देहारादून में दून अस्पताल के फर्श पर बच्चे को जन्म देने वाली प्रसूता और उसके नवजात बच्चे की मौत हो गयी. यह उसी देहारादून में हुआ, जहां एक तरफ विधानसभा का सत्र चल रहा था. विधानसभा में एक दिन पहले ही भाजपा सरकार ने बड़े गर्व के साथ बताया कि गाय को राष्ट्रमाता घोषित करने का प्रस्ताव पारित करने वाली उत्तराखंड की विधानसभा, पहली विधानसभा बन गयी है और अगले दिन, उसी विधानसभा से कुछ किलोमीटर की दूरी पर बेड और इलाज के अभाव में एक माता और उसके नवजात बच्चे ने दम तोड़ दिया. अब बताइये कि गाय को एक राज्य द्वारा राष्ट्रमाता घोषित करने पर गर्व से सिर ऊंचा किया जाये कि एक माता के इलाज के अभाव में अस्पताल के फर्श पर दम तोड़ने पर सिर झुकाया जाये !
सरकार की हालत ऐसी है कि ऐसी बे सिर-पैर की घोषणाओं पर ही गर्व कर सकती है. अन्यथा तो पिछले साल- छह महीने में प्रसव संबंधी घटनाओं की ही देख लें तो किसी भी संवेदनशील मनुष्य का सिर शर्म से झुक ही जाएगा. कहीं महिलाएं का पुल पर प्रसव हुआ, कहीं सड़क पर और इलाज के अभाव में मौतों की श्रृंखला तो बढ़ती ही जाती है.
अस्पतालों की हालत पहाड़ में बेहद खराब है. ज़्यादातर अस्पतालों में डाक्टर नहीं हैं. सरकार कितने भी गाल बजा ले, लेकिन अस्पताल में डाक्टर उपलब्ध करवाने में वह नाकामयाब रही है. आलम यह है कि राज्य में 1634 डाक्टरों की कमी है. विशेषज्ञ डाक्टर होने चाहिए 1200, लेकिन तैनात हैं मात्र 285. जब डाक्टरों की संख्या में इतनी भयानक कमी होगी तो जाहिर है कि उनमें से बड़ा हिस्सा तो मैदानी जिलों में ही होगा. पहाड़ तो वैसे ही खाली होगा. डाक्टरों की कमी से निपटने के लिए गंभीर कोशिश के बजाय, भाजपा सरकार जुमलों से अधिक काम चलाती प्रतीत होती है. कभी मुख्यमंत्री जुमला उछालते हैं कि मेडिकल कॉलेज सेना चलाएगी, कभी राज्य सभा सांसद जुमला उछालते हैं कि सेना के डाक्टर लोगों का इलाज करेंगे.
ताज़ातरीन जुमला यह है कि कैबिनेट ने फैसला लिया है कि सेना के सेवानिवृत्त डाक्टरों की नियुक्ति की जाएगी. इस तरह के जुमले सनसनी तो पैदा करते हैं, लेकिन लोगों को इलाज नहीं मिलता. पहाड़ में डाक्टर नहीं है तो लोग इलाज की आस लिए देहरादून के सरकारी अस्पताल पहुँचते हैं. पर वहाँ उन्हें बेड तक नसीब नहीं होता. लगता है कि उत्तराखंड में लोगों के सामने दो ही विकल्प सरकार ने छोड़े हैं. या तो वे पहाड़ में ही बिना इलाज के अपने हाल पर रहें या देहारादून के सरकारी अस्पताल के फर्श पर जी सकें तो जियें अन्यथा उनका जो होता है- हो ! सरकार तो गाय को राष्ट्रमाता घोषित करवा कर कुप्पा है. हालांकि उस मामले में भी सरकार सिर्फ घोषणा पर ही कुप्पा हो सकती है. अन्यथा उत्तराखंड के कस्बे-कस्बे में कचरा खाती,लावारिस भटकती उत्तराखंड की “राष्ट्रमाताओं” के झुंड के झुंड देखे जा सकते हैं !
इन्द्रेश मैखुरी की फेसबुक वॉल से
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