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सौ बरस पहले जब कोविड 19 जैसे ही एक वायरस `स्पानी फ़्लू’ ने तबाही मचाई

I had a little bird
And it’s name was Enza
I opened the window
And in flew–Enza

(बच्चों के बीच स्पैनिश इन्फ्लूएंजा को लेकर ये एक लोकप्रिय जिंगल.)

इतिहास खुद को दुहराता है? इतिहास, खुद को नहीं खुद को जिए जाने के तरीकों को दुहराता है. जीने वालों को दुहराता है. इतिहास हमें चुनाव के लिए एक जैसी चीजें मुहैय्या कराए न कराए वो हमारे चुनाव से ज्यादा इस बात को दुहराता है कि चुनने की प्रक्रिया क्या रही. इसलिए जब भी इतिहास को देखें उसे आंकड़ों की उपलब्धता से नहीं उस प्रक्रिया के लिए देखें जो उन आंकड़ों तक लेकर गयी. आज से लगभग सौ बरस पहले भी कोविड 19 के जैसा ही एक वायरस `स्पानी फ़्लू’ के नाम से तबाही मचाने आया था. इंसान ने उससे उलझने, समझने और निबटने में आज की तरह ही अवैज्ञानिक, गैर-पेशेवर और बचकाना प्रक्रियाएं भी (इस ‘भी’ का एक खूबसूरत दूसरा फलक है जिसके बारे में शीघ्र चर्चा की जाएगी) अपनाईं जैसी आज हम देख रहे हैं.  
(The Flu Pandemic of 1918)

वायरस के जन्म को लेकर तमाम अटकलें थीं. स्पेन चूंकि प्रथम विश्व युद्ध से अलग था और वहां अन्य देशों से ज़्यादा इस बीमारी की खबरे छप रही थीं, इसका नाम स्पेनिश इन्फ्लूएंजा ही रख दिया गया. अमरीका में इमरजेंसी फ्लीट कॉर्पोरेशन के हेल्थ एंड सेनिटेशन सेक्शन के प्रमुख लेफ्टिनेंट कर्नल फिलिप एस डॉन का ये बयान सभी अखबारों में छपा कि ये स्पैनिश फ्लू, किसी थियेटर या बड़े भीड़-भाड़ वाले स्थान पर इन्फ्लूएंजा के विषाणु चुपचाप फेंककर ‘जर्मनी के जासूसों’ ने यहाँ, अमरीका में ‘फैलाया’ है. बहुत बड़े वर्ग की ये एक आम राय जैसी बन गई. यहां तक कि अमरीका में कई बार इसे `जर्मन प्लेग’ कहकर पुकारा गया. अमरीकन पब्लिक हेल्थ सर्विस ने ‘बेयर एस्पिरिन’ टैबलेट जो कि संक्रमित व्यक्तियों को दी जाती थी, की जांच भी की कि कहीं उसमें फ्लू के कीटाणु तो नहीं हैं क्योंकि उसे जर्मन पेटेंट पर बनाया गया था. इस बात का कोई ऐतिहासिक प्रमाण आज तक नहीं मिला. कल को कोरोना के बाबत ‘फैलाने’ और ‘फैलने’ के बीच जितने भी पुष्ट आंकड़े चाहिए उन्हें उपलब्ध ज़रूर इतिहास कराएगा पर शक, आरोप और पुष्टिकारक साक्ष्य के बीच उनकी परख तो विज्ञान ही करेगा न. 

इसी तरह से विश्व युद्ध में इस्तेमाल होने वाले औजारों और भयानक आयुध विस्फोटों से निकली विषैली गैसों के साथ मारे गए सैनिकों, आम जनता और जानवरों के शवों से निकलने वाली विषाक्त गैसों के मिश्रण को भी इसका कारण माना गया. आजकल 5 जी नेटवर्किंग की वजह से किसी ख़ास तरह के विकिरण से होने वाले पर्यावरणीय बदलाव की वजह से बीमारी को लेकर एक परिकल्पना चल निकली है.  

दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों पर यह ठीकरा फोड़ा गया. बहुत सी खबरें, लेख और खुलासे किए गए जिसमें यह साबित करने का प्रयास था कि अश्वेत लोगों के रिहायशी इलाकों की गंदगी और उनके अस्वच्छ रहन–सहन की वजह ही इसके फैलने का मुख्य कारण है. यहीं इसे ईश्वरी प्रकोप,  विज्ञान को ईश्वर से ऊपर महत्व देने जैसी चीजों से भी जोड़ा गया. गाढ़ी बारिश और हवा से बीमारी फैलने की डरावनी कहानियां भी चल निकलीं. बंदरों और चिड़ियों में भी बीमारी फैलने की बातें हुईं. कुछ ही महीनों पहले एक धर्म विशेष के लोगों द्वारा खाने में थूककर इस नई बीमारी को फैलाने के वीडियोज याद आ रहे हैं? 

यह भी काफी समय तक कहा गया कि ये बीमारी किसी वायरस से नहीं `फ्रीफर्क्स बेसिलस’ नामक बैक्टीरिया से होती है. दरअसल ये बैक्टीरिया वायरस से संक्रमित कमज़ोर श्वास नलिकाओं पर द्वितीयक संक्रमण करता है और कुछ मरीजों में इसके पनपने की संभावना ज़रूर रहती है. आज भी व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पर फलाने देश में मृतकों के फेफड़ों की ऑटोप्सी से कोरोना ‘वायरस नहीं बल्कि बैक्टीरिया या फंफूद’ मिलने की कहानियाँ चल रही हैं.

बीमारी के कारणों के साथ-साथ उसके इलाज के लिए भी उसी तरह के अजीबोगरीब तरीके उस वक्त चलन में आये जो आजकल कोरोना के इलाज के लिए चल रहे हैं.

पश्चिमी मध्य अमरीका में लकड़हारों के बीच व्हिस्की से इसे ठीक करने का उपाय चल पड़ा. ब्राजील में रम इस कदर पी गई कि बाकी सारी दुकानें बंद होने के बाद भी शराबखाने रात–रात भर खुले रहते. लंदन के सवोय होटल के शराबखाने में ‘द कॉर्प्स रिवाइवर’ के नाम से व्हिस्की और रम का एक मॉकटेल तैयार किया गया जो मुर्दों में भी जान डालने के वायदे का साथ बनाया गया था. आपको याद है कोरोना की शुरुआत में शराबियों ने किस तरह से शराब के तीखेपन पर अपना दाँव लगाया था. पान-गुटका सेवकों ने वायरस चबा-चबा कर थूक देने की बात कही थी. हाँ, मज़ाक में ही! उतने ही मज़ाक में जैसे कि ये बात कि ब्राजील या अमरीका में शराब सेवन का राजस्व प्राप्ति से कोई लेना-देना था या नहीं इस बात का प्रमाण फिलहाल उपलब्ध नहीं हो सका.

लॉस एंजेलिस में वर्मवुड की लकड़ियों को गर्म सिरके में भिगोकर छाती पर मलने की तरकीब सुझाई गयी. कहीं से एक सुझाव आता कि नीबू पानी से गरारा करके तारपीन के तेल और गर्म पानी की भाप लो तो दूसरी तरफ से ये बात चल निकली कि अल्कोहल और क्लोरोफॉर्म के मिश्रण की भाप ली जाए. धीरे–धीरे सुलगती हुई गीली लकड़ी या नम पुआल के धुएं की भाप भी प्रचलन में थी.
(The Flu Pandemic of 1918)

लोग इतने पर ही नहीं रुके. संक्रमण की रोकथाम और इलाज के लिए अद्भुद अफवाहें फैलती रहीं. कोई दाढ़ी बनाना बंद करने को कहता तो हमेशा साफ और नया पजामा पहनने का भी अनोखा सुझाव दिया गया. अरंडी का तेल इस्तेमाल करो–अरंडी का तेल इस्तेमाल मत करो, खूब आराम करो–खूब व्यायाम करो, खूब खाओ–सिर्फ लिक्विड लो जैसी कितनी ही विरोधाभासी चीजें हवा में तैर रही थीं. आप अपना व्हाट्सएप देखिये इनमें से कुछ सौ साल बाद भी तैरते हुए आपके इनबॉक्स में नहीं चू पड़ी हैं?

बोस्टन के डॉक्टर चार्ल्स ई पेज एक अनोखी थ्योरी ले आए. उनके अनुसार लाखों श्वसन छिद्रों की वजह से हमारी त्वचा हमारे शरीर के लिए वास्तविक और सबसे मुफीद श्वास अंग है जिसे हम बिला वजह कपड़ों से ढक देते हैं. इसलिए इस बीमारी से लड़ने के लिए- नंगे हो जाओ! डोंट ओवरइमेजिन. दिमाग के घोड़े से टेंट पेगिंग मत करवाओ. इस इलाज का अगला कोई स्टेप नहीं बताया गया था. डॉक्टर अलेक्जेंडर लीड्स एक कदम आगे बढ़ाते हुए कह रहे थे कि संक्रमित व्यक्ति का टॉन्सिल्स और दांत निकाल कर उसे ठीक किया जा सकता है.

ख़बर यह भी उड़ी कि वायरस हवा में फैलता है. बहुत से लोगों ने अपने घरों के हर दरवाज़े, खिड़कियां, रोशनदान यहां तक कि धुआं निकलने वाली चिमनियां, दरवाजे के नीचे की खुली जगहें, मुक्के, नालियां, हर उस स्थान को बंद कर दिया जहां से ताज़ी हवा घर में घुस सके. इनमें से कुछ लोग वायरस से बचे और ज्यादातर दम घुटने से मर गए. मैसाचुसेट्स के सर्जन जनरल ने धूप और साफ़ हवा के औषधीय गुणों को समझते हुए कोरे हिल में टेंट अस्पताल बना कर उसमें अपने सभी बीमारों को शिफ्ट कर दिया. खूब मज़ाक भी बनाया गया उनका. इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था और उन बीमार लोगों को कोई बहुत लाभ भी नहीं हुआ पर इससे बंद अस्पतालों में बार–बार फैलते संक्रमण से थोड़ी राहत जरूर मिली.

दक्षिण शिकागो की ऐन वुड्स ने अमरीका के युद्ध विभाग को लिखा कि एक बंद कमरे में या सारे दरवाजे-खिड़कियां बंद करके किसी घर में, तीन–चार की संख्या में खूब तीखी और ताज़ी लाल मिर्चों को पानी में डालकर तीन से चार घंटे तक उबाला जाए. उसे जलने से बचाने के लिए उसमें बार–बार पानी डाला जाए और इस तरह से उससे निकलने वाली भाप तीन-चार घंटे में या तो मरीज़ के अंदर कीटाणुओं को मार देगी या उसका शरीर कीटाणुओं को बाहर फेंक देगा. कितने मरीज़ खुद बाहर कूदकर भाग गए इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है.  

पेंसिलवेनिया के एक बावर्ची का दावा था कि उसने अपने आठ पारिवारिक सदस्यों को खूब सारी प्याज खिलाकर बचा लिया. ताज़ी कटी हुई सुर्ख प्याज़ खाने का टोटका इतना मशहूर हो गया कि एक मां ने अपनी चार बरस की बेटी जो प्याज खा नहीं सकती थी उसे प्याज का शोरबा पिलाया और फिर इतने पर ही नहीं रुकीं उस बच्ची को कटी हुई प्याज़ के ढेर में दबा भी दिया. टखनों पर खीरे के टुकड़े बांधने से लेकर सभी जेबों में आलू रखने तक के टोटके आजमाए गए. एक पोटली में कपूर बांधकर गले में लटकाने का तो फैशन ही चल पड़ा था, कई लोगों ने छिपकली की टांग को भी कपड़े के थैले में बांधकर गले से लटकाया.  बहुत सी जगहों पर वू–डू तकनीक से भी बीमारी भगाने की कोशिश की गई.

नैरोबी के डॉक्टर रोलैंड बुर्कित्त ‘किल ऑर क्योर’ तकनीक के लिए जाने गए जिन्होंने संक्रमितों को गीली चादरें ओढ़ाकर बर्फीले पानी के बीच बैठा दिया. उनके मरीज़ स्पैनिश फ़्लू से मरने के लिए जिंदा बचे या नहीं आंकड़ा इस बात का भी नहीं है.

तिब्बत में नगाड़े बजा–बजा कर बीमारों को रात–रात भर जगाए रक्खा जाता था क्योंकि वहां यह अफवाह थी कि निद्रा से मौत का ख़तरा बढ़ जाता है. (फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘ढोल’ की याद आई?)
(The Flu Pandemic of 1918)

एक्सपर्ट सुझाव की कमी, ना–जानकारी, जनता के भोलेपन, किंकर्तव्यविमूढ़ता और बेचैनी को ठगों ने भी खूब भुनाया. दक्षिण शिकागो में सर्प-तेल बेचने वाले एक व्यापारी ने `स्पैनिश इन्फ्लुएंजा रेमेडी’ नाम से एक दवा बेचनी शुरू की. उसने पगड़ी पहनने वाले एक संपेरे को नौकरी पर रक्खा जो लोगों को आकर्षित कर सके. उसकी आय लाखों में थी जिसके बारे में सही-सही आंकड़ा उपलब्ध नहीं है और ये भी कि पगड़ी पहना हुआ संपेरा उस देश के निवासी होने का `शो’ था जिसे सांप-संपेरों का देश कहा जाता था.  

आज से सौ-सवा सौ साल पहले चिकित्सा सुविधाओं की स्थिति और कुल संचित ज्ञान स्तर से ये बात समझ में आती है कि `स्पैनिश लेडी’ के ख़िलाफ़ इस तरह के टोटके या अधकचरे उपाय काम में लाए गए लेकिन आज सुबह मेरे इनबॉक्स में सुर्ख प्याज़ के ताज़े कटे टुकड़े को सेंधा नमक के साथ चबा-चबा कर खाने की अनोखी थेरेपी टपकी है, क्या मुझे इतिहास बनने की प्रक्रिया में आंकड़े तक पहुँचने में अपना अमूल्य योगदान देना चाहिए? आप बताइये मुझे भी क्या यह गाना चाहिए–  

An onion car arrived today
Labelled red, white, and blue
Eat onions, plenty, every day
And keep away the “Flu.”

(अख़बार में छपा हुआ एक विज्ञापन)

नोट- छायाचित्र और लेख की बहुत सी जानकारियों के लिए वर्जीनिया अरोंसों की लिखी ‘दि इन्फ्लूएंजा पैंडेमिक ऑफ 1918’ पुस्तक का आभार.
(The Flu Pandemic of 1918)

डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.

अमित श्रीवास्तव

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं.  6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास). 

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  • अमित जी नमस्कार!

    बेहद जरूरी विमर्श है आपका। 300 साल की ओद्योगिक क्रांति के बाद से मानव कमोबेश हर सदी में ऐसी ही अनिश्चितता वाले पड़ाव पर आ खड़ा हुआ है। पर अपनी कमतरी छिपाने के लिए हर बार उठ खड़ा होता है और पहले से कहीं तेज रफतार से आगे निकल जाता है। एक पड़ाव आज भी लगा है। हम आप सभी अपने द्वार पर ठिठके है। नहीं पता कहां किस ओर जाना है।

    आत्मचिंतन सबसे जरूरी चीज बन गई है आज। अपने अंदर उतरने से ही राह सूझ सकती है।

    सभी सुरक्षित रहें।

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