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मिलिये सामाजिक कार्यों के लिये सरकारी नौकरी छोड़ने वाले उत्तराखंड के धूम सिंह नेगी से

पंचायत चुनाव के दौरान प्रख्यात गांधीवादी चिंतक सर्वोदय कार्यकर्ता और बीज बचाओ आंदोलन के प्रणेता 80 वर्षीय धूम सिंह नेगी जी से उनके घर कठिया तोक ग्राम पिपलेथ खाडी़, टिहरी गढवाल में हिमालय सेवा संघ के साथी मनोज पांडे के साथ जाकर मुलाकात की.

धूम सिंह नेगी जी वर्ष 2018 के जमुनालाल बजाज पुरस्कार से भी सम्मानित हैं .गांधीवादी परम्परा के अनुरूप ही धूम सिंह नेगी जी बहुत सरल, संकोची स्वभाव के व्यक्ति हैं. उनका घर एक साधारण पर्वतीय घर है.घर के आंगन में लाल मिर्च सूख रही है, घर का बरामदा जो छोटी बैठक भी है .

बरामदे में मौजूद तख्त में कुछ पत्रिकाएं और पुस्तकें बिखरी हैं. यहीं पर धूम सिंह नेगी जी अध्ययन और लेखन के कार्य में जुटे रहते हैं. घर के बरामदे से इस इलाके की जीवनदायिनी हैंवल नदी जो छोटी नदी है, लेकिन सदा जल नीरा है.

बरमादे से हैंवल नदी का विस्तृत घाटी दृश्य दिखाई देता है. बहुत आत्मीय भाव से नेगी जी ने हमारा स्वागत सत्कार किया. यहीं बरामदे पर बैठकर ही, नेगी जी से बातचीत का सिलसिला प्रारंभ हुआ.

धूम सिंह नेगी जी के साथ लेखक

गांधी विचार से जुड़ने के विषय में धूम सिंह नेगी ने बताया की बचपन में गरीबी, मिट्टी तथा मां की पीड़ा को देखा, इस पीडा़ ने ही गांधी की तरफ आकृष्ट किया. इन तीनों की स्थिति आप अचानक नहीं बदल सकते, आपको धैर्य और लगातार मेहनत की आवश्यकता होती है.

बचपन से ही पढ़ने की आदत ने बहुत रास्ता दिखाया, कक्षा 4 में जब पढ़ता था तब भगवत गीता हाथ आ गई बहुत ज्यादा नहीं समझ पाया लेकिन इतना जरूर पता चल गया कि मेहनत और लगन से रास्ता तय होता है. रास्ता सत्य का हो यह भाव भी भगवत गीता ने ही भीतर दिया.

शुरुआत में सामाजिक कार्य करने जैसा कोई इरादा नहीं था. नौकरी करना ही मजबूरी थी. वर्ष 1962 में सरकारी प्राथमिक विद्यालय मजियाडी़ में नौकरी लग गई, वह विद्यालय घर से थोड़ा दूर था.

इसी बीच वर्ष 1962 में हमारे घर के पास जाजल में युगवाणी के संपादक गोपेश्वर कोठियाल जी ने क्षेत्र में कोई विद्यालय न होने पर जूनियर हाई स्कूल खोलने का मन बनाया और विद्यालय खोल दिया. लेकिन विद्यालय को प्रशिक्षित अध्यापक के अभाव में अनुमति नहीं मिल रही थी, प्रशिक्षित अध्यापक के रूप में मुझे विद्यालय में नियुक्ति देकर, 1963 में प्रधानाध्यापक बना दिया हालांकि मैंने ऐसा कोई आवेदन नहीं किया था.

पठन-पाठन चलता रहा, उन दिनों क्षेत्र में शराब का बहुत बोलबाला था. तब क्षेत्र के युवाओं का एक संगठन 1970 में बनाया और क्षेत्र के लोगों से कहा कि वह “विद्यालय और मदिरालय ” में से किसी एक को चुन लें. इस युवक संगठन में मेरा भरपूर साथ मेरे विद्यार्थी रहे प्रताप शिखर और कुंवर प्रसून ने भी दिया.  

हमने जुलूस निकालकर टिहरी जाकर शराब के विरोध में गिरफ्तारी दी लगातार प्रयासों से खाड़ी और आसपास क्षेत्र में शराब बंद हो गई. शराब बंदी की यह चिंगारी एक आंदोलन के रूप में कुमाऊं तक भी गई.

इस शराब बंदी आंदोलन में भी हमारा मार्गदर्शन सुंदरलाल बहुगुणा जी ने किया. इसी बहाने सुंदरलाल बहुगुणा जी के आश्रम पर्वतीय नवजीवन मंडल सीलियारा में आना जाना बड़ गया.

कुंवर प्रसून और प्रताप शिखर का बहुत मजबूत साथ मुझे मिला. हम तीनों लोग चिपको आंदोलन में बहुत मजबूती से जुड़ गए और यहां खाड़ी क्षेत्र में बरमुंडा और अदवाणी के जंगल में पेड़ों से चिपक कर ठेकेदार के आदमियों को वापस कर दिया. यह अहिंसा और चिपको की बड़ी जीत थी.

हम समाज सेवा और चिपको आंदोलन में ज्यादा भागीदारी चाहते थे. जिसपर सुंदरलाल बहुगुणा जी ने कहा कि सामाजिक आंदोलन कोई पार्ट टाइम जॉब नहीं है, यह बात दिल में लग गई और जुलाई 1974 में अपने प्रधानाध्यापक पद से त्यागपत्र देकर बहुगुणा जी के साथ पूरी तरह चिपको आंदोलन में जुट गए.

कुंवर प्रसून और प्रताप शिखर बहुत ही प्रतिभावान और संघर्षशील युवा थे. उधर कुमाऊं से शमशेर सिंह बिष्ट, शेखर पाठक और राजीव लोचन साह जी का भी चिपको आंदोलन से जुड़ाव हुआ. बाद में गिरीश तिवारी गिर्दा, प्रदीप टम्टा, पीसी तिवारी जैसे कई जुझारू युवा कुमाऊं से हमारे साथ जुड़े और जंगल का आंदोलन कुमाऊं में भी पहुंचा.

आंदोलन ने कुमाऊं और गढ़वाल के बीच एकता के सूत्र भी विकसित किए. 1980 आते-आते चिपको आंदोलन की बड़ी जीत हुई सरकार ने आंदोलन के दबाव में हरे पेड़ों को काटने को प्रतिबंधित कर दिया और नया बन कानून बनाया.

1981 से 1983 के बीच सुंदरलाल बहुगुणा जी के नेतृत्व में एक 15 सदस्यी दल, जिसका मैं भी सदस्य था, ने कश्मीर से लेकर नागालैंड कोहिमा तक की 4870 कि.मी. लम्बी पदयात्रा चार चरणों में पूरी की. इन हिमालयी राज्यों में भी जंगल और हिमालय के प्रति जागरूकता पैदा करने का कार्य किया. यह एक ऐतिहासिक यात्रा रही. जिसने पर्यावरण चेतना को राष्ट्रीय स्तर पर उभारा.

उत्तराखंड में पर्यावरण और गांव समाज के अध्ययन के लिए अस्कोट, आराकोट अभियान ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई. सिनसयारुखाला में चूने की खान थी, यहां खनन होना था. इसके विरोध में एक बड़ी लड़ाई लड़ी जिस में भी कामयाबी मिली और वहां चूने की खदान मंजूर नहीं हुई.

चिपको के बाद गांव में ईधन का संकट हो गया. इसके लिए भी अहिंसक आंदोलन किया फिर बन निगम ने इलाके में लकड़ी की टाल खोली बाद में गैस की आपूर्ति शुरू की. देव संयोग से खाड़ी जाजल जैसे छोटे क्षेत्र में मैं, प्रताप शिखर और कुंवर प्रसून और विजय जड़धारी साथियों का मिलना हुआ और इस छोटे से क्षेत्र में हमने लगातार बहुत काम किया.

जिसमें लोगों का सहयोग भी मिला 1983 से प्रताप शिखर ने उत्तराखंड जन जागृति संस्थान के माध्यम से इलाके के गांव में बुनियादी विकास और गांव की स्थिरता के लिए बहुत बड़ा काम किया.

काम करने के लिए किसी बड़े शहर का किसी बड़ी जगह का होना जरूरी नहीं है यह बात हमारे साथियों ने साबित की. असमय ही कुंवर प्रसून और प्रताप शिखर का जाना समाज की बहुत बड़ी क्षति है. पुराने साथियों विजय जडधारी आज भी हौंसला देते हैं.

बीज बचाओ आंदोलन

पंतनगर तथा कई अन्य कृषि संस्थानों ने कृषि क्रांति के नाम पर जो हाइब्रिड बीज पहाड़ों को सप्लाई किए उन्होंने हमारी खेती और संस्कृति दोनों को नष्ट किया. किसानों ने महंगा बीज लिया लेकिन यहां की भौगोलिक परिस्थितियों में वह भी सरसब्ज नहीं हुआ.

कहीं फसल बहुत छोटी हुई, कहीं फसल पर बीज नहीं आया किसानों को भारी नुकसान हुआ. हाइब्रिड बीज का यह भी एक नुकसान था कि इसे हर बार बदलना पड़ता था. जिसमें किसान को बहुत बड़ी लागत चुकानी पड़ती थी. इस बीज के षड्यंत्र ने कृषि की लागत को बड़ा दिया, हमने अपने परंपरागत बीज और भंडार खो दिए. उन्हें बचाने के लिए हमने फिर से प्रयास किया और अपनी खेती को काफी हद तक बचा लिया.  

पर्वतीय क्षेत्र में अपने स्थानीय बीज को बचाने के लिए हमने आराकोट से अस्कोट तक रिवर्स बीज यात्रा निकाली. बीज को बचाने का आज भी सबसे बेहतर तरीका यही है कि एक घाटी से दूसरी घाटी एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक बीच लगातार अदला बदला जाए, जिससे बीज का स्वास्थ्य खराब नहीं होता और खेती भी खुशहाल रहती है.

कुल मिलाकर अपनी जीवन यात्रा से एक संतोष का भाव धूम सिंह नेगी जी के पास है. वह कहते हैं बड़ी महत्वाकांक्षा से हमारे बड़े दुखों का प्रारंभ होता है, हमें अपने परिवेश के साथ तालमेल बैठाकर अपना कर्म करते रहना चाहिए, रास्ता जरूर मिलता है.

कर्म करने के लिए गांधी से बेहतर कोई और रास्ता नहीं है यदि आप ताकत के रास्ते में भरोसा करते हैं तो तय मानिए अगले मोड़ में आप से अधिक ताकतवर बैठा है. जहां आपको मिटना होगा, भीतर से अहिंसा और प्रेम के प्रति हमारा विश्वास गहरा हो इसके लिए उपासना और उपवास का महत्वपूर्ण योगदान है.

वर्तमान में समाज के मौन से धूम सिंह नेगी जी चिंतित हैं, वह कहते हैं कि हमें बगैर इस बात की चिंता किए कि हमारे प्रतिकार का क्या प्रभाव होगा,  प्रभाव होगा भी या नहीं, इन सब बातों को छोड़कर अपनी अपनी सीमाओं में जो गलत है जो गलत दिख रहा है उसका विरोध जरूर करना चाहिए प्रतिकार से ही रास्ता निकलता है.

प्रमोद साह
हल्द्वानी में रहने वाले प्रमोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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Girish Lohani

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