उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मंडल के नैनीताल और ऊधम सिंह नगर जिले के तराई अंचल में रहने वाले एक समुदाय को थारू जनजाति के नाम से जाना जाता है. ये लोग तराई की बीहड़ जलवायु में घने जंगलों के बीच प्राकृतिक माहौल में स्वच्छंद जीवन जिया करते हैं. इस जनजाति के लोग उत्तर प्रदेश, बिहार के कुछ हिस्सों और नेपाल में भी रहते हैं. थारू जनजाति नेपाल की कुल आबादी का 6.6% हैं. नेपाल सरकार इन्हें राष्ट्रीयता का दर्जा देती है और भारत में इन्हें अनुसूचित जनजाति माना गया है. (Tharu Tribe Tarai Uttarakhand)
इनके मूलनिवास के बारे में अलग-अलग मत प्रचलित हैं. ये स्वयं को राजपूतों के वंशज मानते हैं. इस विषय में इनके स्वयं के दावे के अनुसार ये राजस्थान के राजपूतों के वंशज हैं. बहुत से थारू स्वयं को कपिलवस्तु के शाक्यों का वंशज भी मानते हैं. कई इतिहासकार इनकी शारीरिक संरचना के अनुसार इन्हें मंगोलों का वंशज मानते हैं. इस बारे में कोई लिखित ऐतिहासिक दस्तावेज मौजूद नहीं है.
भारत के थारू लोग उत्तर प्रदेश व बिहार के कई इलाकों में रहते हैं मगर इनकी अच्छी खासी आबादी उत्तराखण्ड के तराई क्षेत्र में रहती है. ऊधम सिंह नगर के खटीमा, सितारगंज, किच्छा, नानकमत्ता, खटीमा और बनबसा में इनके करीब 150 गाँव हैं. खटीमा और सितारगंज विकास खण्डों में इनकी आबादी 70,000 के आसपास है. यह उत्तराखण्ड की जनजातीय आबादी का कुल 32 प्रतिशत के आसपास है.
इनके नाम के सम्बन्ध में यह मत है कि इस समुदाय में खुद की बनायी गयी ‘थेडु’ नामक शराब का बहुतायत में सेवन करता है, इस वजह से इसे इन्हें थारू कहा जाता है. एक अन्य मान्यता यह भी है कि इस समुदाय में ‘थेडु’ नामक विवाह परम्परा का चलन होने के कारण इन्हें थडुआ कहा जाता था जो कि बाद में थारू हो गया. थेडु, काज और डोला विवाह इनके विशिष्ट विवाह अनुष्ठान हुआ करते थे. इसमें वधूमुल्य चुकाकर या फिर कन्याहरण कर विवाह किये जाने की प्रथा हुआ करती थी. अब इस समुदाय में सामान्य अनुष्ठानिक विवाह भी हुआ करते हैं. इस समुदाय में बाल विवाह व विधवा पुनर्विवाह भी स्वीकार्य है. उत्तराखण्ड की वनरावत जनजाति
थारू लोग स्वभाव में पहाड़ियों की तरह ही सहज, सरल व निश्छल होते हैं. लड़ाई-झगड़ा और विवादों से बचते हैं. मित्रता करना और समर्पणपूर्वक उसका निर्वाह करना इनका चारित्रिक गुण है.
सनातनी समुदायों के करीब रहने के कारण इन्होंने उनकी अनेकों सामाजिक रीतियों एवं सांस्कृतिक अनुष्ठानों को अपना लिया है मगर आज भी इनकी अपनी अलग सामाजिक, सांस्कृतिक परम्पराएँ, रीति-रिवाज एवं धार्मिक विश्वास हैं जो इन्हें समाज में अलग पहचान देते हैं.
इनकी समाज व्यवस्था का संचालन पंचायतों के माध्यम से होता है. हाल के वर्षों तक यह एक मात्रसत्तात्मक समाज को मानने वाले हुआ करते थे. आज स्थितियां बदल चुकी हैं लेकिन इनकी पारिवारिक संरचना में आज भी महिलाओं का ही वर्चस्व देखने को मिलता है. धार्मिक अनुष्ठानों व घरों के सञ्चालन में स्त्रियाँ प्रमुख भूमिका में होती हैं. थारू अपना वंशक्रम भी महिलाओं के हिसाब से ही तय करते हैं और महिलाओं को संपत्ति में भी विशेष अधिकार दिया जाता है.
यह समुदाय मूलतः प्रकृतिपूजक समुदाय है. विभिन्न प्राकृतिक शक्तियां ही इस समुदाय में भगवान के रूप में पूजी जाती हैं. इनका बहुमान्य देवता भूमि एवं कृषि का रक्षक देवता भूमसेन है. यह अपने पूर्वजों में भी अगाध श्रद्धा रखते हैं.
अलग-अलग जगहों के थारू समुदाय भोजपुरी, मैथिलि, अवधी, नेपाली तथा हिंदी भाषा बोलते हैं.
सभी फोटो: सुधीर कुमार
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कहते हैं राजपूत सरदारों ने अपने परिवार की महिलाओं और बच्चों को उनके सेवकों और सैनिकों के साथ सुरक्षित रहने के लिए पहाड़ों व उत्तराखंड आदि के जंगलों में भेज दिया था... कालांतर में संपर्क न होने के कारण महिलाओं को अपने सेवकों और सैनिकों से ही वंश आगे बढ़ाना पड़ा... शायद यही कारण है कि थारू समुदाय मातृसत्तात्मक रहा।
Soban singh bisht
कुछ लोगों का मत है कि मूलतः ये थार रेगिस्तान के वाशिंदे थे, इसीलिये थारू कहलाये। इनकी दाढ़ी मूछें भी नहीं होती अथवा न के बराबर होती हैं। महिलाएं पुरुषों का छुआ भोजन नहीं खाती।पुरुषों को रसोई में प्रवेश की अनुमति नहीं होती ।