हर बड़े शहर – खासतौर पर ऐसे शहर, जो साहित्यकारों, लिक्खाड़ों के बड़े अखाड़े के रूप में जाने जाते हो- में काफी हाउस अवश्य होते हैं. (Tea Shops Almora Market)
अठारहवीं सदी का लंदन उन तमाम प्रकार के कॉफी हाउसेस का गवाह बना, जो साहित्यिक एवं बौद्धिक विचार-विमर्श के नए केंद्र बने जहां पीने को उम्दा कॉफी, खाने को उम्दा पेस्ट्री, ताड़ने को उम्दा महिलाएं, विचारों की गर्मी को ठंडा करने के लिए बगल में बीयर बार, पढ़ने को अखबार, लिखने को कागज और लिखा हुआ सुनाने को बौद्धिक ठलुए सब एक साथ, एक जगह, इफरात में मिल जाते. (Tea Shops Almora Market)
किसी अंग्रेज लेखक जिसका नाम मैथ्यू व्हाइट है, ने खुलासा किया है कि सत्रहवीं और अठारहवीं सदी के दौर में लंदन और उसके आसपास के इलाकों में कैसे कॉफी हाउस कल्चर एक साहित्यिक व्यापारिक चर्चाओं के केंद्र के रूप में विकसित हुआ.
अब बात हिंदुस्तान की.
हिंदुस्तान में भी इलाहाबाद, दिल्ली, पटना, कोलकाता, मुंबई (तब का बॉम्बे ) लिखने, सुनने, खाने-पीने ताड़ने, झाड़ने, फाड़ने वालों के पुराने अखाड़े रहे हैं. अभी भी हैं. वहां भी कॉफी हाउसेस में सरगर्म शामें नए नए विचारों को भुनी हुई कॉफी की हल्की-हल्की मादक गंध में, जो इस उम्मीद के आसपास लिपटी होती है कि कॉफी सिटिन्ग को कैसे शाम के बार सिटिन्ग में कन्वर्ट किया जाए में से निकाल कर बाहर लाती.
लंदन के किसी कॉफी हाउस से सीधे कोई उड़ान भरे तो छह हजार सात सौ पिच्यान्बे किलोमीटर की सीधी रेखा पर एक शहर स्थित है जिसे दुनिया अल्मोड़ा के नाम से जानती है.
ऊपर के चार पांच पैराग्राफ जो कि किसी के लिए भी बेमतलब की जानकारी हो सकते हैं से दूर, बहुत दूर अल्मोड़े में कॉफी हाउसेस की जगह चायघर थे, उन से टक्कर लेने के लिए.
यहां अल्मोड़े के चायघरों में खाने-पीने, ताड़ने, झाड़ने, फाड़ने,की तमाम साहित्यिक और गैर साहित्यिक अभिरुचियों के प्रदर्शन के साथ साथ कई अन्यान्य नितांत अल्मोड़िया किस्म की गतिविधियों को संपन्न होते देखा जा सकता है.
थाना बाजार से जागनाथ सिनेमा हॉल के बीच में थोड़ी थोड़ी दूरी पर स्थित इन चायघरों में धुयें से चीकट छत, तीसियों साल पुरानी बेंचो, कोने में बने सौभाग्य पक्षी घोंसला, एक मिट्टी की परात में भरे पीले रंग के नथुने हिला देने वाले रायते, सफेद भूरे रंग की कुछ स्थानीय मिठाईयां, माथे पर पिठाई चावल का तिलक लगाए दुकानदार, जिसने बालों में चोटी के स्थान पर भी कुछ फूल चावल रखे होते हैं, सब में कामन मिलेगा. यह अलग बात है कि बाहरी स्ट्रक्चर लगभग समान होते हुए इन चायघरों में प्रत्येक चायघर का कैरेक्टर बिल्कुल अलग है. हर चायघर में अलग अलग तरह की व्यवस्था. व्यवस्था समझें तो पूरी व्यवस्था.
अल्मोड़ा थाने के पास बीच रास्ते में चैन से बंधा हुआ एक गेट है, उस गेट की चाबी थाने में जमा रहती है जिसे कभी भी मांग कर गेट खोला जा सकता है. खोलने के बाद बंद करके चाबी पुनः उसी व्यक्ति को, उसी हाल में सुपुर्द करनी होती है जिससे वह ली गई थी.
इसी गेट से लगी हुई दुकान लटवाल जी का चायघर है. एकदम सीधा साधा और पहाड़ी शैली के स्थापत्य में बना चायघर.काउंटर के पीछे की तरफ से सन् पचपन में खींची गई ब्लैक एंड वाइट फोटो में काला कोट और काली टोपी में बंद बूबू झांकते हैं. बूबू के मस्तक पर लगी पिठाई अभी ताजी है और माला भी प्लास्टिक की सही लेकिन अभी अभी झाड़ कर लगाई गई है.
चाय घर में छह सात पुलिस वाले, जिनमें कुछ वर्दी में तो कुछ बिना वर्दी में होते हैं अक्सर बैठे मिल जाते हैं. चायघर का यह पुलिसिया प्रेजेंटेशन कभी-कभी डराने वाला बन जाता है. जब दो पुलिस वाले किसी गुमशुदगी या चोरी की चर्चा करते करते आप की तरफ आंख उठाकर अचानक देख लें.
चायघर में बोर्ड लगा है “शराब पीना सक्त मना है”. शराब पीने की मुमानियत है. लोग शराब नहीं पीते हैं चाय पीते हैं. थाना बगल में है सो केवल चाय ही पी जा सकती है.
लटवाल के चायघर की दो विशेषताएं किसी मित्र के द्वारा पता चली पहली इस चायघर में दोपहर दो बजे के बाद चाय नहीं मिलती, दूसरी इस चायघर से थाने में चाय नहीं जाती.
लटवाल टी हाउस की दोनों विशेषताएं चौका देने वाली थीं, थाने की दीवार से सटकर कर बैठे आदमी की इतनी हिम्मत कि चाय लेने थाने से सिपाही या और कोई आदमी ही आएगा दुकान से चाय देने कोई थाने नहीं जाएगा.
इस बाबत लटवाल से पूछने पर पता चला की “साहब एक बार बहुत पहले दुकान में चोरी हो गई, चोर गल्ला, सिलेंडर और पांच किलो पेड़े चुरा ले गए. थाने में रिपोर्ट लिखाने गया तो दरोगा ने कहा यह भी कोई चोरी हुई, रिपोर्ट नहीं लिखी गई, एक काग़ज़ पर तहरीर लिखा कर रख ली. तब से आज तक पुलिस चोर को नहीं पकड़ पाई और उसी दिन से हमने भी कसम खा ली कि जब तक पुलिस मेरी चोरी का माल बरामद नहीं करती तब तक मैं ना तो किसी पुलिस वाले को उधार में चाय पिलाऊगा और न थाने में चाय देने जाऊंगा.””
वाह! अद्भुत!! एकदम चमत्कृत कर देने वाला शुद्ध सत्याग्रह, जिसमें अल्मोड़े की छाप स्पष्ट रूप से दिखती है. पुलिस तो खैर पुलिस है क्या ही कहा जाए, पर आम जनता की एकदम स्पष्ट अवधारणा प्रणम्य है, अनुकरणीय है. यह अलग बात है कि घटना को कितने साल हो गए किसी को पता नहीं पर सत्याग्रह आज भी जारी है.
“दो बजे के बाद चाय क्यों नहीं मिलती” उत्सुकता बढ़ रही थी.
“सर दो बजे के बाद हम पेड़े बनाते हैं जो एकदम ताजे खोए के होते हैं. इसलिए चाय बंद. अब आप ही देख ले कि इस समय ढाई बजा है पर हम आपको चाय नहीं दे सकते क्योंकि हमें पेड़े जो बनाने हैं, हर चीज का अपना अपना टाइम जो ठहरा”.
“यह होता है प्रोफेशनलिज्म” – यह वाक्य जब मुंह से निकला तो लटवाल की पूरी पकी, कड़क चाय का स्वाद जुबान पर तारी हो गया और हम चाय पीने, किसी और चायघर की तलाश में आगे बढ़ गए.
थोड़ा आगे बढ़ने पर दो-चार चायघर हैं जिनके मालिक दिनभर उबासियाँ लेते मक्खियां भगाते मिलते. उनसे थोड़ा सा आगे है भगवती रेस्टोरेंट.
भगवती रेस्टोरेंट्स चायघर से एक श्रेणी ऊपर का रेस्टोरेंट है जो अपनी चाय से ज्यादा समोसे के लिए प्रसिद्ध है. यहां की खासियत है कि यह पूरे अल्मोड़ा से अलग, वेलकम ड्रिंक मिलता है. वेलकम ड्रिंक में भले ही प्लास्टिक के गिलास में जलजीरा मिलता हो पर है तो वह मुफ्त में. सो चाय पीने से पहले अक्सर जलजीरा पीते हुए भी लोग देखे गए हैं.
जलजीरा केवल इस बात का प्रलोभन होता है कि आप केवल चाय तक सीमित ना रहे, उससे आगे समोसा टिक्की भी है, जो आपके बिल को दहाई के अंकों में पहुंचाने को बेताब दिखाई देती है.
यह है प्रोफेशनलिज्म का अल्मोड़िया रूपांतरण.
थोड़ा और आगे चले तो रघुनाथ मंदिर से आगे, डीएल शाह की दुकान से आगे दो तीन पतले, लंबे, गहरे रेस्टोरेंट हैं. यह सारे चायघर या रेस्टोरेंट दिनभर कचहरी के सहारे चलते हैं. दो बजे के बाद इनमें एक अजीब सा सन्नाटा पसरा रहता है.
दो बजे से पहले मुवक्किल, वकील, बाबू और कभी कभी छोटे साहब के आपसी विचार विमर्श और वस्तु विनिमय की नितांत व्यावहारिक क्रियाएं इन्हीं चायघरों में संपन्न होती हैं. इधर उधर झांककर चोर जेब से कुछ मुडातुड़ा सा मुट्ठी में बंद कर “बस दाजू इसी को पत्रं पुष्पम फलम समझो “दूसरी मुट्ठी में सरका कर अपेक्षित गर्मी दे देना यहां घटित होता है.
कभी-कभी दुकानदार स्वयं इस प्रक्रिया में थर्ड पार्टी का रोल निभाता है, पर वह थर्ड पार्टी शुल्क भी वसूलता है. मंदी के इस जमाने में तीसरे पक्ष को शामिल करना एक तो महंगा है, दूसरी ओर बात खुलने का भी डर रहता है सो इससे अच्छा है कि रिस्क न लिया जाए, मामला सीधा-सीधा सेट करने में सही रहता है.
इन तीन चायघरों की एक विशेषता है कि इन में से किसी एक चायघर में अल्मोड़े के एक प्रसिद्ध लेखक, एक खास तयशुदा वक्त पर घूमते घूमते आ जाते हैं, सिगरेट के धुएं के बीच में कुछ-कुछ अपारदर्शी माहौल में से जिंदगी को झांककर समझने का, उसके रंगों को देखने का यह उनका अपना स्टाइल है. यह अलग है कि लंदन या दिल्ली के काफी हाउसेस की तरह यहां बहस मुबाहिसे नहीं होते. पर वह लेखक मित्र अपने खास अल्मोड़िया एंगल से सब कुछ देखते जरूर है. क्यों ना हो आखिर चायघरों का बेतकल्लुफ माहौल लेखक को ऊर्जा, प्रेरणा जो देता है.
इन तीनों चायघरों में शराब का सेवन सख्त मना है. इस बात को कोई कोई मान भी लेता है.
कचहरी से कोई डेढ़ सौ मीटर दूर केशव हलवाई की दुकान है.
साहित्यकार श्री अशोक पांडे एवं चर्चित फोटोग्राफर जैमित्र सिंह बिष्ट के साथ पहली दफा अल्मोड़े में संपन्न हेरिटेज वॉक का एक महत्वपूर्ण पड़ाव केशव हलवाई की दुकान भी थी.
केशव तो अब इस दुनिया-ए-फानी में नहीं है, पर उनके द्वारा बनाए गए इस चायघर में एक अनूठी रंगत रहती है. पूरे अल्मोड़ा में केशव के यहां से अच्छी जलेबी कहीं नहीं बनती. छोटे-छोटे स्टील के गिलास में चम्मच फंसा कर दिया गया दही कल्पनातीत काव्यात्मकता को उड़ान देता है. उड़ान भरते हैं युगलों के स्वप्न, जो दबी हुई मुस्कुराहटों में थोड़ा सिमटे, थोड़ा सा सकुचाते हुए,पोरो के स्पर्श मात्र से ही रोमांचित हो उठते हैं.
घर गृहस्थी की खरीददारी के बीच एक पावर ब्रेक लेती महिलाएं, उनकी बातचीत, उनके सपने, उनकी प्राथमिकताएं और आपस की हंसी ठिठोली इस चायघर की एक और विशेषता है.
इसी चायघर में अल्मोड़ा जीवन्त हो उठता है. अल्मोड़ा जिन परतों के अंदर स्पंदित होता है, जिन खिड़कियों के अंदर हंसता बोलता है, वह परतें, वह खिड़कियां सब इस चायघर में खुल जाती हैं. एक बेतकल्लुफी का आलम जिसमें किसी भी प्रकार के लेखन के लिए आवश्यक बीज, खाद, पानी आसानी से उपलब्ध होते हैं एक लेखक को मिल जाते हैं.
केशव से थोड़ा आगे दाहिने हाथ पर स्थित एक बड़ी पुरानी इमारत में नीचे को सीढ़ियां उतरती हैं ठीक पुरानी दिल्ली की उग्रसेन की बावड़ी की तरह जिस में दाहिनी लेन में स्थित है अशोका होटल.
अशोका होटल में मैंने अपनी जिंदगी के अब तक की सबसे अच्छी कॉफी और सबसे अच्छे बर्गर का स्वाद चखा. अल्मोड़े के इस चायघर का अपना अलग सांस्कृतिक इतिहास है. काउंटर के ऊपर थोड़ा हटकर एक मध्य वर्ग के व्यक्ति की रौबीले अंदाज में ब्लैक एंड वाइट फोटो टंगी है. कहा जाता है कि फोटो वाले सज्जन अशोका होटल वाले शाह जी के दादाजी थे जिन्होंने अल्मोड़े में रावण फूकने की परंपरा स्थापित की, खुद अपने आप में रावण का बेजोड़ अभिनय करते थे.
चायघर के अंदर अक्सर नवयुवक वर्ग अपनी पसंदीदा फिल्म, गेम या किसी नए सॉफ्टवेयर की चर्चा करते पाए जाते, तो कभी-कभी कामगार और श्रमिक आंदोलनों की चर्चाएं यहां उठती देखी गई है. साहित्य की अखाड़े बाजी से दूर इस चायघर में अल्मोड़िया अखाड़ेबाजो से रूबरू होना एक अलग अनुभव प्रदान करता है.
मार्के की बात है कि यहां भी शराब का सेवन सख्त मना है जिसे सारे लोग मानते हैं.
अल्मोड़ा के चायघरों में अंतिम लेकिन सबसे ठोस पाएदार चायघरों का नंबर अब आता है.
नंदा देवी बाजार के आसपास के इलाके में स्थित कुछ चाय घर लंदन के कॉफीघरों के सारे मानदंड पूरा करने वाले चाय घर हैं. लंदन के उन कॉफीघरों में जिनमें कोरी साहित्यिक और व्यापारिक बहसें, बिना किसी के कपड़े फाड़े जन्म लेती हैं, को अल्मुड़िया अंदाज में टक्कर देने वाले इन चाय घरों को देख कर पहली नजर में लगता है कि ये इतिहास के उस कोने के चाय घर है जब काबुल,बल्ख, बद्ख्साँ आदि हिंदुस्तान का हिस्सा रहे होंगे.
इन चायघरों में लिखने, सुनने, खाने-पीने ताड़ने, झाड़ने, फाड़ने के साथ साथ लेट जाने तक पर भी कोई रोक टोक नहीं है. अपने किस्म के आजाद चायघर. ऐसे चायघर जो भाषा, बोली, रंग, गरीबी, अमीरी, दुख-सुख, अवसाद, ऊर्जा, ऊर्जाधिक्य,ऊर्जा संकट से लेकर राजनीति, कूटनीति, अर्थनीति और तमाम प्रकार की दुरभसंधीयों से लेकर प्रेम में खाली चुके कारतूस के मिसफायर प्रसंगों में से सब के ऊपर हैं और सब के साथ भी.
यहां किसी चीज की कोई मनाही नहीं है न शराब पीने की, न चाय पीने की, न चरस पीने की. आपकी दम और जेब में पड़े दाम जहां तक दम दें वहां तक खींचे रहो, लगे रहो, टिके रहो.
लकड़ी के लगभग पंद्रहवीं शताब्दी के ढांचे, जिनमें पुते हुए रंग और चूल्हे से उठे धुएं ने मिलकर एक नए रंग और महक को जन्म दिया- से सुबासित इन चायघरों के छोले, भुट्वे, सिरी, पाये, पर्दे, गुर्दे, कलेजे, मगज, छाती बड़े से बड़े और छोटे से छोटे सब ने खाए हैं. समान रूप से खाए हैं.
समाज में इस तरीके के आजाद ख्याल, क्रांतिकारी सोच के चायघरों की स्वीकार्यता न तब थी ना अब है. अल्मोड़ा के टिपिकल अलमुड़िया समाज की नजर में इस तरह के चायघर मलेच्छों के अड्डे हैं. ऐसे मलेच्छ जो मंडी की दुकान से पव्वा लेकर इन्ही चायघरों में नेस्तनाबूद हो जाते हैं.
असल जिंदगी का अल्मुड़िया स्वरूप इन्हीं चायघरों में दिखेगा. चूल्हे के उठते ठोस गाढ़े धुए के बीच बदरंग जिंदगी को नए रंगों से भरने की जद्दोजहद में बेरंग होते आदमी की कोशिशों और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी में बाजार की बढ़ती दखलअंदाजी से उत्पन्न खीझ, उसे न मिटा पाने का संताप और कष्ट, जिस से ऊपर उठने का रास्ता या उस रास्ते से जोड़ने वाली सीढ़ी को टटोलते हाथ इन्ही चायघरों में पाए जाते हैं.
ये चायघर नहीं हैं.जिंदगी घर हैं. यह भले ही लेखकीय विमर्श का अड्डा नहीं है, पर जिंदगी के विमर्श का मैदान जरूर हैं, एक ऐसा मैदान जिसमें जिंदगी की जंग एक ऐसे शत्रु से है, जो सामने से दिखता नहीं है.
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