Featured

टोपी पहना दी जाती है तो कभी पहननी पड़ जाती है

टोपी का भी अपना इतिहास है. क्षेत्र व समुदाय से लेकर अपनी अलग पहचान बनाने के लिए भी टोपी पहनने का रिवाज रहा है. बाॅलीवुड से लेकर कविता हो या शायरी या फिर मुहावरा, टोपी कहीं नहीं छूटी है. हर जगह दमदार उपस्थिति है टोपी की. उत्तराखंड में भी खास तरह की टोपी पहनने की परंपरा रही है, लेकिन पड़ोसी राज्य हिमाचल की तरह कोई पहचान नहीं बन सकी है. अक्सर बुजुर्ग सफेद या काली टोपी पहने दिख जाते हैं. माना जाता है कि 18वीं सदी से उत्तराखंड में टोपी पहनने का प्रचलन बढ़ा.

उत्तराखंड में जब बात टोपी की आती है, तो उत्तराखंड के एक राजनेता का नाम जुबान पर आ ही जाता है. यह नाम है पूर्व शिक्षा मंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी का, जो हमेशा टोपी पहने रहते हैं. इनकी टोपी का आगे की पटटी का रंग अधिकांश हरा ही रहता है. बाकी हिस्से का रंग बदलते रहता है. वैसे उनकी टोपी हिमाचली टोपी की तरह मिलती है.

आखिर एक ही तरह की टोपी को हमेशा क्यों पहने रहते हैं मंत्री प्रसाद नैथानी, इसका भी दिलचस्प वाकया है. वह खुद बताते हैं, जब वह काॅलेज में पढ़ाई कर रहे थे. उत्तरकाशी में एक जगह सभा हो रही थी. उन्होंने भी युवा जोश के साथ भाषण दिया. उनके भाषण से सभा में मौजूद स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंदन सिंह राणा प्रभावित हो गए. उन्होंने अपने सिर से टोपी उतारी और नैथानी जी को पहना दी और कहा, इस टोपी को कभी मत उतारना. कई साल बीत गए हैं. लेकिन मंत्री प्रसाद जी ने उनकी बात गांठ बांध ली और टोपी पहने रखी. अपनी राजनीतिक कॅरियर से लेकर जगदीशिला डोली धार्मिक यात्रा निकालने के लिए वह प्रसिद्ध हैं. अब उनकी टोपी ही उनकी खास पहचान बन गई है.

वैसे तो पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी व भगत सिंह कोश्यारी भी टोपी पहनते हैं. तिवारी जी की टोपी गांधी टोपी की तरह है, तो कोश्यारी जी की टोपी उत्तराखंडी टोपी की तरह है. कुछेक और नेता है, जो टोपी पहनते हैं. इन्हें भी किसी ने पहनाई या फिर खुद ही पहनने लगे…ये तो अभी स्पष्ट नहीं है.

भले ही कुछ नेताओं ने अपने राजनीतिक हित को साधने के लिए टोपी पहने रखी, लेकिन हमेशा दूसरों के सिर पर टोपी पहनाने वाले उत्तराखंड के नेता उत्तराखंडी टोपी को पहचान नहीं दिला सके. यहां तक कि राज्य के किसी उत्पाद को भी विधिवत रूप से देश-विदेश में पहचान दिलाने में भी नाकाम ही रहे. अब कुछेक बुजुर्गों को छोड़ दें तो नई पीढ़ी अपनी पारंपरिक टोपी पहचानती तक नहीं.

जब बात टोपी की हो रही है, तो कुछ और चर्चा कर ली जाए. उत्तराखंड में देहरादून जिले के मसूरी में पिक्चर पैलेस रोड पर बालाहिसार में समीर शुक्ला और कविता शुक्ला का निवास स्थाान है, जो अब सोहम आर्ट एंव हेरिटेज सेंटर के नाम से प्रचलित है. उत्तराखंड की टोपी के लिए उन्होंने हिमालय क्षेत्र में घूमकर रिसर्च किया है। उसी टोपी को नए कलेवर में पेश किया है. इसका मकसद है कि युवाओं को उत्तराखंडी टोपी के प्रति आकर्षित किया जा सके.

शुक्ल दंपति ने उत्तराखंडी टोपी को तीन रंग में तैयार किया है. पारंपरिक स्वरूप को यथावत रखते हुए उसमें राज्य पुष्प ब्रह्मकमल का ब्रांच तथा विभिन्न रंगों की एक पट्टी स्मृति चिन्ह के रूप अंकित किया है.

इसके अलावा भारत में अधिकांश जगह गांधी टोपी का प्रचलन है, इस टोपी का आविष्कार गांधी जी ने तो नहीं किया, लेकिन उनके पहनने के बाद टोपी की लोकप्रियता बढ़ गई. दरअसल, अंग्रेजी शासनकाल के समय जेल में भी भेदभाव किया जाता था. अंग्रेज भारतीयों को टोपी पहनाते थे. महात्मा गांधी ने कुछ समय तक यह टोपी पहने रखी, ताकि लोगों को अंग्रेजों के भेदभाव के बारे में बताया जा सके.

गांधी जी के बाद पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री व मोरारजी देसाई की पहचान भी गांधी टोपी से रही है, लेकिन इसके बाद धीरे-धीरे यह टोपी प्रचलन से बाहर हो गई. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ता इस टोपी को पहनते हैं. समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं की टोपी भी इसी तरह की है, लेकिन उसका रंग लाल है.

2011 में एक बार फिर प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद गांधी टोपी दिखने लगी. आंदोलन से खुद को जोड़कर आम लोग भी टोपी पहनने लगे. बाद में इस आंदोलन से अलग होकर आम आदमी पार्टी बनाने वाले अरविंद केजरीवाल ने इस टोपी को ही अपना प्रतीक बना लिया.

वैसे अब इस तरह की टोपी को पहनना पाॅलिटिकल फैशन बन गया है. खुद को योग्य नेता दिखाने या फिर आम आदमी से खुद को कनेक्ट करने का दिखावा करने के लिए भी इस तरह की टोपी पहनी जाती रही है. वोटों के तुष्टिकरण को लेकर भी टोपी पहनने-पहनाने या न पहनने को लेकर भी नेता खूब सुर्खियां बटोरते रहे हैं.

मुस्लिम परंपरा में भी सिर पर टोपी पहनने का प्रचलन है. सामान्य दिनों से लेकर खास अवसरों पर मुस्लिम जालीनुमा टोपी पहने दिख जाते हैं. इस्लाम धर्म की शुरुआत सऊदी अरब से हुई. जाहिर सी बात है, प्रचार-प्रसार भी वहीं से हुआ होगा. वहां की संस्कृति को इस्लाम धर्म से जोड़ दिया गया. सऊदी अरब में गर्मी बहुत अधिक है, तेज धूप से बचने के लिए लोग सिर ढककर रखते हैं. साथ ही रेत के कण बालों में न फंसें, इसके लिए भी टोपी पहनना पड़ा. धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ी. टोपी पहनना पहचान के रूप में विकसित हो गई. नमाज पढ़ते समय भी टोपी पहनी जाने लगी. और सफेद रंग की जालीनुमा टोपी धार्मिक कार्यों का अहम हिस्सा हो गई.

गणेश जोशी
हल्द्वानी निवासी गणेश जोशी एक समाचारपत्र में वरिष्ठ संवाददाता हैं. गणेश सोशल मीडिया पर अपनी ‘सीधा सवाल’ सीरीज में अनेक समसामयिक मुद्दों पर ज़िम्मेदार अफसरों, नेताओं आदि को कटघरे में खड़ा करते हैं. काफल ट्री के लिए लगातार लिखेंगे.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

19 hours ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

19 hours ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

6 days ago

साधो ! देखो ये जग बौराना

पिछली कड़ी : उसके इशारे मुझको यहां ले आये मोहन निवास में अपने कागजातों के…

1 week ago

कफ़न चोर: धर्मवीर भारती की लघुकथा

सकीना की बुख़ार से जलती हुई पलकों पर एक आंसू चू पड़ा. (Kafan Chor Hindi Story…

1 week ago

कहानी : फर्क

राकेश ने बस स्टेशन पहुँच कर टिकट काउंटर से टिकट लिया, हालाँकि टिकट लेने में…

1 week ago