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आँसुओं से बनी है टिहरी झील

टिहरी को बाँध बनने से पहले न देख पाने का अफसोस तो हमेशा ही रहा इसलिए इस बार मैंने बाँध बन जाने के बाद बसी नई टिहरी को देखने का मन बना लिया और अगली सुबह हरिद्वार के लिए निकल गयी. मार्च का महीना था इसलि यह सुबह के समय हल्की-हल्की सी सर्दी रही पर हल्द्वानी के बाद मौसम गर्म होने लगा. नजीबाबाद तक तो सब अच्छा ही रहा पर नजीबाबाद में एक बेहद बुरा हदसा हो गया. एक ट्रक ने एक बाइक को टक्कर मार दी और बाइक में बैठा युवा छटक के दूर गिर गया जिसका मृत शरीर सड़क पर पड़ा रहा पर कोई भी उसके पास नहीं गया. कुछ लोगों ने इस हादसे की खबर तो पुलिस को दे दी पर वह लड़का और उसकी बाइक दोनों सड़क पर पड़े रहे. तब तक ट्रक वाला भी वहाँ से फरार हो गया. कुछ देर बस भी इस जैम में फँसी रही जब ट्रेफिक चलना शुरू हुआ तो बस भी आगे बढ़ गयी. हमारा समाज दिन-ब-दिन असंवेदनशील होता जा रहा है.

करीब 2 बजे मैं हरिद्वार पहुँच गयी. आज की रात यहीं रुक कर मैं सुबह टिहरी के लिए निकल जाऊँगी. शाम के समय टहलते-टहलते मैं हर की पैड़ी चली गयी. जहाँ घाट पर आरती की तैयारी चल रही है. घाट के किनारे बैठना अच्छा लगता है सो मैं भी जगह ढूँढ कर घाट की सीढ़ी में बैठ गयी. मेरे बगल में एक जापानी जोड़ा बैठा है जिनके लिए उस समय की सबसे मज़ेदार घटना उनके सामने बैठे एक पण्डे के सर को देखना है जो पूरी तरह गंजा है और उसने एक पतली और लम्बी सी चोटी रखी है. उस जोड़ों ने पण्डे के सर की जितनी तस्वीरें ली उतनी तो शायद गंगा आरती की भी नहीं ली होंगी.

अगली सुबह मैं ऋषिकेश निकल गयी क्योंकि बस यहीं से मिलनी है. उम्मीद के मुताबिक बस मिल भी गयी और वह भी ए.सी. हालाँकि बस के चलने पर पता चला की ए.सी. सिर्फ किराया वसूलने के लिए ही है बाकी किसी काम का नहीं है.

मेरे बगल वाली सीट में एक 25-26 साल का युवा बैठा है जो कि थोड़ा बातूनी है. छोटे कद और सांवले रंग के उस युवा ने खुद ही अपने बारे में बताया – मैं फौज में नौकरी करता हूँ और अभी नई टिहरी अपनी भाभी और माँ से मिलने जा रहा हूँ. फिर अचानक ही थोड़ा अटकती हुई सी आवाज़ में बोला – आपको पता है पहले हमारा घर टिहरी में ही था पर जब बाँध बना तो हमारा घर, हमारी ज़मीन, हमारा सब कुछ पानी के नीचे डूब गया. मुझे अभी भी अपने बचपन का घर, अपने पड़ोसी, अपने बचपन के दोस्त बहुत याद आते हैं. हम अपने गाँव में कितना खेलते थे! पूरे गाँव की ज़मीन भी उस समय हमारी शैतानियों के लिए कम पड़ती थी. अब तो बस गाँव की और अपने घर की यादें ही बची हैं.

उसे लगता है कि पानी के नीचे शायद अभी भी उसका घर बचा हुआ होगा.

उसकी बातों के साथ नई टिहरी आ गया और मैं जी.एम.वी.एन. के रैस्ट हाउस चली गयी. कुछ देर आराम करके शाम को शहर घूमने निकल गयी. शहर के एक हिस्से में बाजार है जो सीधी कतार में बना हुआ है. देखने में लगता है जैसे छोटे-छोटे चौकोर डिब्बों के अंदर दुकानें बनी हुई हैं. इसी बाजार को पार करते हुए में दूसरी ओर आ गयी. जहाँ मुझे एक मंदिर दिखा.

मैंने एक अधेड़ उम्र के आदमी से मंदिर का रास्ता पूछा. उसने मेरे कैमरे को गौर से देखा और थोड़ा गुस्से वाली आवाज़ के साथ पूछा – “पत्रकार हो?” बिना मेरे जवाब का इंतजार किये वह आगे बोला – “यहाँ जरूर टिहरी डैम देखने ही आयी होगी. हर किसी को यहाँ आकर उसे ही देखना होता है.” मुझे लगा कि शायद मुझे डैम के बारे में बात करने के लिए कोई सही आदमी मिल गया है इसलिए मैंने हाँ में जवाब दे दिया. उन्होंने बहुत ही अजीब नज़रों से मुझे घूरा और लगभग झिड़कते हुए बोले – “तुमको तो टिहरी डैम की तारीफ सुनने में ही दिलचस्पी होगी. पर मैं यह सब करने के लिए गलत आदमी हूँ.” गुस्से से तमतमाते हुए वह सज्जन वहाँ से चले गए. मेरा मन हुआ कि उनको ज़ोर से आवाज़ लगा के कहूँ कि मैं यहाँ किसी की तारीफ करने या सुनने नहीं आयी हूँ पर मैं खड़े होकर उन्हें जाते हुए ही देखते रही.

कुछ देर में मैं अपने कमरे में वापस आ गयी और अगली सुबह टिहरी बाँध झील की ओर जाने का तय किया. सुबह होटल मैनेजर ने मुझे बताया कि मैं बस स्टेशन चली जाऊँ वहाँ से मुझे झील की ओर जाने के लिए बस मिल जायेगी. मैं बस स्टेंड से बस मैं बैठी और झील की ओर निकल गयी.

मेरे बगल की सीट में एक बुजुर्ग व्यक्ति बैठे हैं. उन्होंने मुझसे मेरे आने का कारण जान लेने के बाद कहा – “टिहरी बाँध में देखने जैसा कुछ भी नहीं है. यह बाँध तो मेरी जन्मभूमि का कातिल है. ऐसी जगह को देखने क्यूँ जा रही हो.” इतना कह कर वे शांत हो गए और उनका चेहरा भी रुंआसा हो आया.

तभी मुझे पीछे की सीट से किसी महिला के कुछ गुनगुनाने की आवाज़ आयी. मैंने पलट के देखा एक बुजुर्ग महिला झील की ओर देख कर गढ़वाली में कुछ गा रही है और गाते-गाते सिसक रही है. वह लगातार गाती रही और लगातार सिसकती रही. उसकी सिसकियाँ इतनी तेज़ हैं कि मुझे साफ सुनाई दे रही हैं. यह सिलसिला लगभग एक घंटे तक चलता रहा. वह गाती रही और सिसकती रही.

बस रुकी और जिस जगह मुझे उतरना है वहीं वह महिला भी उतरी. मैंने उनके पास जाकर पूछा – आप इतनी देर से लगातार रो रहीं हैं. कोई परेशानी हो तो बताइए.

मैंने जैसे उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. उन्होंने गुस्से के साथ झील की ओर देखा और तेज़ी से हाथ झटकते हुए बोली – “ऐसी झील का कभी भला नहीं होगा जिसने हमारा घर-बार सब छीन लिया.”

मुझे कोई शब्द नहीं सूझा जो कि मैं उनसे कह पाती और वहाँ से झील की ओर आ गयी. अचानक मुझे झील के पानी में उस युवा का चेहरा दिखने लगा जिसे लगता है कि उसका घर अभी भी पानी के नीचे होगा. गुस्से से भड़कते हुए वह सज्जन भी दिखे और बस में बैठे बुजुर्ग और महिला की आँखों से बहते हुए आँसू भी दिखने लगे. मुझे लगने लगा कि यह झील पानी से नहीं बल्कि आँसुओं से बनी है.

मैं अगले ही पल वहाँ से लौट गयी.

 

विनीता यशस्वी

विनीता यशस्वी नैनीताल  में रहती हैं.  यात्रा और  फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.

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  • एक व्यक्ति के लिए उसके सबसे अच्छे दिन उसका बचपन होता है, एक औरत के लिए उसका सबसे अच्छा घर वह होता है जहाँ वह ब्याह कर आती है, और अगर सबकुछ उजड़ जाये तो उसके मुंह से केवल बददुआ ही निकलती है।

  • यह झील भले ही उत्तराखंड सरकार के लिए गौरवपूर्ण हो, मगर असल में यह पुरानी टिहरी के लोगों की कातिल है, जिसने उनसे उनका भूत, वर्तमान और भविष्य छीना है!

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