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संस्कृति बचाने के लिये उत्तराखंड सरकार का ‘सिनेमाहॉल फार्मूला’

उत्तराखंड की विशिष्ट संस्कृति और ऐतिहासिक समृद्ध विरासत पर हमें आए दिन नेता और अफसरों के भाषण सुनने को मिलते हैं. इस विषय पर कई किताबें छप चुकी हैं और सेमिनार-गोष्ठियां भी समय समय पर होती रहती हैं. लेकिन अब, उत्तराखंड सरकार ने पिथौरागढ़ में संस्कृति बचाने का एक अनूठा रास्ता अख्तियार किया है. पिथौरागढ़ में संस्कृति मंत्रालय द्वारा संचालित ‘संग्रहालय एवं प्रेक्षागृह’ के एक हिस्से को ‘सिनेमाहॉल के लिए लीज’ पर देने का निर्णय ले लिया है. उत्तराखंड शासन की अपर सचिव ज्योति नीरज खैरवाल द्वारा हस्ताक्षरित यह आदेश 20 अगस्त 2018 को निर्गत किया गया है. लेकिन यह लीज कितने समय के लिए दी जा रही है, यह इस पत्र से स्पष्ट नही है. लीज के लिए अदा की जाने वाली धनराशि का भी पता नहीं चल पा रहा है. किसी संतोष चंद रजवार नाम के आदमी को यह लीज दी जानी है, लेकिन यह ऑडिटोरियम संतोष चंद रजवार को ही क्यों लीज पर दिया जा रहा है यह किसी को पता नहीं है. हालांकि,अभी इस लीज का एग्रीमेंट नही किया गया है.

 

भारी मेहनत से लोगों को और संसाधनों को जोड़कर सामाजिक सहयोग की मदद से लोककला और रंगकर्म को बचाने के लिए जी-जान से जुटे हुए पिथौरागढ़ के कई युवा कलाकार सरकार के इस अप्रत्याशित फैसले से अचंभे में हैं. शहर से लगभग 3 किमी दूर नैनी-सैनी हवाई पट्टी रोड पर स्थित यह ऑडिटरियम इन कलाकारों के द्वारा तैयार किए गए कार्यक्रमों के मंचन के लिए एकमात्र उपयुक्त जगह है. कई अभावों के बीच काम करते रहने के बावजूद पिथौरागढ़ के कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस ऑडिटोरियम में दर्जनों सफ़ल कार्यक्रम आयोजित करके पिथौरागढ़ की रचनाशीलता को एक नई ऊर्जा दी है. होना तो यह चाहिए था कि जो लोग पिथौरागढ़ के लोकवाद्य, लोकगीत और हिल-जात्रा जैसी विशिष्ट लोककलाओं को देश-विदेश में अपनी व्यक्तिगत कोशिशों से सफलतापूर्वक पहचान दिला रहे हैं, सरकार उनकी आजीविका चलाने का समुचित और ठोस प्रबंध करे, नए प्रोजेक्ट के लिए काम करने के लिए बजट उपलब्ध कराए, उनके काम को विस्तार दे. लेकिन सरकार के नीति-नियंताओं ने ठीक इसका उल्टा रास्ता पकड़ा है. जो थोड़ा बहुत आधारभूत सुविधाएं इन कलाकारों को उपलब्ध हो भी रही हैं, उनको भी अब छीना जा रहा है.

 

सांस्कृतिक रूप से समृद्ध कहे जाने वाले उत्तराखंड राज्य के संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों की बुरी हालत किसी से छिपी नहीं है. इससे बड़ी शर्म की क्या बात हो सकती है कि पिछले दिनों पिथौरागढ़ शहर में ही वयोवृद्ध लोकगायिका कबूतरी देवी जी का उचित ईलाज के अभाव में निधन हो गया था. एक ध्यान देने वाली बात ये भी है कि उत्तराखंड के कुछ ही शहरों में सरकारी ऑडिटोरियम उपलब्ध हैं. पौड़ी, रामननगर और अल्मोड़ा के प्रेक्षागृह अच्छे स्तर के माने जाते हैं. राष्ट्रीय स्तर के कई कलाकारों को तैयार करने वाले नैनीताल शहर के रंगकर्मी भी कई साल से एक सार्वजनिक प्रेक्षागृह की मांग के लिए संघर्षरत हैं. रुद्रपुर और हल्द्वानी के कलाकारों को भी ऑडिटोरियम के अभाव में नाटक की रिहर्सल और मंचन के लिए निजी होटलों या स्कूलों पर निर्भर रहना पड़ता है.

 

फोटो www.amarujala.com से साभार

पिथौरागढ़ के स्थानीय कलाकारों के अनुसार इस ऑडिटोरियम की वर्तमान स्थिति भी कुछ अच्छी नहीं है. लगभग डेढ़ साल से यहां का जनरेटर बजट के अभाव में खराब पड़ा है. कई बार नाटक के दौरान लाइट चले जाने पर मंचन में व्यवधान पड़ चुका है. इस सबके बावजूद कड़ी मेहनत और बुलन्द हौसलों से यहां के कलाकारों ने पूरे देश में अपनी पहचान बनाई है. अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर पिथौरागढ़ से स्व. कबूतरी देवी, डॉ. अहसान बख़्श, हेमन्त पांडे, अशोक मल्ल, पप्पू कार्की, कैलाश कुमार, हेमराज बिष्ट, गोविन्द दिगारी जैसे कई कलाकार निकलकर आए हैं. इस समय भी पिथौरागढ़ के युवा भाव राग ताल, अनाम, हरेला सोसायटी, आरम्भ स्टडी सर्कल जैसे कई रचनाशील संगठनों से जुड़कर बेहतरीन काम कर रहे हैं. सरकारी ऑडिटोरियम को लीज पर देने की यह ख़बर पिथौरागढ़ के हर जागरूक नागरिक के लिए निराशाजनक है.

 

इस एकमात्र ऑडिटोरियम को लीज पर देने के फैसले के बाद पिथौरागढ़ के सामाजिक कार्यकर्ताओं, रंगकर्मियों और संस्कृतिकर्मियों ने सरकार के इस औचित्यहीन कदम का पुरजोर विरोध करने का निर्णय लिया है. लेकिन राज्य सरकार के इस निर्णय के खिलाफ सिर्फ पिथौरागढ़ ही नहीं बल्कि पूरे उत्तराखंड राज्य के रचनाधर्मियों को एकजुट होना जरूरी है ताकि राज्य के नीति-नियंता यह सोचने की गलती न करें कि ‘नगाड़े खामोश हैं’ .

हेम पंत मूलतः पिथौरागढ़ के रहने वाले हैं. वर्तमान में रुद्रपुर में कार्यरत हैं. हेम पंत उत्तराखंड में सांस्कृतिक चेतना  फैलाने  का कार्य कर रहे  ‘क्रियेटिव उत्तराखंड’ के एक सक्रिय सदस्य हैं .

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Girish Lohani

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  • यह बहुत ही दयनीय स्थिति है। एक तरफ सरकार संस्कृति-संस्कृति का रोना रोती रहती है वहीं हॉल बंद करवा रही है, संस्कृति मंत्रालय की ग्रांट बंद करवा रही है। पर दूसरी तरफ अपने लोगों को अलग-अलग स्त्रोतों से धन आबंटित भी कर रही है। संस्कृति मंत्रालय ने वित्त मंत्रालय के साथ मिलकर पीएफएमएस नामक डिजिटल प्लेटफॉर्म बनाया है उसे समझना बड़े ही झमेले का काम है, उसे पैसा लेकर सिखाया जा रहा है। नही सीखो तो सरकारी कोई मदद नहीं मिलेगी। रचनात्मकता गई तेल लेने, कलाकर अब हाथ मे कटोरा लेने की स्थिति में आ गया है। जो आवाज़ उठता है वो पहले से घोषित देशद्रोही है।

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