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बाबू, ईजा को मत बताना कि मैंने तुमको ये चिट्ठी लिखी है

मनु डफाली के नाम से काफल ट्री के पाठक परिचित हैं. आज मनु ने एक बेटे का अपने पिता के नाम ख़त भेजा है. पहाड़ से लाखों की संख्या में युवा मैदानी इलाकों में नौकरी के लिये जाते हैं जहां उनका मन मिनट भर के लिये नहीं लगता है. हमेशा वापिस लौटने की चाह में बड़े नगरों में युवा हर पल घुटता है पर अपने घर वालों से कभी कुछ नहीं कह पाता. ख़त के माध्यम से मनु ने बड़े सरल शब्दों में अपने घर से कोसों दूर बैठे युवा का दिल इस ख़त में खोल कर रख दिया है. ख़त के अंत में बने तीन स्टार में पहाड़ के किसी भी युवा का नाम हो सकता है – सम्पादक (Letter of Young Boy to his Father)

बाबू पैलाग.

बाबू, ईजा को मत बताना कि मैंने तुमको ये चिट्ठी लिखी है, कहीं फिर से वो उचैड न रख दे. तुमको भी नहीं लिखता, अगर मैं आज ऐसा नहीं हो गया होता. बाबू, यहां दिल्ली में बहुत गन्दा सा हो गया है, मुझको वापिस पहाड़ आने का मन करता है. (Letter of Young Boy to his Father )

मुझको पता है, ये पढ़ कर तुम मुझ से जयादा खुद को हारा महसूस करोगे. लेकिन बाबू क्या करूँ चाहते हुए, न चाहते हुए भी बोहत लड़ा, पर अब नहीं हो पा रहा मुझसे. शुरू-शुरू में खूब लड़ा, तुमने जैसे कहा वैसे भी, और जैसे यहां दिल्ली वाले लड़वाते हैं वैसे भी, पर अपने मन से – हां शायद नहीं लड़ा, क्यों की मन मेरा शायद वही रहता है पहाड़ों में.

बाबू पता नहीं तुम जान पाओगे या नहीं, महसूस कर पाओगे या नहीं, लेकिन घर के खाने, वहां की ठंडी हवा, पानी, त्योहारों और दोस्तों की याद बोहत आती है हो. यहां के फ़ास्ट फ़ूड, जहरीली हवा और डिब्बा बंद पानी ने मेरी जान सुखा दी है. और यहां लोग भी तो नहीं जानते, दिल्ली बोलने को लगता है एक शहर, लेकिन यहां तो अपने पहाड़ के दोस्तों के पास भी टाइम नहीं होता, वो सभी लगे रहते हैं और मेरे पास अभी तो कोई काम भी नहीं है.

बाबू ऐसा मत समझना की तुम्हारा लड़का नालायक है, कि उसे कोई काम नहीं मिल रहा. बाबू काम बोहत किये, कई कंपिनयों की ख़ाक छानी, इंटरव्यू दिये और कुछ एक में काम मिला भी. लेकिन सब साले चील-कौवे बैठे हैं, तुम्हारी बोटी-बोटी चट कर देने को तैयार और हाथ में कुछ भी नहीं देते. फ्री में काम निकलवा लेते हैं. मुझ से नहीं होता, मैं सालों को गाली कर आता हूं.

बोहत गुस्सा आता है, पहले इस दिल्ली पर और फिर खुद पर, मुझ को पता है, ऐसे नहीं होता है, सुनना पड़ता है, काम के लिए अतास नहीं करनी पड़ती. लेकिन क्या करूं, गलत देखा नहीं जाता, ईजा से सीखा है न, घर में कित्ती ही बार उसने भी गलत को गलत बोला है, और लड़ी है, चेला तो उसका भी हुवा मैं.

बाबू, यहां के छोटे-छोटे कमरों में दम घुटता है. बाहर बरामदे में फर्श पर एक रोशनदान सा है, जहां से नीचे की मजिलों में थोड़ी से रोशनी जाती है, पता अकसर मैं उसपर कूदता हूँ, सोच कर कि ये टूट जाए, और कुछ हादसा हो जाए. परसों इंटरनेट पर पड़ा, पता चला, ऐसी स्थिति को अवसाद (डिप्रेशन) कहते हैं. बाबू मैं तुमको  डरा या धमका नहीं रहा, पर यहां जो मेरे साथ हो रहा है, उसे मैं आपको नहीं तो किसको बताऊं.

मुझ को वापस आना है, मुझ को पता है, तुमको भी पता है कि मैं ठीक नहीं, और चाहते हो वहीं कुछ कर लूं, कुछ  नहीं तो दुकान ही देख लूं, लेकिन आसपास वालों के उन खतरनाक लोगों से क्या कहोगे. जो दिवाली-होली में एक और दिन नहीं टिकने देते  घर में. अपने जैसे फालतू सवाल बार-बार पूछ कर दिमाग ख़राब कर देते हैं. 

कब आया? कब जाएगा?  क्या कर रहा है?

मैं डरता तो इससे भी नहीं हूँ, मूँ पर ही इनकी छर-बट्ट कर दूं, लेकिन फिर ईजा हुई, तुम हुए,  सुनना पड़ेगा. लेकिन अब नहीं होता, यहां मैं हर रोज मर रहा हूं और चाहता हूं कि वापस अपनी जमीन पर कुछ करूं. दिल्ली से और कुछ नहीं तो इतना तो सीख ही लिया है कि वहां क्या-क्या किया जा सकता है. वो किशन धामी अंकल का लड़का मेरा दोस्त, दिल्ली से वापिस आकर, कर तो रहा है वहीं काम, और खुश भी है. मैं भी जरूर ही कुछ न कुछ कर लूँगा, बस तुम्हारा और ईजा का सर पर हाथ चाहिए.

बाबू क्या हो जायेगा, अगल-बगल वाले कहेगें कुछ, तुम ही बताओ जब ईजा को कुछ होता है या तुमको कुछ होता है तो कोई आता है इनमें से. सीबो-सिब कहकर सब निकल जाते हैं, कम से कम मैं तो हूंगा वहां उस समय. और वैसे भी पीठ पीछे ये बुरा ही बोलते हैं, कहते हैं, इनका लड़का कुछ नहीं करता दिल्ली में, बस पड़ा हुआ है. आने दो वापिस मुझे,  बताता हूं इनको भी, कि मैं क्या कर सकता हूं क्या नहीं. ईजा तो हमेशा ही कहती है, वापिस आ जा, लेकिन तुम्हारे डर से, कभी नहीं कहा होगा, बाबू अब तुम छोड़ो न अपनी जिद और लगा लो अपने सीने से मुझे. 

तुम्हारे सामने ये सब नहीं कह पाता, इसी लिए लिख दिया सब. आशा है तुम अपने लड़के को समझोगे और मुझ को आने दोगे वापस.

आपका
***

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पिथौरागढ़ के रहने वाले मनु डफाली पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रही संस्था हरेला सोसायटी के संस्थापक सदस्य हैं.


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Girish Lohani

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  • दिल्ली जैसे बड़े शहरों में रह रहे तमाम पहाड़ी युवाओं की व्यथा।

  • विस्थापन के दर्द को झेलती हमारी युवा पीढ़ी की मार्मिक दास्तान।

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