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भट के डुबके – इक स्वाद का दरिया है और डुबके जाना है

पहाड़ के जायके – 1

पढ़ाई-लिखाई पूरी करने के बाद वर्ष 1990-91 में पत्रकारिता की सांस्थानिक नौकरी में चला गया. पहले जिला चमोली के मुख्यालय गोपेश्वर और उसके बाद मेरठ. अखबारों की नौकरी में छुट्टी मिलना बेहद ही मुश्किल भरा काम है. साल भर में तीन-चार ही ऐसे मौके होते, जब आपको तीन-चार दिन की इकट्ठा छुट्टी मिल पाती है. इस छुट्टी के मिलते ही बंदा यूं भागता है, जैसे खूंटे से बंधा हुआ बछड़ा. चूंकि छात्र जीवन में छात्र राजनीति में भी सक्रिय था तो मित्रों की फेहरिस्त काफी लंबी थी और अब इसमें शहर के पत्रकार भी जुड़ गए थे, लिहाजा इन तीन-चार दिन की छुट्टियों में इस फेहरिस्त के चार-छह लोगों से ही मिलना हो पाता था. इनमें से जो अधिक आत्मीय थे, उनके साथ ही खाना-पीना और कई बार रात को उनकी ही छत पर सिगरेट के सुट्टे मारते हुए और खोया-खोया चांद, खुला-खुला आसमान- आंखों में सारी रात रात जाएगी य़ा फिर सुहानी रात ढल चुकी, ना जाने तुम कब आओगे गुनगुनाते हुए सो जाना. इन तीन-चार दिनों के बीच किसी एक रात घर पर सोना हो गया तो सोते वक्त मां पूछ लेती – “अगर तुझे कल सुबह घर पर ही खाना है तो भट्ट भिगा देती हूं.” मां को ये भली-भांति ज्ञात था कि मुझे बचपन से ही गिंजड़ू विशेष पसंद है और जिस दिन ये बनता है कि उस दिन मेरे दोपहर के भोजन की मात्रा दो करछी बढ़ जाती है. (Uttarakhandi Kumaoni Garhwali Food)

इस गिंजड़ू को खाते हुए मैं बच्चे से बड़ा हो गया. लेकिन ये गिंजड़ा ही कुमाऊं में डुबके होता है, इसका पता तब लगा जब अखबार की दुनिया में पहली बार एक मुफ्त वाली नौकरी लगी. उससे पहले स्कूली जीवन में अधिकारी, उप्रेती आदि सहपाठी जब कभी मध्यांतर के समय उस दिन के खाने में डुबके खाकर आने का जिक्र करते तो मेरे दिमाग में डुबके की जो तस्वीर उभरती थी वो गोलगप्पे जैसी थी, जो पानी में डुबाकर खाए जाते हों या फिर मुस्लिम समुदाय में रोजा इफ्तारी के वक्त खिलाए जाने वाली मट्ठा फुल्की. गिंजड़े के ही डुबके होने का रहस्योद्घाटन किया … बिष्ट नाम की लड़की ने. मूलतः अल्मोड़ा जिले की रहने वाली ये लड़की भी बिजनौर शहर में उसी अखबार में कंप्यूटर टाइपिस्ट की नौकरी करती थी, जिसके संपादकीय विभाग में मैं आठ-नौ महीने तक मुफ्त में कलम घिसता रहा. तब अविभाजित उत्तर प्रदेश था और किसी मैदानी जिले में कोई पहाड़ी साथी मिल जाए तो खुद ब खुद आत्मीयता स्थापित हो जाती थी. (Uttarakhandi Kumaoni Garhwali Food)

बिजनौर जैसे ठेठ मैदानी शहर में अपने ही दफ्तर में एक पहाड़ी साथी का मिल जाना उसके लिए यूं था, जैसे रेगिस्तान में भटकती मृगी को अथाह जलराशि का स्रोत दिख जाए. वह मेरे निकट आने के लिए अनेक जतन करती रहती. कभी मेरी लिखी कॉपी का प्रूफ दिखाने मेरे पास आ जाती तो कभी यह कहकर संपादकीय विभाग में पहुंच जाती कि खाली बैठी हूं अगर तैयार हो तो टाइपिंग के लिए मैटर दे दो. उसकी चंचल आंखें और वाणी में घुली अतिरिक्त मिठास उसकी मेरे प्रति आसक्ति की चुगली करते. इसे मैं बखूबी समझ रहा था और मेरे दूसरे छिद्रान्वेषी सहकर्मी भी ताड़ रहे थे, लेकिन उन दिनों हम पत्रकारिता के नए-नए मुल्ले थे और हम पर खबर रूपी ज्यादा से ज्यादा प्याज खाने की धुन सवार थी. सो उसकी आसक्ति का रंग न चढ़ सका. लड़की के पिता का हमारे दफ्तर के बगल में ही छोटा सा ढाबा था. उस ढाबे में चाय, नाश्ता, दोपहर व रात का भोजन तुलनात्मक रूप से सस्ते दामों पर उपलब्ध था तो हमारे दफ्तर के छड़े-छांटे और कुछ दूसरे लोग भी इस ढाबे में खाना खाया करते थे. ढाबे के ही पिछले हिस्से में इस परिवार का निवास भी था.

अल्मोड़ा जिले के लोद में गोपाल सिंह रमोला के मशहूर भट के डुबके. फोटो : अशोक पाण्डे

गिंजड़ा ही कुमाऊं में डुबके होता है

लड़की ने अपने मेनकाई, रंभाई प्रयासों की कड़ी में अपना अंतिम अस्त्र चलाया और एक दिन यह कहते हुए मुझे अपने घर पर खाने के लिए आमंत्रित किया कि आज आपको घर पर कुमाऊं की फेवरिट डिश खिलाऊंगी. घर पर कन्या ने अपनी मां से परिचय करवाते हुए अपनी भावनाओं के अनुरूप मेरी तारीफ में कसीदे पढ़े. उसके बाद भोजन परोसा गया तो मैं छूटते ही बोला – “अरे ये तो गिंजड़ू है.” वो बोली – “इसे हमारे यहां डुबके कहते हैं.” वर्षों बाद मेरे लिए इस रहस्य का उद्घाटन हो गया कि गिंजड़ू ही डुबके होता है. खैर, इस भोजन के न्योते के बाद भी इश्क की आग का दरिया तो नहीं बह पाया, पर डुबके इतने बढ़िया बने थे कि स्वाद का दरिया बह निकला और मैंने इसमें ‘डुबके’ इसकी गहराई को जाना.

कालांतर में भोजनशास्त्र में मेरा शोध आगे बढ़ता गया तो पता चला ये डुबके ही कुछ इलाकों में भटिया है तो कुछ जगहों पर इसे भटवाणी भी कहा जाता है. चमोली जिले के पूर्वी हिस्सों में यह गांजड़ू या गांजूड़ हो जाता है. बचपन में मां हमें इसे खाने के लिए प्रेरित करते हुए कहा करती थी कि इसे खूब खाना चाहिए क्योंकि इसमें काफी प्रोटीन होता है और इसके खाने से ताकत आती है. बाद में भारतीय आहार एवं पोषण विज्ञान पर कुछ पुस्तकें पढ़ी तो मालूम चला कि मेरी अल्पशिक्षित मां की जानकारी आहार विज्ञान की इन पुस्तकों में लिखी बातों से कम नहीं थी. आहार विज्ञान की ये पुस्तकें बताती हैं कि लगभग आधा पाव भट्ट से हमें 119.6 कैलोरी की प्राप्ति होती है. इस प्राप्त कैलोरी में 34 प्रतिशत हिस्सा प्रोटीन प्रदत्त कैलोरी का होता है.

सोयाबीन की 250 प्रजातियों में से एक यह ब्लैक सोयाबीन पहाड़ में आकर न जाने कब और कैसे भट्ट हो गया, इसका कोई ज्ञात इतिहास नहीं है. कभी-कभी सोचता हूं कि शायद सबसे पहले कभी कोई भट्ट जी इसका बीज लेकर आए होंगे तो लोग इसे भट्ट की दाल कहने लगे होंगे. पहले पहाड़ों पर चपटे भट्ट प्रचलन में थे. पिछले कुछ वर्षों में ब्लॉक के माध्यम से किसानों को सफेद सोयाबीन की गोलाई से मिलते-जुलते भट्ट का बीज बांटा गया. तब से अधिकांश किसान इस गोल वाले भट्ट को ही अधिक उगा रहे हैं. इस कारण चपटे भट्टों की पैदावार कम हो गई और अब ये कहीं-कहीं काफी महंगे दामों पर ही मिल पाते हैं.

हालांकि मेरी नजर में दोनों की ही पौष्टिकता व स्वाद में कोई खास फर्क नहीं है. दुनिया के बहुत से मुल्कों में पैदा होने वाले भट्ट का उपयोग दूसरी जगहों पर अधिकांशतया बच्चों का पुष्टाहार या फिर मिल्क व मिल्क प्रोडक्ट्स बनाने में किया जाता है, लेकिन इसके नाना प्रकार के उपयोग उत्तराखंड में ही संभव हो सके हैं. आप इसकी चुटकाणी बनाइए. बेडू रोटी बनाइए. सर्दियों में भूजकर खाइए. लेकिन इन सबके बीच भट्ट की सबसे अधिक आनंद प्रदान करने वाली कोई डिश है तो वो डुबके ही है. शायद यही कारण है कि इसके दूसरे उपयोगों में यह सर्वाधिक लोकप्रिय है और अल्मोड़ा जिले के लोद में गोपाल दा मात्र डुबके व भात बेचकर ही अपने पूरे परिवार का भरण-पोषण कर लेते है.

अच्छे स्वाद पर सबका हक है, मगर इस स्वाद को हासिल करने के लिए थोड़ा समय चाहिए होता है और थोड़ा कष्ट भी उठाना पड़ता है. डुबके का स्वाद लेना है तो कम से कम एक घंटा एकाग्रचित होकर चूल्हे पर खड़े होने का कष्ट उठाइए. उससे पहले निम्न सामग्री जुटाइए और फिर देखिए कैसे स्वाद का दरिया बह निकलता है.

आवश्यक सामग्री (चार-पांच लोगों के लिए)

काले भट्ट- 250 ग्राम
चावल- 50 ग्राम
खाद्य तेल- 50 ग्राम
लहसुन का पहाड़ी पिसी नूण- स्वादानुसार
गंधरायण- चने के दाने बराबर
देसी घी- दो चम्मच
हींग- एक चुटकी
जम्बू- एक ग्राम
हरा धनिया- गार्निशिंग के लिए

बनाने की विधि

अगली सुबह बनाने के लिए पहली रात को भट्टों को पानी में भिगो लिजिए. अगली सुबह इन्हें पीसने से पहले चावलों और गंधरायण को भी भिगो लीजिए. भट्ट पीसने से पूर्व उनका पानी निथार लें. सिलबट्टे पर या ग्राइंडर में इन्हें दरदरा पीस लें. गंधरायण के टुकड़े को भी साथ में ही पीस लें. अब अलग से चावलों को भी पतला पीस कर एक बर्तन में रख लें. पीसे हुए भट्टों में थोड़ा पानी मिलाकर इसे थोड़ा सा पतला कर लें. एक जग भर कर पानी चूल्हे के बगल में रख लें.

अब चूल्हे पर गहरी कड़ाही चढ़ाकर उसमें खाद्य तेल को गर्म कर लें. तेल गर्म होने पर भट्ट के घोल को हल्के-हल्के उसमें डालिए. इस घोल को तेजी से करछी से घुमाते हुए भूनते रहिए ताकि इसके थक्के न जमने पाएं. जब यह घोल कड़ाही में मौजूद तेल को पूरा अपने में जज्ब कर ले तो जग से इसमें धीरे-धीरे पानी डालना शुरू कीजिए और साथ ही करछी से चलाते रहिए. करछी से चलाते रहने का कारण ये है कि घोल की गांठें नहीं बननी चाहिए. जब घोल एकसार व पतला हो जाए तो उसमें चावलों का पेस्ट भी डाल दीजिए. कड़ाही को पानी से लबालब भर लें. इसे मद्धम आंच में काफी देर तक पकने दीजिए.

डुबके बनाने की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आप चूल्हे से इधर-उधर नहीं होने चाहिए. उसकी वजह यह है कि डुबके कड़ाही के तल में लगते रहते हैं, इसलिए इसमें लगाता करछी चलाते रहिए. इसके अलावा आंच तेज होने पर यह उबाल मार कर कड़ाही से नीचे गिर जाता है. लिहाजा करछी चलाने के साथ-साथ इसमें आंच को भी कम-ज्यादा करते रहना पड़ता है. पकाते-पकाते जब डुबके का पानी कड़ाही में आधे से भी कम हो जाए और इसके ऊपर से मलाईदार परत जमने लगे तो समझ लीजिए डुबके बनकर तैयार हैं. अब चूल्हे को बंद कर दें. एक करछी में देसी घी गर्म कर उसमें हीं व जम्बू का तड़का बनाकर उसे डुबकों के ऊपर मारें. अंत में पहाड़ी पिसी नूण डालकर उसे मिलाएं और अंत में हरे धनिया से गार्निश करें. डुबकों में नमक सबसे आखिर में डालने का कारण यह है कि खौलने की प्रक्रिया के दौरान अगर इसमें नमक डाला जाए तो इसमें निहित दुग्ध तत्वों की उपस्थिति के कारण डुबके फटकर खराब हो सकते हैं.

तो लीजिए गर्मागर्म डुबके बनकर तैयार हैं. इन्हें भात के साथ जमकर भकोसिए. टपकिया में आलू के गुटके से लेकर लाही की सब्जी तक कुछ भी चल सकता है, लेकिन अगर ऊपर से दो चम्मच घी पड़ जाए तो स्वाद का परिमाण बढ़ना निश्चित है.

 

चंद्रशेखर बेंजवाल लम्बे समय  से पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं. उत्तराखण्ड में धरातल पर काम करने वाले गिने-चुने अखबारनवीसों में एक. ‘दैनिक जागरण’ के हल्द्वानी  संस्करण के सम्पादक रहे चंद्रशेखर इन दिनों ‘पंच आखर’ नाम से एक पाक्षिक अखबार निकालते हैं और उत्तराखण्ड के खाद्य व अन्य आर्गेनिक उत्पादों की मार्केटिंग व शोध में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. काफल ट्री के लिए नियमित कॉलम लिखेंगे.

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  • बहुत बढ़िया चंद्रशेखर जी अबकी बार भट के डूबके जरूर भागोसैंगे बहुत-बहुत धन्यवाद

  • दाज्यू उस मेनकाई, रंभाई प्रयासों की कड़ी में क्या हुआ वो भी लिख देते हो, आजकल वो भी पठनीय ठैरा भल

  • आज मैं गोपाल सिंह रमोला जी सामने खड़ा हूँ और अपने सामने ही भट के डुबके बनते देख रहा हूँ।

    धन्यवाद आपका

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