पहाड़ और मेरा जीवन – 66
(पिछली क़िस्त: और यूं एक-एक कर बुराइयां मुझे बाहुपाश में लेती गईं
जिम शब्द का इतना अधिक इस्तेमाल होता है कि अब हिंदी का ही शब्द लगता है. इस्तेमाल इसलिए होता है क्योंकि वह हमारे आसपास अब इफरात में दिखता है. बड़े शहरों में तो गली-गली जिम खुल चुके हैं, छोटे कस्बे भी पीछे नहीं. एक ही कस्बे में दर्जनों जिम मिलते हैं. लेकिन आज से तीस साल पहले जिन दिनों मैं कॉलेज में पढ़ता था, हमारे लिए जिम एक कठिन अंग्रेजी का शब्द था क्योंकि हमने उसे देखा ही नहीं था. (Sundar Chand Thakur Memoir 67)
जिम के नाम पर पिथौरागढ़ में देवसिंह फील्ड के ऊपर नगरपालिका का एक कमरा हुआ करता था, जिसमें टूटे-फूटे शीशे रखे हुए रहते थे और लड़कों को प्रेरित करने के लिए दीवार पर बॉडीबिल्डरों के मांसपेशियां उघाड़े हुए फटे पोस्टर चिपके होते थे. मुझे याद नहीं कि किसने मुझे इस कमरे के बारे में बताया, पर मैंने पाया कि बीएससी के दूसरे साल में मैं लगभग रोज ही यहां जाने लगा था और कुछ ही दिनों में मेरी मांसपेशियां भी बाहर की ओर झांकने लगी थीं, ये अलग बात है कि वे मुझे ही दिखाई देती थीं, दूसरों को नहीं.
पिथौरागढ़ में रहते हुए मैं रोज शाम को बाजार घूमने जाता ही था. यह एक नियम था, जिसका मैंने लगभग शहर छोड़ने के आखिरी दिन तक पालन किया. मुझे लगता है उन दिनों मैं जीवन में कुछ नए की तलाश में था. कविताएं लिखकर और सुनाकर मैंने बहुत हद तक अपनी खास छवि बना ली थी. पढ़ाई में मैं खास झंडे नहीं गाड़ पाया था. मैं अंग्रेजी में बात करने के अभ्यास के साथ दूसरों पर इंप्रेशन जमाने के नए नायाब तरीके भी तलाश कर रहा था. मुझे जरूर किसी ने बताया होगा कि उस कमरे में मुफ्त में मैं बॉडी बनाकर दूसरों पर सहज ही इंप्रेशन जमा सकता था. दूसरों को इंप्रेस करने के लिए निस्संदेह बॉडी को एक औजार बनाया जा सकता था क्योंकि मैं खुद दूसरों की अच्छी बॉडी देखकर इंप्रेस होता था.
मैं शाम को करीब चार बजे उस कमरे में पहुंच जाता और उसके बाद डेढ़-दो घंटे तक शरीर में लोहा भरने का काम चलता. उन दिनों वहां मेरा एक जूनियर गुलाम अली भी आया करता था, जो दो तीन साल पहले मुझसे मेरे मुंबई के दफ्तर में मिलने आया. वह खाड़ी के देशों में व्यापार का काम करके अब वहीं के शेखों जैसा हो गया था हालांकि जैसा कि उसने मुझे बताया वह गरीब बच्चों को मुफ्त में पढ़ाने की व्यवस्था कर समाज सेवा भी करने की कोशिश कर रहा था. उन दिनों कड़े अभ्यास से मांसपेशियों से भरी हुई अच्छी बॉडी बना ली थी. उसके मुकाबले मैं कहीं न टिकता था. मुझे बाहर से देखने पर मेरी मांसपेशियों का अंदाज लगाना मुश्किल होता था, पर वे बदस्तूर थीं क्योंकि मैं उस कमरे में वेटलिफ्टिंग करने आने वाले कई दूसरे लड़कों से ज्यादा वजन उठाने लगा था.
मैं जब दो घंटे तक लगातार अपनी मांसपेशियों में लोहा भरकर बाहर बाजार में निकलता था, तो मेरी चाल आजकल के सलमान खान जैसी हो जाती थी क्योंकि फूले हुए बाईसेप्स के साथ हाथ का मूवमेंट स्वत: ही बदल जाता. बेहिसाब बेंच-प्रेस मारने से छाती भी बाहर की ओर फूली रहती और इससे हाथ भी सलमान खान की तरह शरीर के दोनों ओर उससे कुछ दूरी बनाकर गति करते थे. मुझे लगता था कि ऐसे शक्तिशाली दारासिंह सरीखे शरीर को देखकर बाहर लोग ठिठककर मुझे ही न देखने लगें, खासकर लड़कियां क्योंकि मैं उन दिनों सिर्फ बीस साल का ही तो था, इसलिए मैं यह सुनिश्चित करता था कि मैं हल्का अंधेरा घिरने के बाद ही कमरे से बाहर निकलूं और बाहर आकर भी बाजार में ज्यादा न रुकूं. लेकिन छिपते-छिपाते भी पहचान के लड़के-लड़कियां मिल ही जाते थे और उन्हें मेरे बाईसेप्स दिख ही जाते थे, ये बात और थी कि कोई मुझे सीधे-सीधे कह नहीं पाता था कि मेरे बाईसेप्स बहुत सॉलिड दिख रहे हैं.
पहाड़ में उन दिनों ऐसे मुंह पर तारीफ करने का रिवाज न था और मेरी तो वैसे भी कवि, पत्रकार और गंभीर छात्र की छवि थी. उन दिनों मैं कुजोली गांव वाले दो कमरे छोड़कर लिंक रोड के एक बड़े कमरे में आ गया था. मेरे साथ गांव के बाज्यू का बेटा भूपाल चंद उर्फ सागर कमरा शेयर कर रहा था. वह साथ था इसलिए गांव से अक्सर सब्जियां, दालें, आटा, घी, दही वगैरह आ जाता था. वह बीए कर रहा था और एक लंबे समय से बिगड़ चुके जीवन को पटरी पर लाने की कोशिश कर रहा था. इस काम में मैं भी उसका यथोचित सहयोग दे रहा था. चूंकि मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और पढ़ने में उससे कहीं बेहतर था और इसलिए भी कि मेरी शहर में छवि अच्छी थी कमरे में झाड़ू लगाने और खाना बनाने जैसे कामों को लेकर हमारी एक सहज आपसी समझ बनी हुई थी जिसके मुताबिक ज्यादातर ऐसे काम उसे ही करने पड़ते थे.
जब तक मैं देवसिंह फील्ड के ऊपर स्थित उस कमरे में जाकर बॉडी बिल्डिंग नहीं कर रहा था, कामों के ऐसे थोड़े एकतरफा बंटवारे के बावजूद उसे कोई शिकायत नहीं थी क्योंकि दो-चार रोटियां तो हम चार अंडे के ऑमलेट के साथ ही खा लेते, लेकिन जब से मैंने शरीर की मांसपेशियों में लोहा भरना शुरू किया, मेरा खाना बढ़ गया. मैं भोजन करने बैठता तो मेरा पेट सुरसा के मुख की तरह खुलता ही चला जाता. भूख मिटने को नहीं आती और मैं रोटी पर रोटी खाता जाता. चूंकि वह हाथ के हाथ रोटियां बना रहा होता था, तो पता नहीं चलता, लेकिन एक दिन उसने तंग आकर रोटियां गिनीं. मैंने चौबीस रोटियां खाईं. रोटियों के साथ चार अंडों का ऑमलेट, आलू टमाटर की तरीदार सब्जी, एक कटोरा दही और गांव से आया दो चम्मच घी भी मेरे रात के भोजन में शुमार था.
मैं रात को खाता था और सुबह उठते-उठते पाखाना जाता था क्योंकि उठते ही पेट में मरोड़ उठनी शुरू हो जाती थी. जिम तो आज भी मैं जाता हूं और वेट लिफ्टिंग के साथ-साथ उन दिनों जैसा व्यायाम भी करता हूं, लेकिन मजाल है कि कभी दो से ज्यादा रोटियां खा ली हो. सोचता हूं तो कई बार मुझे अपना इस तरह चौबीस-चौबीस रोटियां और साथ में इतना सबकुछ खाना बहुत हैरान करता है. पर फिर पहाड़ों की ठंड और अपनी बीस साल की उम्र के बारे में सोच इस पर यकीन करना ऐसा असंभव भी नहीं लगता.
लेकिन एक बात ऐसी है जो मेरे लिए आज तक पहेली बनी हुई है. जबकि मैं इस तरह का भोजन कर रहा था और रोज दो-दो घंटे वेट लिफ्टिंग कर सलमान खान की तरह छाती फुलाए चल रहा था और भीतर से भी अपनी भुजाओं और लगभग छप्पन इंच की हो चुकी छाती में छटपटाती शक्ति को महसूस कर रहा था, दूसरे लोगों का इन सब पर ध्यान क्यों नहीं जा रहा था. संभवत: लोगों के ध्यान को खींचने के लिए ही मैंने फैसला किया कि मैं शरदोत्सव में होने वाली पावर लिफ्टिंग प्रतिस्पर्धा में अपने वजन के वर्ग में हिस्सा लूंगा. उन दिनों मेरा वजन पचपन किलो था. (Sundar Chand Thakur Memoir 67)
शरदोत्सव में हुई प्रतिस्पर्धा में मैंने कमाल करके दिखाया और सात प्रतिभागियों के बीच दूसरे स्थान पर रहा. हमारी जब प्रतिस्पर्धा चल रही थी, तो दर्शकों में हमारे प्रतिभागियों के दोस्तों के सिवाय कोई और न था. यह मेरा नसीब था कि प्रतिस्पर्धा के विजेताओं की घोषणा हो जाने के बाद जब मैं शरदोत्सव में सजी दुकानों को देखते हुए अकेला ही टहल रहा था, तो हमारी कक्षा की कुछ लड़कियां मुझे दिखाई पड़ गईं. वे लड़कियां जैसे ही मेरे सामने आईं मैंने एक भी क्षण गंवाए बिना उन्हें पावर लिफ्टिंग प्रतिस्पर्धा के परिणाम के बारे में बताया कि मैं पूरे जिले में दूसरा आया हूं. उन लड़कियों को पावर लिफ्टिंग के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, ऐसा भांपते हुए मैंने उन्हें प्रतिस्पर्धा के बारे में ठीक से समझाया. गर्मियों के दिन होते तो मैं उन्हें अपने गर्म और फूले हुए डोले भी दिखाता, पर वह अक्टूबर का महीना था और सूरज ढलने के बाद की ठंड में स्वेटरें तो निकल ही आती थीं. मैंने भी स्वेटर पहनी हुई थी, इसलिए डोले तो नहीं दिखा पाया, पर मैंने उन्हें हाथ में पकड़ा हुआ उन दिनों शायद पचास रुपये में मिलने वाला पीतल का छोटा-सा कप जरूर दिखाया. कप देखकर ही वे ऐसी प्रतिस्पर्धा में मेरे दूसरे नंबर पर आने को लेकर आश्वस्त हुईं और उन्होंने मुझे औपचारिक रूप से बधाई दी. वे जब बधाई देकर आगे बढ़ गईं, तो उनके कुछ दूर जाने पर मुझे उनकी हंसी की आवाज सुनाई दी. पता नहीं क्यों मुझे लगा जैसे कि उनका हंसना मुझसे जुड़ा था. पर हंसने जैसी तो मैंने उनसे कोई बात कही न थी.
यह अगले दिन कॉलेज में था कि मुझे उनकी हंसी की वजह पता चली. मुझे किसी मित्र ने बताया कि लड़कियों के बीच मेरा एक नया नामकरण हुआ है. वे मुझे भिंडी पहलवान कहकर बुला रही हैं. नाम से उसका अर्थ सहज ही समझ आ रहा था. भिंडी पहलवान यानी ऐसा शख्स जिसका शरीर तो भिंडी जैसा पतला हो लेकिन जो खुद को पहलवान समझता हो. जाहिर था कि यह नाम उन्हीं लड़कियों ने रखा था जिन्हें मैंने अपनी पहलवानी की बात बताई थी. अब मुझे उस दिन उनकी हंसी की वजह समझ आई. जरूर उन तीनों में से किसी एक ने मुझसे जरा-सी दूरी बन जाने के बाद भिंडी पहलवान वाला नामकरण किया होगा और इसी पर तीनों हंसी होंगी. मुझे उनकी हंसी पर कोई ऐतराज नहीं था क्योंकि अपने शरीर को तो मैं भी देख ही रहा था. रोज रात को चौबीस रोटियों वाला डिनर करने के बाद भी उस शरीर पर कुछ रुकता ही न था. यह कई सालों बाद भारतीय सेना में कमिशन लेने के उपरांत सोमालिया में तैनाती के दिनों में लगभग साल भर तक रोज बियर पीने और मुर्गा खाने के बाद ही हो सका कि मेरा वजन पचपन से बढ़कर अठावन किलो पहुंचा. (Sundar Chand Thakur Memoir 67)
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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