पहाडों में पानी संग्रहण करने की कुछ पारम्परिक पर वैज्ञानिक विधियां रहीं हैं जो आज लुप्त हो रही हैं. यदि उनके बारे में अच्छे से समझा जाये और उन्हें आज फिर अपनाया जाये तो पानी की समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है.
हममें से कई लोग ऐसे हैं जो नौलों के बारे में बचपन से सुनते आ रहे हैं क्योंकि नौले हमारे गावों के अभिन्न अंग रहे हैं. नौलों का निर्माण भूमिगत पानी के रास्ते पर गड्डा बनाकर चारों ओर से सुन्दर चिनाई करके किया जाता था. ज्यादातर नौलों का निर्माण कत्यूर व चंद राजाओं के समय में किया गया इन नौलों का आकार वर्गाकार होता है और इनमें छत होती है तथा कई नौलों में दरवाजे भी बने होते हैं. जिन्हें बेहद कलात्मकता के साथ बनाया जाता था. इनमें देवी-देवताओं के सुंदर चित्र बने रहते हैं. यह नौले आज भी शिल्प का एक बेजोड़ नमूना हैं. चंपावत के बालेश्वर मंदिर का नौला इसका प्रमुख उदाहरण है. इसके अलावा अल्मोड़ा के रानीधारा तथा द्वाराहाट का जोशी नौला तथा गंगोलीहाट में जान्हवी नौला व डीडीहाट का छनपाटी नौला प्रमुख है. गढ़वाल में टिहरी नरेशों द्वारा नौलों का निर्माण किया गया था. यह नौले भी कलाकारी का अदभुत नमूना हैं. ज्यादातर नौले उन स्थानों पर मिलते हैं जहां पानी की कमी होती है. इन स्थानों में पानी को एकत्रित कर लिया जाता था और फिर उन्हें अभाव के समय में इस्तेमाल किया जाता था.
पहाडों में अकसर किसी-किसी स्थान पर पानी के स्रोत फूट जाते हैं. इनको ही धारे कहा जाता है. यह धारे तीन तरह के होते हैं. पहला सिरपत्या धारा – इस प्रकार के धारों में वह धारे आते हैं जो सड़कों के किनारे या मंदिरों में अकसर या धर्मशालाओं के पास जहाँ पैदल यात्री सुस्ता सकें ऐसे स्थानों में मिल जाते हैं. इनमें गाय, बैल या सांप के मुंह की आकृति बनी रहती है जिससे पानी निकलता है और इसके पास खड़े होकर आराम से पानी पिया जा सकता है. इसका एक आसान सा उदाहरण नैनीताल से हल्द्वानी जाते हुए रास्ते में एक गाय के मुखाकृति वाला पानी का धारा है. दूसरा मुणपत्या धारा – यह धारे प्राय: थोड़ा निचाई पर बने होते हैं. इनका निर्माण केले के तने या लकड़ी आदि से किया जाता है. तीसरा पत्बीड़या धारा – यह कम समय के लिये ही होते हैं क्योंकि यह कच्चे होते हैं. नैनीताल, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि स्थानों में भी इस तरह के धारे पाये जाते हैं.
यह एक तरह की नहर होती हैं. जो पानी को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने के काम आती हैं. गूल आकार में कूल से बड़ी होती है. इनका इस्तेमाल प्राचीन काल से खेतों में सिंचाई करने के लिये किया जाता है. आज भी यह सिंचाई विभाग में इसी नाम के साथ दर्ज हैं.खाल – खाल वह होते हैं जिन्हें जमीन को खोद कर पानी इकट्ठा किया जाता है या वर्षा के समय पर किसी क्षेत्र विशेष पर पानी के इकट्ठा हो जाने से इनका निर्माण हो जाता है. इनका उपयोग जानवरों को पानी पिलाने के लिये किया जाता है. यह जमीन की नमी को भी बनाये रखते हैं साथ ही पानी के अन्य स्रोतों के लिये भी पानी की कमी नहीं होने देते हैं. यह जल संग्रहण की बेहद आसान लेकिन अत्यन्त उपयोगी विधि है.
किसी भी भूभाग के चारों ओर ऊंची जमीन के बीच में जो जल इकट्ठा होता है उसे ताल कहते हैं. यह ताल कभी कभार भूस्खलनों से भी बन जाते थे और इनमें वर्षा के समय में पानी इकट्ठा हो जाता था. इन तालों में सा्रेतों के द्वारा भी पानी इकट्ठा होता है और वर्षा का पानी भी भर जाता है. ताल का सबसे बेहतरीन उदाहरण है नैनीताल में पाये जाने वाले 12 ताल और पिथौरागढ़ में श्यामला ताल. इन तालों से पानी का प्रयोग पीने के लिये एवं सिंचाई के लिये किया जाता है. तलैया होती तो ताल की तरह ही हैं पर आकार में ताल से छोटी होती हैं.
यह पानी के वह स्रोत होते हैं जिन्हें धारे, नौलों से रिसने वाले पानी को इकट्ठा करके बनाया जाता है. इनके पानी का इस्तेमाल जानवरों आदि के लिये किया जाता है. कुमाऊं मंडल में इन जल कुंडों की अभी भी काफी संख्या बची हुई है.
यह भी जलकुंड के तरह की एक व्यवस्था और होती है. इसे उन स्थानों पर बनाया जाता है जहा पर पानी की मात्रा अधिक होती है. इसका पानी भी जानवरों के पीने के लिये इस्तेमाल किया जाता है. छोटा कैलाश और गुप्त गंगा में इस तरह के कई चुपटोले मिल जाते हैं.
इनका निर्माण इधर-उधर बहने वाले छोटे-बड़े नालों को एकत्रित करके किया जाता है और उसे तालाब का आकार दे दिया जाता है. इनसे नहरें निकाल कर सिंचाई की जाती है और इन स्थानों पर पशुओं को नहलाने का भी कार्य किया जाता है. ढाण का उपयोग अकसर तराई में ज्यादा किया जाता है.
वर्षा के मौसम में पानी को एकत्रित करने के लिये जमीन में काफी गहरे कुए खोदे जाते थे जिनकी गहराई 25 से 35 मी . तक होती थी और इनमें नीचे उतरने के लिये सीढ़ियां बनी रहती थी. पिथौरागढ़ का भाटकोट का कुंआं तथा मांसूग्राम का कुंआं जिनमें 16 सीढ़ियां उतरने पर पानी लाया जा सकता है आज भी जल संग्रहण के रूप में अनूठे उदाहरण हैं. इन्हें कोट का कुंआ भी कहा जाता है.
ढलवा जमीन में पानी के इकट्ठा होने को सिमार कहा जाता है. सिमारों का इस्तेमाल भी सिंचाई के लिये किया जाता है. यह भी मिट्टी को नम बनाये रखते हैं और वातावरण को ठंडा रखने में भी अपना योगदान देते हैं.इन प्राचीन जल संग्रहण विधाओं का महत्व सिर्फ इतना भर नहीं है कि इनसे पानी का इस्तेमाल किया जाता है. इनका एक और भी बहुत बड़ा महत्व है और वह है इनका सांस्कृतिक महत्व. इनमें एक भरी-पूरी संस्कृति मिलती है. आज जरूरत है इनके साथ-साथ अपनी संस्कृति को भी बचाने की. हमारी जल संग्रहण की यह प्राचीन विधि आज के युग में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी की उस युग में थी जब इन्हें खोजा गया था. यह परम्परागत विधियां टिकाऊ और कम खर्चीली तो हैं ही साथ ही साथ हमारे वातावरण के लिये भी अनुकूल हैं. इनको संचालित करने के लिये किसी भी तरह की ऊर्जा की जरूरत नहीं पड़ती है और यह हमेशा हर परिस्थिति में काम करती हैं बस जरूरत है तो इन्हें बचाने की. वैसे भी जिस तरह से दिन-ब-दिन पानी की किल्लत होने लगी है और प्रदूषित पानी से जिस तरह प्रत्येक जीव का जीवन असुरक्षित होता जा रहा है तो इन परंपरागत विधियों के बारे में सोचना हमारी मजबूरी भी होगी क्योंकि यह तो तय है कि आने वाले समय में पानी की एक बहुत गंभीर समस्या हम सबके सामने आने वाली है.
-अशोक पांडे
कबाड़खाना ब्लॉग से साभार
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