‘कागज के फूल’ के न चलने की वजह से गुरुदत्त को न केवल आर्थिक रूप से बल्कि आत्मिक रूप से भी झटका लगा. उन्होंने ‘बाजी’ से लेकर ‘प्यासा’ तक एक से बढ़कर एक कामयाब फिल्में बनाईं थीं. पर जो फिल्म उनके दिल के सबसे करीब थी उसकी बड़ी असफलता ने उन्हें दर्शकों के प्रति भी कटु और शंकालु बना दिया. कागज़ के फूल के बाद गुरुदत्त ने फिर कभी निर्देशक के रूप में अपना नाम नहीं दिया.
गुरुदत्त का लक्ष्य कभी सफल बनना नहीं रहता था. वे कहा करते थे कि सफल फिल्म का निर्माण चुटकी बजाने जैसा है, कठिन है ऐसी फिल्म बनाना जो दिल के करीब हो. गुरुदत्त ने अपनी इस बात को चौदहवीं का चाँद में प्रमाणित भी किया.
तीन दोस्तों के प्यार और बलिदान की कहानी गुरु की एकदम घरेलू फिल्म की तरह थी जिसका निर्माण उन्होंने चंद महीनों में कर बाजार लूट लिया. गुरुदत्त के अतिरिक्त वहीदा रहमान, जॉनी वाकर, मीनू, मुमताज इसके प्रमुख कलाकार थे. इस फिल्म के निर्देशक एम.सादिक, गीतकार शकील बदायूंनी और संगीतकार रवि थे. कथाकार सगीर उस्मानी और संवाद लेखक ताबिश सुल्तानपुरी और छायाकार गुरुदत्त के सबसे प्रिय वी.के. मूर्ति की जगह नरीमन ईरानी थे.
प्यासा में वहीदा रहमान ने भले ही कितना ही श्रेष्ठ अभिनय क्यों न किया हो लेकिन कागज़ के फूल की असफलता के बाद उन्हें व्यावसायिक सिनेमा के लिये पूरी तरह अनुपयुक्त करार दे दिया गया. पूरी टीम चाहती थी कि ‘चौदहवीं का चाँद’ में मधुबाला हों लेकिन गुरुदत्त में यह साबित कर दिया कि उनकी चौदहवीं का चाँद वहीदा ही थीं.
गुरुदत्त के शब्दों में यह फिल्म उन्होंने दर्शकों से बदला लेने के लिये बनाई थी. व्यावसायिक रूप से यह फिल्म अत्यंत सफल रही जिसने मुगल-ए-आज़म जैसी फिल्म के मुकाबले शानदार बिजनेस किया. इसके शीर्षक गीत ने तो लोकप्रियता में उस समय मुग़ल-ए-आजम के प्यार किया तो डरना क्या का सिंहासन तक हिला दिया. मुहब्बत और दोस्ती के अंतर्संघर्ष पर बनी फिल्मों में इस फिल्म का मुकाम बहुत ऊँचा है लेकिन गुरुदत्त ने इसे अपनी रचनात्मकता में कोई स्थान नहीं दिया.
वसुधा के हिंदी सिनेमा बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक के आधार पर.
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