ओलंपिक खेलों के दौरान घर के सबसे छोटे बच्चे की नज़र से मैच, ख़ासकर हॉकी, देखना अजब गुदगुदा देने वाला अनुभव होता है. पापा. सबसे उत्सुक और उत्साह से लबरेज़ बच्चा. उन्हें हॉकी मैच देखते देखना दर्शनीय है. वो टीवी के सामने पालथी मारकर बैठते हैं और एक सुंदर पास, एक सुंदर ड्रिबल सीक्वेंस या एक सुंदर स्कूप पर उनके चेहरे की रेखाएं उतनी ही तेज़ी से बनती-बिगड़ती हैं जितनी तेज़ बॉल ग्राउंड पर फिसलती है. गोलपोस्ट के आस-पास बन रहे मूव का चेहरे पर चल रहे भावपूर्ण अंदाज़ का शाब्दिक अनुवाद `ले जा… ले जा… ले जा’ के रूप में निकलता है और अगर खिलाड़ी वाकई `ले जाने’ में सफल हुए तो दाहिना हाथ जांघ पर बज उठता है धाप!– `बा पट्ठे!’
(Vivek Singh Hockey Player)
जहां तक मुझे याद है इस दर्शनीय दृश्य पर नज़र अट्ठासी के सियोल ओलंपिक के दौरान पड़ी उसके पहले उनकी रगों में दौड़ते हॉकी प्रेम को महसूस कर सकने में सम्भवतः हमारी उम्र गवाही नहीं दे रही होगी. उस बरस ओलम्पिक में भारतीय टीम छटवें स्थान पर आई थी जो हल्का–फुल्का मोराल बूस्टर टाइप था क्योंकि दो साल पहले हुए वर्ल्ड कप में टीम आख़िरी पायदान पर लुढ़क गई थी. हालांकि पहले ही मैच में रसिया से पिट जाने के बाद हमारी नई-नई जन्मी रूचि तो ओलावृष्टि की शिकार हो गयी क्योंकि हम देश के लिए खेल देखते थे, पर पापा ने फाइनल तक अपनी कमेंटरी ज़ारी रक्खी क्योंकि वो `खेल’ के लिए खेल देखा करते थे.
उस ओलम्पिक में एक खिलाड़ी पर हम सब की नजर टिकी थी– विवेक सिंह, जिन्हें बाद के सालों में जसदेव सिंह `ओलंपियन विवेक’ पुकारा करते. हर बार. जितनी बार भी वो स्क्रीन पर दिखते, चाहे बॉल ने उनकी स्टिक को महज़ चूमने भर की ज़हमत की हो तब भी उनके शब्द होते– ‘बॉल ओलंपियन विवेक के पास…’
हमारे लिए विवेक का महत्व इसलिए था क्योंकि पापा ने बताया था कि विवेक के पिताजी गौरी शंकर सिंह और पापा किसी टूर्नामेंट में एक साथ खेला करते थे. गोरखपुर विश्व विद्यालय की अंतर्महाविद्यालयी प्रतियोगिता, पचास के दशक का उत्तरार्ध. पापा सेंटर फॉरवर्ड खेलते थे. घर-गृहस्ती की चक्की में पिसने से पूर्व का काल था ये. कहते हैं पापा यानी घर के बड़े भाई साहब यानी, बड़का भइय्या, उन दिनों के और घरों के बड़के भइय्या जैसे ही थे जो तमाम टैलेंट होते हुए भी आखिर में वकालत कर लेते थे. वकील होने से पहले बड़का भइय्या हॉकी खेलते थे और बढ़िया खेलते थे. फुटबॉल खेलते थे और बढ़िया खेलते थे. सौ–दो सौ और चार सौ चालीस मीटर रेस में उनकी बराबरी का कोई न था. इस बात की तस्दीक हमारे घर के रोशनदान पर आज भी धूल फांक रहे पीतल के आलीशान कप किया करते हैं. `बीच मईदान से अंखिया बंद कई के मारें भइय्या बाल, सीधे गोलपोस्ट में!’ बड़े गर्व से बताते थे छोटे भाई बंद.
(Vivek Singh Hockey Player)
गौरी शंकर सिंह ने वकालत नहीं की. टीचिंग की और अपने शौक़ को ज़िंदा रक्खा. बच्चों को ट्रेन किया. उसकी बदौलत उनके खुद के बच्चों ने भी खेल की ज़मीन नहीं छोड़ी. यही कारण था कि लगभग दो दशक तक विवेक भारतीय हॉकी टीम के एक मजबूत सेंटर हॉफ खिलाड़ी की भूमिका ज़िम्मेदारी से निभाते रहे. हॉकी की सेंटर हाफ पोजीशन बहुत महत्व की इस लिहाज़ से मानी जाती है कि वो फॉरवर्ड खेल रहे खिलाडियों को आगे बढ़ने का आधार देती है तो वहीं डिफेन्स में लगे खिलाड़ियों को भी सही तरीके से बैक अप देती है. विवेक मजबूत रीढ़ की तरह सेंटर हॉफ की पोजीशन संभालते थे. दो सौ से ज़्यादा अंतर्राष्ट्रीय मैचों में प्रतिनिधित्व करने वाले विवेक ने सियोल ओलंपिक के बाद बर्लिन में हुई चैंपियंस ट्राफी में अच्छा प्रदर्शन किया फिर लाहौर वर्ल्ड कप 1990 और 1990 में ही हुए बीजिंग एशियाड में देश के लिए सिल्वर मैडल ले आने में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कई अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय मैचों में खेल की अपनी कलात्मकता और धैर्य से विवेक सिंह ने भारत की जीत में नींव की भूमिका निभाई. हालांकि वो भारतीय हॉकी के सरपट उतराई के दिन थे.
विवेक सिंह को साल 2000 के आस-पास कैंसर जैसी ख़तरनाक बीमारी ने आ घेरा. बत्तीस–तैंतीस की उम्र में. उनके दोस्त हॉकी प्लेयर नागेन्द्र सिंह के अनुसार करीब दस साल पहले किसी प्रैक्टिस सेशन में उन्हें कोई अंदरूनी घाव लगा था जिसने संभवतः धीरे-धीरे कैंसर सूरत अख्तियार कर ली. पाँच एक साल तक वो इस बीमारी के साथ किसी कुशल खिलाड़ी की तरह ही जूझते रहे. कभी ‘ड्राइव’, कभी ‘फ्लिप’ कभी ‘क्लियर’ करते रहे. मानो उनके शरीर और बीमारी के ठीक बीच सेंटर हाफ पर उनकी जिजीविषा किसी दीवार की तरह खड़ी हो. 2 जनवरी 2005 को आख़िर इस बीमारी ने `जिंक’ करते हुए इस मजबूत सेंटर हाफ को चकमा दे ही दिया!
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में 2011 का सर्वश्रेष्ठ नॉन फीचर फिल्म का स्वर्ण कमल पुरस्कार जीतने वाली एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म है `एंड वी प्ले ऑन’ जो विवेक सिंह उनके पिता और पूरे परिवार पर बनाई गयी है. गौरी शंकर सिंह उनकी पत्नी, उनके छः लड़के और बहुएं भी अलग-अलग खेलों में अंतर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय स्तर पर खेल चुके हैं. बनारस का ये परिवार एक भरा-पूरा खेल घराना है. हॉकी का बनारस घराना. फिल्म, निर्माता और फाइनेंस के अभाव में आज तक थियेटर में रिलीज़ होने की बाट जोह रही है. अपने देश में मसाला फिल्मों के बीच डाक्यूमेंट्री फिल्म, क्रिकेट के बीच नॉन क्रिकेट खेलों की तरह ही है.
`अलग-अलह तरीके से ही सही एक दिन तो सबको मरना है. मैं खुशकिस्मत हूँ कि मुझे मेरी मृत्यु के तरीके के बारे में पूर्व सूचना दे दी गयी है. जंग जारी है. मेरी बीमारी आक्रामक है, लेकिन मैं भी उतना ही आक्रामक हूँ.’ किसी प्रश्न के जवाब में ये विवेक सिंह के शब्द हैं, अपनी मृत्यु के कुछ समय पहले. ऐसा जवाब कोई मर जाने वाला इंसान तो नहीं ही दे सकता.
(Vivek Singh Hockey Player)
विवेक सिंह अपने देखे हुए सपनों में ज़िन्दा हैं उन सैकड़ों बच्चों की आँखों में जो ‘विवेक सिंह मेमोरियल क्रिकेट एंड हॉकी एकेडमी’ में रोज़ पसीना बहाते हैं. क्या ये कहने का अब भी कोई औचित्य है कि, अकादमी बिना किसी सरकारी मदद के गौरी शंकर सिंह ने सेवा निवृत्ति के बाद मिले पी एफ के पैसों से बनाई है और आज भी वहां निःशुल्क प्रशिक्षण शिविर चलते हैं.
ख़ैर! कोई उनके पास ये बात पहुंचा देता कि कन्हैया बाबू को उनके बाबत ये सारी बात बताई है हमने और इसे सुनते उनके चेहरे के भाव वैसे ही बन–बिगड़ रहे थे जैसे वो गेंद मैदान पर ड्रिबल करते थे–इंडियन ड्रिबल. और हां स्टेडियम वाली बात पर अभी–अभी उनका दाहिना हाथ जांघ पर बज उठा है– धाप! ‘बा पट्ठे!’
विवेक सिंह अगर सशरीर ज़िन्दा होते तो हम आज एक अगस्त को उनका चौसठवां जन्मदिन मना रहे होते.
(Vivek Singh Hockey Player)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
जौनपुर में जन्मे अमित श्रीवास्तव उत्तराखण्ड कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं. अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता), पहला दख़ल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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