहीं छटा. रहस्य-रोमांच जिज्ञासाओं को जन्म देते और जिज्ञासाएं एक जगह ठहरने कहां देती हैं! वे तो एक से दूसरे, तीसरे और चौथे-पांचवे पड़ाव ले जाती हैं. हर पड़ाव अपना एक मकसद हासिल कर लेता है.

यात्रा में कुछ पहाड़ मिलते हैं तो कोई न कोई नदी भी. किसी आदमी में पर्वत होता होगा, जो उसे स्थिर बनाए रखता होगा. मुझमें शायद नदी बहती होगी, जो भीतर से बाहर नजदीक की नदियों की तरफ खींचती रहती है.
जब कभी छोटी-छोटी यात्राओं के दौरान सुरंगों से बाहर निकलने का मौका मिला तो किसी नदी ने ताजगी-उत्साह से भर दिया. हालांकि, कई बार छोटी से छोटी यात्रा का ख्याल भी नीरसता पैदा कर देता है. लेकिन, मैंने जब-जब छोटी से छोटी यात्रा की तब-तब जाना कि एक यात्रा भी किसी नदी की तरह यात्री को सरस ही नहीं, सरल भी बना देती है.

दिन बदले, दुनिया जरा और घूमी तो मैंने जाना कि यात्रा के पीछे के कई कारण हो सकते हैं. जैसे- खुशी, प्यार, तकरार और आजादी या सरोकार इत्यादि.

और ट्रेन में इसी समय यात्रा के दौरान मुझे एक और यात्रा की प्रेरणा हासिल हुई है. मेरी सीट खिड़की वाली है, लेकिन जिस स्थिति में है उस जगह से यात्रा करते लग रहा है कि ट्रेन मुझे उलटी दिशा में ले जा रही है. अक्सर ऐसा ही होता है. उस सुबह को मैंने चलती ट्रेन से खिड़की के बाहर देखा तो गाडरवाड़ा से पिपरिया और होशंगाबाद होकर हबीबगंज स्टेशन के रास्ते कई छोटी और हरी-भरी पहाडिय़ां उलटी दौड़ती दिख रही हैं. मैं अपना चेहरा देख तो नहीं सकता हूं, लेकिन महसूस कर रहा होता हूं कि चेहरे से सुबह की थकान गायब है. लगा, हवा में ठंडक तैरने लगी है. घर, परिवार और गांव से बिछडऩे की टीस मिटी जा रही है. इससे पहले मैं जिज्ञासावश यह देख पाता कि वह ठीक-ठीक कौन-सी जगह है, जिंदगी मुझे धड़धड़ाते हुए उलटी दिशा की ओर एक नई सुरंग में ले जा चुकी है…

तीन.

होशंगाबाद कब का छूट चुका था. अब तो रात नई ट्रैन में जगह घेरकर हबीबगंज निजामुद्दीन एक्सप्रेस से दिल्ली की ओर जा रहा था तो भोपाल भी पीछे छूटने लगा. जब पहली यात्रा समाप्त होने की कगार पर होती है तो मेरे भीतर दूसरी यात्रा की गति तेज हो रही होती है. यह होती है विचारों की यात्रा. विचारों की यात्रा दृष्टिकोण तय करती है. दृष्टिकोण ही तो यात्रा के दौरान विनाश को विकास और विकास को विनाश के तौर पर रेखांकित करता है. एक दृष्टि ही तो है जो नर्मदा की यात्राओं के दौरान या उसके उपरांत अमृतलाल वेगड़ के वृत्तांत में नदी का सौंदर्य तलाशती है. वहीं, रजनीकांत यादव के वृतांत में टूटती, डूबती और समाप्त होती दुनिया की सच्चाई बयां करती है.

मेरी यात्रा के जनरल डब्बे में खिड़की के बाहर नर्मदा किनारे के अलग—अलग तबके अपने हाथों में अपने—अपने चेहरे लिए दौड़ रहे हैं. मैं देखता हूं कि मैं इन सबसे मिलकर आ रहा हूं, ये विकास नाम की अलग—अलग समस्याओं से जूझ रहे चेहरे हैं. मेरी दृष्टि में विकास के गिद्ध इन्हें नोंच—नोंच खा रहे हैं. मेरे भीतर के यात्री ने भीड़ में अपना सामान कसकर पकड़ लिया है. मेरा डर है कि नर्मदा के गांव, कस्बे, खेत, खलिहान, सड़कें, स्कूल, घाट, हाट, मेले, ठेले, तालाब, छोटी नदियां, पेड़, पहाड़, झरने आदि—आदि इत्यादि अपने—अपने के हाथ न छोड़ दें!

आम लोगों की दृष्टि में नर्मदा पर आए संकट के पीछे आबादी का बोझ है. जबलपुर में जब एक बार मैं उनसे मिला था तो उन्होंने मुझे बताया था कि आबादी विस्फोट के कारण जंगल कट रहे हैं, जबकि खेत, घर और कारखाने फैलते जा रहे हैं. ये सारे कारक मिलकर एक नदी पर इतना दबाव बना रहे हैं कि उसकी सांसें फूल रही हैं. वहीं, दूसरा तबका नर्मदा के संकट को सरकार की मौजूदा नीतियों से जोड़कर देख रहा है. यह मानता है कि नीतियां बनाने वालों का नजरिया शहरी है. यह शहरी सभ्यता की सेंध है. इसलिए, सरकार कोई भी आए अंतत: पकड़ेगी उसी नजरिए वाली नीति को जो विशुद्ध तकनीकी है, और नर्मदा को महज एक संसाधन तक सीमित रखती है.

नर्मदा पर जारी विकास को जनहित कहा जा रहा है, लेकिन बांधों को सिंचाई के नाम पर बनाने के बाद उसे कंपनियों को सौंपना कैसा जनहित है! एक हाथ से सरकार संसाधनों का दोहन करके संरचनाएं खड़ी करती है और दूसरी हाथ से संरचनाओं को कंपनी के हाथों सौंपती है. संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा का घोषणा—पत्र में स्व—निर्धारण का जन अधिकार, सार्वजनिक भागीदारिता और प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व को विकास का सूचक माना गया है. पर, नर्मदा अंचल में जारी विकास तीनों सूचकों में से एक का भी संकेत नहीं करता है.

अंत में नर्मदा के कई रूपों को अपने कैमरे में संजोकर रखने वाले छायाकार और लेखक रजनीकांत यादव की एक बात याद याद आ रही है. उनकी दृष्टि में अब नर्मदा को देखकर रोया, हंसा या गाया नहीं जा सकता. क्यों? क्योंकि अब वह इमोशन मर चुका है. सबको पता चल चुका है कि इसे काबू में रखा जा सकता है. तकनीक के आने से जब नजरिया ही ऐसा हो रहा है तो यह मैया कैसे रही, यह तो मालगाड़ी बन गई. इधर सरकार की नीति है कि आइए हम आपको परोसने को तैयार हैं, और ये लीजिए नर्मदा, ये लीजिए उसके जंगल, पहाडिय़ां और उधर कंपनियों के पास सारी खोदाखादी, काटने, छांटने के लिए मशीने तैनात हैं.

वे आएंगे और देखते ही देखते तुम्हारी नदी को मैदान बना जाएंगे!

[यह लेख हिन्दी की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका ‘पहल’ के ताज़ा अंक से साभार लिया गया है.]

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