9 नवम्बर 2000 आख़िर वो दिन आ ही गया जिसका हर उत्तराखंडवासी को इंतज़ार था. एक लम्बे संघर्ष के बाद पृथक राज्य का निर्माण हुआ. सबकी ऑंखों में एक ही सपना तैरता था कि अपना अलग पहाड़ी राज्य होगा जिसे हम अपने हिसाब से सजाएँगे और संवारेंगे लेकिन अपनी पैदाइश से लेकर 18 साल की युवावस्था तक आते-आते राज्य को लेकर देखे सपने बस ऑंखों में ही रह गए. न तो राजनीतिक स्थिरता देखने को मिली और न ही लोगों में राज्य निर्माण के बाद उसे खुद में आत्मसात करने की जिजीविषा. संसाधनों का अंधाधुँध दोहन किया गया और माफियाराज ने बंदरबाँट मचाई सो अलग. राज्य निर्माण के समय पहाड़ों की ख़ूबसूरती को हमने कुछ यूँ देखा था-
एक तरफ़ पहाड़, दूसरी ओर नदी,
इनके बीचोंबीच सड़क गुज़रती है.
पहाड़ों की टेढ़ी-मेढ़ी सड़कें,
हाथ की रेखाओं सी चलती हैं.
हर-क़दम हर-मोड़ पर,
मंज़िल बदलती हैं.
दूर गाँवों को जोड़ती हुई,
कई मीलों तक चढ़ती हैं.
कुछ सड़कें सरपट नीचे दौड़ रही,
कुछ हिमालय की तरफ़ बढ़ती हैं.
पहाड़ के सीने पर बनी सड़कें,
अपने सीने पर सबका बोझ ढोती हैं.
खुद की मंज़िल से अंजान सड़कें,
सबको मंज़िल तक छोड़ती है.
इस ख़ूबसूरती को सैलानियों ने तो ख़ूब पहचाना पर समय बीतने के साथ-साथ हम इसे भुलाते गए. पहाड़ों में बसी आबादी ने अपने घरों को छोड़ शहरों और मैदानी इलाक़ों की ओर पलायन किया जिसका दर्द विरान हुए उन घरों में गूँजती इन पंक्तियों में आज भी महसूस किया जा सकता है-
पहाड़ों में घर हैं लेकिन,
घरों में लोग नहीं.
बंद दरवाज़े, उनमें ताले,
गहन सन्नाटा, शोर नहीं.
सूना आँगन, बंजर ज़मीं,
ख़ाली खेत, कोई पौर नहीं.
सिकुड़ते गॉंव, दरकते घर,
ख़बर नहीं, कोई खोज नहीं.
नारंग, पूलम, काफ़ल के पेड़,
हैं लेकिन, खाने को लोग नहीं.
कुछ घर खुले हैं, बुज़ुर्गों के दम पर,
कब बंद हों जाएँ, कोई गौर नहीं.
आख़िर क्यों है ये सब पहाड़ों में,
कि कोई अपनी ठौर नहीं.
पलायन ने यूँ क़हर बरपाया कि,
पहाड़ वीरान हुए कुछ और नहीं.
जो लोग आज भी पहाड़ों में प्रहरी की तरह बसे हुए हैं उनकी जीवटता को सलाम हैं लेकिन वो सब भी अपनों की बाट जोहते तरसते रहते हैं. पहाड़ों में रहने वाले किसी नए शादीशुदा जोड़े में से जब पत्नि की नौकरी किसी मैदानी क्षेत्र में लग जाती है तो पति अपनी पत्नी के विरह में उसे लिखता है-
इन पहाड़ों में अब दिल नहीं लगता,
क्यों ? पूछती हो तुम तो बताता हूँ,
तुम्हारी हँसी अब यहाँ नहीं गूँजती,
न इन फूलों से ख़ुशबू तुम्हारी झरती है,
ये नदियां जो अविरल बहती हैं,
अब तुम सी पवित्र नहीं लगती,
कोयल अब यहां नहीं कूकती,
न फूलों में भँवरे मँडराते हैं,
तुम्हारी पाज़ेब की खनक के आदी,
अब ये पंछी भी आँगन में नहीं आते हैं,
तुम्हारे बारे में पूछकर सब चले जाते हैं,
गॉंव के लोग भी अब कहॉ मिलने आते हैं,
सोचता हूँ पहाड़ों से उतरकर नीचे आ जाऊँ,
क्यों? पूछती हो तुम तो बताता हूँ,
इन पहाड़ों में अब दिल नहीं लगता.
पहाड़ों में विकास के नाम पर सिर्फ विनाश को दावत दी गई. कहां तो सतत विकास का सपना देखा था लेकिन विकास का मॉडल ऐसा बनाया गया न तो उससे गंगा अछूती रही न जंगल और न ही पहाड़. चार धाम महामार्ग के नाम पर ऑल वैदर रोड का काम प्रारम्भ किया गया और पहाड़ों की दुर्दशा कर दी गई जिसके बाद माननीय उच्च न्यायालय को निर्माण कार्य पर रोक लगानी पड़ी. पहाड़ों का विकास हम कुछ इस तरह कर रहे हैं-
पहाड़ों का सीना काट,
हम सड़कें बना रहे हैं.
सीने से निकला ख़ूनी मलबा,
गंगा में बहा रहे हैं.
सड़क के बीच आए हर पेड़ की,
बलि दिये जा रहे हैं.
इस तरह विनाश कर,
हम पहाड़ों में विकास ला रहे हैं.
कहीं भूस्खलन,
तो कहीं बादलों का फटना.
मौसम की बदली चाल से,
सब घबरा रहे हैं.
जब तक हुआ प्रकृति का,
अंधाधुँध दोहन किया.
अब प्रकृति रूठी है तो,
क़ुदरत को ही दोषी ठहरा रहे हैं.
हमारी ग़लत नीतियों का ही नतीजा है ये,
कि पहाड़ पिछड़ते व ख़ाली होते जा रहे हैं.
प्रकृति के विकास में ही,
पहाड़ों का विकास है.
इस बात को हम,
आख़िर क्यों नहीं समझ पा रहे हैं
पहाड़ों के विनाश के साथ-साथ गंगा के विनाश में भी हमारा अभूतपूर्व योगदान रहा है. गंगा ने अविरल बहते हुए सिर्फ लोगों का कल्याण ही किया. गंगा का अंधाधुँध दोहन किया गया किन्तु वो चुप रही. सब कुछ सहती हुई गंगा कल-कल करती कुछ यूँ बहती रही-
कल-कल बहती,
अविरल बहती.
हे गंगे क्यों कुछ नहीं कहती.
सबका मैला हो तुम ढोती,
ख़ुद भी मैली होती रहती.
हे गंगे क्यों कुछ नहीं कहती.
अंधाधुन्ध दोहन को सहती,
वन और जल जीवों को खोती.
हे गंगे क्यों कुछ नहीं कहती.
ख़ुद की धाराओं को खोकर,
मनुष्य के स्वार्थों को ढोती.
हे गंगे क्यों कुछ नहीं कहती.
घुट-घुट के तुम आगे बढ़ती,
ख़ुद की निज प्रकृति को खोती.
हे गंगे क्यों कुछ नहीं कहती.
ख़ुद का जीवन अर्पित करके,
मानव को जीवन हो देती.
हे गंगे क्यों कुछ नहीं कहती.
2013 में पहली बार गंगा ने अपना रौद्र रूप दिखाया लेकिन हमने उससे भी ज़्यादा कुछ नहीं सीखा. प्रोफ़ेसर जी डी अग्रवाल (सानंद) सरीखे संतों ने गंगा अक्षुणता की ख़ातिर स्वयं के प्राण त्याग दिये किन्तु सरकारों के कानों में जूँ तक नहीं रेंगी. नमामि गंगे के नाम पर अरबों रूपए बर्बाद किये गए लेकिन गंगा की हालत बद से बदतर ही होती गई. इसमें सिर्फ सरकार का ही दोष नहीं है बल्कि जनता का भी भरपूर योगदान रहा है. स्वार्थ सिद्धी के लिए गंगा को कुछ यूँ मलिन किया गया-
स्वार्थ सिद्धी को निश-दिन,
प्रबल आयाम दिया हमने.
खुद की शुद्धि की चाहत में,
गंगा को मलिन किया हमने.
कारख़ानों का दूषित जल,
जीवों का विरक्त मांसल,
कूड़े कचरे का विशाल ढेर,
भागीरथी में प्रवाह किया हमने.
खुद की शुद्धि की चाहत में,
गंगा को मलिन किया हमने.
गंगा अक्षुणता की ख़ातिर,
अन्न-जल भी त्याग दिया,
सानंद सरीखे संतों ने,
निज जीवन का बलिदान दिया,
उनके बलिदान को व्यर्थ धता,
राजनीतिक लाभ लिया हमने.
खुद की शुद्धि की चाहत में,
गंगा को मलिन किया हमने.
सरकारों का अगाध निर्मोह,
नमामि-गंगे सिर्फ़ एक शोर,
जल-समाधि की क़समें खाकर,
जाह्नवी को समाधिस्थ किया हमने.
खुद की शुद्धि की चाहत में,
गंगा को मलिन किया हमने.
समस्या सिर्फ पहाड़ों और गंगा तक सीमित नहीं रह जाती. जंगलों की आग इन समस्याओं में घी का काम करती है. स्थानीय लोगों से पूछने पर पता लगता है कि वो जंगलों में आग इसलिए लगाते हैं ताकि सूखी घास व सूखे पत्ते जल जाएँ व उनके स्थान पर नई घास उग सके जिससे जानवरों को चारा मिल सके. मनुष्य के इस स्वार्थ की पराकाष्ठा का बखान कुछ यूँ किया जा सकता है-
ये जो जंगलों में आग लगी है,
ये लगी है या लगाई गई है?
निस्सन्देह मनुष्य की स्वार्थ पूर्ति के लिए,
ये आग लगी नहीं लगाई गई है.
मनुष्य के सीने का दर्द, दर्द है लेकिन,
जंगल के सीने में आग सुलगाई गई है.
ये आग सिर्फ़ जंगलों में नहीं,
जानवरों के बसेरों तक फैलाई गई है.
पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सब डरे हुए हैं,
किसी के घर की चाह ने इनके घर की कटाई की है.
पहले जंगल काटे और आग लगाई,
अब तापमान बढ़ने की दुहाई दी है.
सभ्यता का दम भरने वालों ने ही,
जंगलों में असभ्यता कि बुआई की है.
हमारे सपनों का उत्तराखंड एक सपना बनकर ही रह गया. आज ज़रूरत है खुद को राज्य निर्माण में लगाने की, राज्य को स्वयं में आत्मसात करने की, पहाड़ के मुद्दों को उठाने की, राजनीतिक इच्छाशक्ति जगाने की. आज ज़रूरत है युवाओं को आगे आने की, शिक्षा, स्वास्थ, रोज़गार पर बात करने की, सतत विकास के बहस की, राजनेताओं से उनके कार्यों की समीक्षा की. आज ज़रूरत है गंगा का, जंगलों का, पहाड़ों का, प्रकृति का दायित्व लेने की. जिस दिन हम अपने दायित्वों और भागीदारी का पूर्ण रूप से निर्वहन करने लगेंगे उस दिन हमारे सपनों का उत्तराखंड हमारी आँखों में नहीं आँखों के सामने होगा.
नानकमत्ता (ऊधम सिंह नगर) के रहने वाले कमलेश जोशी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक व भारतीय पर्यटन एवं यात्रा प्रबन्ध संस्थान (IITTM), ग्वालियर से MBA किया है. वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यटन विभाग में शोध छात्र हैं.
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