किसी भी क्षेत्र की संस्कृति वस्तुतः वहां के समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी चलते आये संस्कारों की एक अवधारणा होती है. समाज में निहित सांस्कृतिक परम्परा को मानव आंखों से देखता तो है ही साथ ही उसे मन से महसूस करने के अलावा आत्मसात भी करता है. दर्शन, रीति रिवाज, पर्व-त्यौहार, रहन-सहन, अनुष्ठान, कला-साहित्य, बोली-भाषा व वेशभूषा जैसी बातों का अध्ययन संस्कृति के अंतर्गत ही होता है. सही मायने में किसी भी क्षेत्र अथवा देश की समृद्ध संस्कृति को वहां के बौद्धिक विकास की परिचायक माना जा सकता है.
विभिन्न क्षेत्रों की तरह उत्तराखंड की संस्कृति भी अपनी अलग पहचान रखती है. यहां के विविध पर्व, त्यौहार, मेले ,नृत्य-गीत एवं वस्त्राभूषण आदि स्थानीय लोक जीवन के साथ अभिन्न रुप से जुड़े हैं. पूर्व में काली नदी से लेकर पश्चिम में टोंस नदी तक फैले इस भू भाग के निवासियों द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाले विविध परिधान व आभूषण अपनी बनावट व सुन्दरता से हर किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं. इन्ही विशिष्टताओं के कारण यहां के वस्त्राभूषणों को हिमालयी संस्कृति व साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. यहां के लोक साहित्य, लोकगाथा, लोक कथाओं व लोक गीतों में स्थानीय वस्त्रों व आभूषणों को बखूबी से वर्णित किया गया है. आज भी अनेक पर्व उत्सव व नृत्य गीतों में पारम्परिक परिधानों व आभूषणों को अत्यंत उत्साह व उल्लास के साथ पहनने का रिवाज यहां कायम है.
किसी भी प्रान्त के समाजिक विकास क्रम के निर्धारण और पुरातन इतिहास के आकलन में परम्परागत परिधान व आभूषणों की विशेष भूमिका रहती है. मानव और उसके वस्त्र विन्यास का यदि सिलसिले वार अवलोकन करें तो हमें उसके शुरुआती आदिवासी जनजीवन से लेकर वर्तमान आधुनिक जीवन तक कई महत्वपूर्ण परिर्वतन दृष्टिगोचर होते हैं. आज से 15000 ई. पूर्व आदि मानव जब गुफा कन्दराओं में निवास करता था उस समय तब वह पेड़-पौंधों की छाल व पत्तों का उपयोग वस्त्र के तौर पर किया करता था. मूलतः प्रकृति से मिले इस आवरण को मानव समय-समय पर अपने विवेक से धीरे-धीरे विकसित करता रहा. तकरीबन 3000 ई. पूर्व के आसपास सिंधु घाटी की सभ्यता में मानव ने अपने वस्त्राभूषणों का काफी विकास कर लिया था. वस्त्र के तौर पर उस समय सूती, रेशम और चमड़े का उपयोग किया जाने लगा था. विभिन्न काल खण्डों में वस्त्रों के प्रकार व उसके विन्यास में उत्तरोतर विकास जारी रहने से प्रचलित सूती, रेशमी व ऊनी कपड़ों की कताई-बुनाई, कढ़ाई, व सिलाई व उसके फैशन डिजायन आदि में निरन्तर बदलाव होता रहा.
युग-युगों से परम्परा में चलते आये उत्तराखंड के परिधानों का पुरातन स्वरुप आज भी बचा हुआ है. यहां के समाज ने स्थानीय भौगोलिक परिवेश के हिसाब से ही इन वस्त्राभूषणों का चयन किया है. उत्तराखंड में प्रचलित पारम्परिक परिधानों का यदि गहनता से अध्ययन किया जाय तो यहां के सामाजिक-आर्थिक व सांस्कृतिक इतिहास के अनछुए पक्षों पर नई जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं. उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जनपद के दारमा, व्यास व चैंदास, चमोली जनपद के नीती व माणा तथा उत्तरकाशी जनपद के जाड़ घाटी के भोटिया जनजाति समुदाय द्वारा आज से छह दशक पूर्व भेड़ के ऊन से विविध तरह के पहनने के वस्त्रों व अन्य वस्तुओं का निर्माण बहुतायत से किया जाता था. ऊन कातने के पश्चात तब परम्परागत हथकरघों से पंखी, शाल, चुटके, थुलमें व दन सहित अन्य उत्पाद तैयार किये जाते थे. आज से सात-आठ दशक पूर्व में कुमाऊं अंचल में स्थानीय संसाधनों से कपड़ा बुनने का कार्य होता था. उस समय लोग कपास की भी खेती करते थे. (ट्रेल 1928: एपैन्डिक्स) कुमाऊं में कपास की बौनी किस्म से कपड़ा बुना जाता था और इस काम को तब शिल्पकारों की उपजाति कोली किया करती थी. हाथ से बुना कपड़ा घर बुण के नाम से जाना जाता था. टिहरी रियासत में कपड़ा बुननने वाले बुनकरों को पुम्मी कहा जाता था. (भारत की जनगणना: 1931, भाग-1, रिपोर्ट 1933, ए.सी. टर्नर) उस समय यहां कुथलिया बोरा व दानपुर के बुनकर और गढ़वाल के राठ इलाके कुछ विशेष बुनकर स्थानीय स्तर पर पैदा होने वाले भीमल व भांग जैसे रेशेदार पौंधों से मोटे वस्त्रों का निर्माण भी किया करते थे. इस तरह के वस्त्रों को ‘बुदला‘ ‘भंगेला’ अथवा ’गाता’ कहा जाता था. उत्तराखंड में कई परम्परागत परिधान ऐसे भी हैं जिनके नाम अब बमुश्किल सुनाई देते हैं उदाहरण के लिए फतोई, सुरयाव, मिरजई आंगड़ी, कनछोप, थिकाव, टांक, झाड़न, जाखट, गाती तथा झगुली, झगुल, संथराथ जैसे कई वस्त्रों का नाम अब लगभग चलन से बाहर ही हो गया है.
उत्तराखंड के समाज में पर्व उत्सव अथवा यदा-कदा अन्य स्थितियों में विशेष वस्त्रों को पहनने की परम्परा भी विद्यमान है. पर्वतीय समाज में सिरोवस्त्र धारण करने की परम्परा को वरीयता दी गयी है. यहां पुरुष व महिलाएं दोनों ही अपने सिर को वस्त्र विशेष से ढकते हैं. पुरुषों में जहां टोपी व टांका पहनने की प्रथा है वहीं महिलाएं अपना सिर पिछौड़े अथवा धोती व साड़ी के पल्लू से ढकती हैं. शौका जनजाति की महिलाएं पर्व विशेष के अवसर पर अपने सिर में च्युक्ती व पुरुष ब्येन्ठलो धारण करते हैं. यहां मांगलिक कार्यों के दौरान पुरुष अक्सर सफेद धोती, कुरता व टोपी तथा महिलाएं रंगवाली पिछौड़ा पहनती हैं. कुमाऊं में होली के अवसर पर होली गाने वाले ‘होल्यार’ भी सफेद कुरता पजामा और टोपी पहनकर होली गाते हैं. परिवार में किसी सदस्य के निधन हो जाने पर स्थानीय रिवाज के अनुसार अन्तिम संस्कार करने वाले व्यक्ति को ऊनी स्वेटर, पंखी, सफेद सूती धोती व सर ढकने के लिए बगैर सिला सफेद वस्त्र धारण करना होता है. कुमाऊं अंचल में शादी विवाह व अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरन होने वाले छोलिया नृत्य में शामिल लोग फ्राकनुमा घेरदार वस्त्र के साथ चूड़ीदार पैजामा पहनकर नृत्य करते हैं. अत्यधिक शीत के कारण उच्च हिमालयी भाग के मुनस्यारी, धारचूला, कपकोट, देवाल, चमोली, जोशीमठ, ऊखीमठ, भिलंगना, भटवाड़ी व मोरी के सीमांत इलाके में रहने वाले लोग सामान्यतः वर्षभर भेड़ से प्राप्त ऊन से निर्मित विशेष वस्त्रों को पहनते हैं. पहाड़ के कुछ बुर्जुग लोग बताते हैं कि आज से पांच छह दशक पहले यहां का समाज जब आर्थिक तौर पर आज की तरह समृद्ध नहीं था तब अधिकांश परिवार अपने सदस्यों के लिए मारकीन अथवा गाढ़े कपड़े से बनी पोशाक बनाते थे. उस समय उच्च कोटि के कपडे़ से बनी कीमती पोशाकें गांव में गिने-चुने लोगों के ही पास हुआ करती थी. किसी रिश्तेदार अथवा सगे सम्बन्धी के परिवार की शादी ब्याह में शामिल होने के लिए तब कई लोग बिरादर अथवा मित्र जनों के वस्त्रों (जिन्हें ऐसे ही विशेष अवसरों के लिए संभाल कर रखा जाता था) से काम चला लेते थे.
आधुनिक शिक्षा के साथ ही तेजी से हो रहे समाजिक आर्थिक बदलाव का प्रभाव स्थानीय पारम्परिक परिधानों पर पड़ने लगा है. इस वजह से परम्परागत परिधानों को पहनने का चलन समाज में धीरे-धीरे कम होता जा रहा है. पलायन, व्यवसाय के कार्य की प्रकृति तथा प्रवास में बसने, दूसरी संस्कृति के सम्पर्क में रहने आदिे वजहों से भी परम्परागत परिधानों के पहनावे में कमी दिखायी दे रही है. बहरहाल उत्तराखंड के समाज ने विरासत के तौर इन परिधानों को किसी न किसी रुप अपना संरक्षण दिया ही हैं. आज भी जब-तब और पर्व विशेष पर अपने परम्परागत परिधानों को पहनना कतई नहीं भूलता. निःसंदेह यह हमारी संस्कृति के लिए अत्यंत गर्व और प्रसन्नता की बात है.
आभूषणों के बारे में यह कथन सर्वमान्य है कि नारी का दूसरा सौन्दर्य उसके आभूषणों में छिपा होता है. निश्चित तौर पर एक नारी का सौन्दर्य तब और अधिक मुखर हो उठता है जब वह सुन्दर परिधानों से सज्जित होकर विविध आभूषणों से सुशोभित हो जाती है. सम्भवतः इसी कारण हर महिला का अपने आभूषणों के साथ अत्यधिक भावनात्मक लगाव रहता है. कमोवेश यह बात उत्तराखंड के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है. यहां के अनेक लोक गीतों में भी स्थानीय आभूषणों का वर्णन आया हुआ है. कुमाऊं व गढ़वाल अंचल में प्रचलित तमाम पारम्परिक आभूषणों में काफी समानता मिलती है, अगर कुछ अन्तर है भी तो वह आंशिक रुप से सिर्फ इनके बनावट और नामों में दिखायी देता है. यहां प्रचलित आभूषणों को जेवर भी कहा जाता है. आभूषण प्रायः चांदी और सोने के बने होते हैं तथा माला में मनके के रुप में मूंगा व काली मोती के दाने पिरोये जाते हैं. गले में आभूषण के तौर पर सिक्कों अथवा मुहरों की माला पहनने की परम्परा यहां पुराने समय से ही चली आ रही है, जिसे आज भी कुछ समुदायों में देखा जा सकता है. इस आभूषण को यहां हमेल, रुपैमाला, चवन्नीमाला या अठन्नीमाला के नाम से जाना जाता है. प्राचीन समाज में व्यापार विनिमय में धन की आवश्यकता होने और विपत्ति काल में उसकी महत्ता को देखते हुए ही इस तरह के आभूषणों को चलन में लाया गया होगा. संस्कृति के अध्येता इसे वैदिक काल में प्रचलित ‘निपक’ या ‘रुक्म ‘ से जोड़ते हैं जो उस समय की व्यापारिक स्वर्ण मुद्रा हुआ करती थी.
देश के अन्य भागों की तरह उत्तराखंड के दोनों भागों में विषम संख्या वाले एक लड़ी की माला से लेकर नौ लड़ियों की माला पहनने की परम्परा भी पुरानी है. यह माला यहां तीनलड़ि, पंचलड़ि, सतलड़ि नाम से जाना जाता है. कुमाऊं इलाके में चांदी से बने सुत, धागुल व सोने के से बनी पौंची व गुलोबन्द आदि आभूषण भी परम्परागत हैं. इसके अतिरिक्त चरयो, बुलाक, पौंला, इमरती व कनफूल भी परम्परागत आभूषणों की श्रेणी में आते हैं. उत्तराखंड में यह धारणा मौजूद है कि पुरानी टिहरी की नथ अपनी कारीगरी के हिसाब से अत्यंत आकर्षक होती है. कभी टिहरी के पुराने राजसी परिवार की षान रही यह नथ समाज के आम लोगों के बीच भी लोकप्रिय रही है. कहा जाता है कि इस नथ का वजन कभी कम से कम तीन तोले से लेकर छह तोले तक हुआ करता था. उत्तराखंड की महिलाओं में नथ अत्यंत प्रतिष्ठा का विषय माना जाता है. दरअसल यह नथ उनकी पूंजी के सदृश्य है जिसे वह पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत के तौर पर संजोये रखने में अपना मान समझती है.
उत्तराखंड में चांदी और सोने के आभूषण बनाने वाले कारीगर सुनार कहलाते हैं. आभूषण निर्माण की परम्परागत कला को कुमाऊं में कुछ वर्मा परिवारों ने आज भी बखूबी से जीवित रखा हुआ है और इस कला को निरन्तर आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं. एक समय उत्तराखंड के पुराने नगर चम्पावत, अल्मोड़ा, द्वाराहाट, पिथौरागढ़, काशीपुर, पुरानी टिहरी, श्रीनगर व बाड़ाहाट के सुनार अपनी उत्कृष्ट कारीगरी के लिए विख्यात माने जाते थे.
आंगड़ि – महिलाओं द्वारा ब्लाउज की तरह पहना जाने वाला उपरी वस्त्र. सामान्यतः गरम कपड़े का बना होता है जिसमें जेब भी लगी होती है.
कनछोप अथवा कनटोप – बच्चों व महिलाओं द्वारा सिर ढकने का सिरोवस्त्र. यह साधारणतः ऊन से बनाया जाता है. यह ठण्ड से कान व सिर को बचाता है.
कुर्त – एक तरह से कमीज का रूप. पुरुषों द्वारा पहना जाने वाला यह वस्त्र कुछ ढीला और लम्बा होता है. इसे पजामें के साथ पहना जाता है.
घाघर – कमर में बांधे जाने वाले इस घेरदार वस्त्र को महिलाएं पहनती हैं. सामान्यतः ग्रामीण परिवेश का यह वस्त्र पूर्व में सात अथवा नौ पल्ले का होता था. घाघरे के किनारे में में रंगीन गोट लगायी जाती है.
झुगुलि – यह छोटी बालिकाओं (दस से बारह साल की उम्र तक) की परम्परागत पोशाक है. इसे मैक्सी का लघु रुप कहा जा सकता है. पहनने में सुविधाजनक होने के ही कारण इसे बच्चों को पहनाया जाता है.
टोपी – सूती व अन्य कपड़ों से निर्मित टोपी को पुरुष व बच्चे समान तौर पर पहनते हैं. यहां दो प्रकार की टोपियां यथा गोल टोपी और गांधी टोपी का चलन है. सफेद,काली व सलेटी रंग की टोपियां ज्यादातर पहनी जाती हैं.
धोति – महिलाओं की यह परम्परागत पोशाक है जो मारकीन व सूती कपडे़ की होती थी. इसमें मुख्यतः पहले इन पर छींटदार डिजायन रहती थी. अब तो केवल सूती धोती का चलन रह गया है. आज परम्परागत धोती ने नायलान, व जार्जट व अन्य तरह की साड़ियों का स्थान ले लिया है. पहले गांवो में पुरुष लोग भी सफेद धोती धारण करते थे. अब सामान्य तौर पर जजमानी वृति करने वाले लोग ही इसे पहनते हैं.
सुरयाव – यह पैजामे का ही पर्याय है. परम्परागत सुरयाव आज के पैजामें से कहीं अधिक चैड़ा रहता था. यह गरम और सूती दोनों तरह के कपड़ों से बनता था. तीन-चार दशक पूर्व तक लम्बे धारीदार पट्टी वाले सुरयाव का चलन खूब था.
चूड़िदार पैजाम – पुराने समय में कुछ व्यक्ति विशेष चूडी़दार पजामा भी पहनते थे जो आज भी कमोवेश चलन में दिखायी देता है. यह पजामा थोड़ा चुस्त,कम मोहरी वाला व चुन्नटदार होता है.
पंखी – क्रीम रंग के ऊनी कपड़े से बने इस वस्त्र को यात्रा आदि के दौरान जाड़ों में शरीर को ढकने के तौर पर प्रयोग किया जाता है. इसे स्थानीय बुनकरों द्वारा तैयार किया जाता है.
टांक – इसे सामान्यतः पगड़ी भी कहते हैं. इसकी लम्बाई दो मीटर से दस मीटर तक होती है. इसका रंग सफेद होता है.
फतुई – इसे यहां जाखट, वास्कट के नाम से भी जाना जाता है. बिना आस्तीन व बंद गले की डिजायन वाले इस परिधान को कुरते व स्वेटर के उपर पहना जाता है. फतुई गरम और सूती दोनों तरह के कपड़ों से बनती है. कुमाऊं गढवाल में इसे पुरुष जबकि जौनसार व रवाईं इलाके में दोनों समान रुप से पहनते हैं.
रंग्वाली पिछौड़- कुमाऊं अंचल में शादी ब्याह, यज्ञोपवीत, नामकरण व अन्य मांगलिक कार्यों में महिलाएं इसे धोती अथवा साड़ी लहंगे के उपर पहनती हैं. सामान्य सूती और चिकन के कपड़े को पीले रंग से रंगकर उसके उपर मैरुन, लाल अथवा गुलाबी रग के गोल बूटे बनाये जाते हैं. इसके साथ ही इसमें विभिन्न अल्पनाएं व प्रतीक चिह्नों को उकेरा जाता है. पहले इन्हें घर पर बनाया जाता था परन्तु अब यह बाजार में बने बनाये मिलने लगे हैं.
सिर व माथे पर पहने जाने वाले आभूषण – सीसफूल, मांगटिक, बेनी फूल आदि.
नाक में पहने जाने वाले आभूषण – नथ, बुलाक,लौंग, फुल्ली, बीरा, बिड आदि.
कान में पहने जाने वाले आभूषण – मुनड़, बाली, कुण्डल, झुमुक,टाॅप्स,लटकन, मुरकी आदि.
गले में पहने जाने वाले आभूषण – गुलोबन्द, हुसुली, मटरमाला, हमेल, रुपैमाला, चवन्नीमाला , अठन्नीमाला, सतलड़ी, चंद्रहार, जंजीर, झुपिया, मोहनमाला, कंठी, मूंगमाला, जंजीर, च्यूंच, पौंला आदि.
हाथ में पहने जाने वाले आभूषण – धागुल, ठोके, चूड़ी, कंगन, पौंची, मुनड़ि,बाजुबंद, आदि
कमर में पहने जाने वाले आभूषण – कमरबंद,लटकन, अतरदान, सुडी, कमरज्यौड़ि आदि.
पैर में पहने जाने वाले आभूषण – चेनपट्टी, इमरती, बिच्छु, पाजेब, अमरिती,पायल, गिनाल आदि.
पुरुषों द्वारा सामान्यतः यहां बहुत कम आभूषण पहने जाते हैं. बावजूद इसके जिन आभूषणों को पुरुषों द्वारा प्रयुक्त किया जाता है उनमें अंगूठी परम्परागत आभूषण के तौर पर सर्वाधिक चलन में है. वर्तमान दौर अब में अधिकतर पुरुष कुण्डल, बाली, गले की जंजीर व कड़े आदि को भी आभूषणों के रुप में प्रयुक्त करने लगे हैं.
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि निःसन्देह उत्तराखण्ड में पुराने समय से प्रचलित तमाम परिधान और यहां के आभूषण अपनी कला और पारम्परिक विशेषताओं की दृष्टि से आज भी महत्वपूर्ण बने हुए हैं और यहां की सांस्कृतिक विरासत की जीवंतता को बनाये रखने में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं.
चंद्रशेखर तिवारी. पहाड़ की लोककला संस्कृति और समाज के अध्येता और लेखक चंद्रशेखर तिवारी दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड ,देहरादून में रिसर्च एसोसियेट के पद पर कार्यरत हैं.
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Very helpful article thanks bhai
Photos are exempalary
मेरी ईजा के पास सिर पर पहनी जाने वाली एक झुपझुपी थी, जो चांदी की हुआ करती थी। वह उन्होंने गला कर पोंची में बदल ली। अब यह गहना लुप्तप्राय है। यह सिर, माथे और कानों की शोभा बढ़ाता था। किसी को उसका डिजाइन मिले तो कृपया शेयर करें।
My ija had JhupJhupi a silver ornament adorn as head piece, it covers forehead and ears also. It's very sad that it is found nowhere and is extinct. If you have any clue then please share. Thanks