पहाड़ और मेरा जीवन – 59
(पिछली क़िस्त: बीना नायर का वह सबके सामने मेरे दाहिने गाल को चूम लेना)
पिता के साथ बड़वाह से जो मैं ट्रेन में सवार हुआ, तो मन में बीना नायर से मिले चुंबन की उमंग थी. वह उमंग ऐसी थी कि मैं उसका प्रभाव रहने तक जहन्नुम में भी आनंद से भरा रह सकता था. उस चुंबन में ऐसा कुछ नहीं था, जिसे हम प्राइवेट की श्रेणी में रखें, जिसके लिए एकांत अनिवार्य हो. यह सत्य कि वह सार्वजनिक रूप से दिया गया था इस बात का सबूत है कि उसका जन्म एक पवित्र भाव से हुआ था. दोस्ती एक पवित्र रिश्ता ही है और किशोर वय की दोस्ती से ज्यादा पवित्र कुछ नहीं हो सकता. और दो महीने पुरानी दोस्ती सबसे ज्यादा पवित्र होती है क्योंकि तब तक हमने एकदूसरे के अंधेरे कोनों में नहीं झांका होता. Sundar Chand Thakur Memoir 59
मैं अपने तब तक के जीवन की सबसे बड़ी इस क्रांतिकारी घटना के असर में इस कदर डूबा रहा कि मुझे पता ही नहीं चला कि कब हम लोग ट्रेन में बैठे और कब ट्रेन चली. यह घटना मेरे अस्तित्व के बोध को प्रभावित कर रही थी क्योंकि अचानक मुझे अपना स्व महसूस हो पा रहा था. बीना नायर मेरे गाल पर अपना निर्दोष, निश्छल चुंबन जड़कर मुझे होश में ले आई थी. लड़कों के स्कूल में पढ़ने वाले लड़कों के मन में लड़कियों के सामीप्य को लेकर बहुत से अंतर्विरोध जन्म ले लेते हैं. ऐसे लड़कों को समाज भी सहज तरीके से जीने नहीं देता. राजस्थान में भी मैंने लड़कों के स्कूल में ही पढ़ाई की थी. Sundar Chand Thakur Memoir 59
मैं पिछले किसी संस्मरण में बता चुका हूं कि अर्चना वर्मा से पिथौरागढ़ की बाजार में आमना-सामना होने पर कैसे मेरे गाल कनपट्टियों तक सुर्ख हो गए थे. ऐसा लगता था कि लड़कियों का सामीप्य हमारे लिए सिर्फ सपनों में संभव है, बीना नायर को शायद पता भी न चला होगा कि सबके सामने उस तरह मेरे गालों को चूमकर उसने मुझे बेवजह की कितनी ही ग्रंथियों में उलझने से बचा लिया था. Sundar Chand Thakur Memoir 59
यह पिता के दांत का दर्द था जिसने मुझे बीना के चुंबन की याद से बाहर निकाला. हम बिना रिजर्वेशन वाले जनरल डिब्बे में बैठे थे. मुझे याद नहीं पड़ता पिताजी ने परिवार को आरक्षित डिब्बे में भी कभी रेल यात्रा करवाई थी. डिब्बे में इतनी भीड़ थी कि खड़े रहना भी मुहाल था. हम अपना सामान किसी तरह एडजस्ट कर खड़े-खड़े ही यात्रा कर रहे थे. कुछ घंटों बाद जरूर हमें सीट मिल गई. लेकिन दोनों को अलग-अलग कंपार्टमेंट में सीट मिली. भीड़ का आलम यह था कि राजस्थान से गुजरते हुए मैं पिता के लिए पानी लेने स्टेशन पर उतरा तो वापस चढ़ते हुए गेट पर घुसने की जगह न मिली. इस डर से कि कहीं ट्रेन छूट न जाए मैंने जोर लगाकर घुसने की कोशिश की. तब मुझे अहसास हुआ कि मैं जेब काटने वाले गिरोह के बीच था. पर्स के लायक उन दिनों पैसे होते नहीं थे. मैंने पिछली जेब में बहुत ऐहतियात से एक सौ का नोट रखा हुआ था. मेरा हाथ अपने आप पिछली जेब पर चला गया. Sundar Chand Thakur Memoir 59
उस गिरोह को इस बात का अंदाज हो गया कि मुझे जबकतरों के बीच होने की भनक लग गई है. तभी मैंने पिछली जेब पर किसी का हाथ महसूस किया. मैंने पूरी ताकत से उसे दबोच लिया. क्यों बे, जेब में क्यों हाथ डाल रहा है, मैं डपटकर उस पतले-दुबले लड़के पर चिल्लाया, जो शक्ल से ही बदमाश दिख रहा था. ट्रेन अब रेंगना शुरू हो गई थी. वह लड़का अपना हाथ छुड़ाकर स्टेशन की ओर भाग गया. उधर वह भागा और इधर दरवाजे पर खड़े लड़के भी अंदर चले गए. मैं ऐन टाइम पर ट्रेन में चढ़ गया. कुछ समय तक मैंने अपने दिल की धड़कनों को महसूस किया. हां, थोड़ा तो मैं घबरा ही गया था. मेरे पास वही सौ रुपये थे. उन दिनों का वह सौ रुपया आज के दस हजार के बराबर होगा.
वह नोट तो बच गया पर अब दूसरी मुश्किल शुरू होने वाली थी. पिताजी का दांत का दर्द बढ़ गया और उन्हें हल्का बुखार भी शुरू हो गया. उन्होंने बचपन से अब तक जैसी और जितनी दुश्वारियों में जीवन जिया था, वे मानसिक रूप से बहुत कठोर हो चुके थे. इसलिए जानता था कि वे मुझे कुछ नहीं बोलने वाले थे. मैंने रास्ते में किसी स्टेशन पर उनसे खाने के लिए पूछा, तो उन्होंने इंकार कर दिया. बच्चों से उन्होंने कभी कोई काम करवाया ही नहीं था. मैंने अपनी जेब कटने से बचने और बीना नायर के चुंबन को याद करते हुए पूरी रात सीट पर बैठे-बैठे काटी. सुबह जब हुई तो पाया कि हम राजस्थान में ही किसी स्टेशन में हैं. इस ट्रेन से हमने खटीमा पहुंचना था. हम शायद पहले बरेली जा रहे थे. डिब्बे में इतनी गर्मी थी कि मुझे बीच-बीच में पसीना सुखाने के लिए हवा खाने दरवाजे पर जाकर खड़े होना पड़ रहा था. सुबह मैंने आइने में देखा कि मेरा पूरा चेहरा काला पड़ चुका था क्योंकि मैंने ध्यान नहीं दिया कि दरवाजे पर खड़े रहने की वजह से इंजन से निकलने वाला धुआं न सिर्फ मेरे चेहरे से चिपक गया था उसके बारीक कण मेरे बालों में भी भर चुके थे. बाल झाड़े तो पूरे वॉशबेसिन में काला पाउडर फैल गया. टॉयलेट बेतरह बदबूदार था. किसी तरह फ्रेश होकर आया. पिताजी इस वक्त खर्राटे मारते हुए सो रहे थे. मुझे सुकून मिला कि वे दर्द से कराह नहीं रहे. मैंने एक कुल्हड़ वाली चाय ले ली. बाहर सूर्योदय के बाद की उजास फैल गई थी. अब तक मैं बीना के चुंबन और जेब कटने के हादसे से बचने के प्रभाव से पूरी तरह बाहर निकल चुका था और अब मुझपर मेरा वर्तमान हावी होने लगा था. कुछ ही देर में पिताजी जागकर दर्द से कराहते हुए बैठ गए. कुछ देर बाद उन्होंने साथ बैठे एक सज्जन के कहने पर दांत के दर्द को कम करने के लिए टूथपेस्ट का इस्तेमाल किया. और दर्द वाकई कम हो गया. उनका दर्द तो कम हो गया पर मेरा दर्द कम न हो रहा था. मैं इस खत्म न होती यात्रा से बेतरह खीझ चुका था और अब मन ही मन पिताजी को कोस रहा था कि उन्होंने किसी बेहतर ट्रेन में टिकट क्यों नहीं लिया. हम तीसरे दिन जाकर खटीमा पहुंचे. बुरी तरह लस्त-पस्त. Sundar Chand Thakur Memoir 59
यह खटीमा से झनकट के बीच अपने बैग के साथ करीब दस-बारह किलोमीटर का सफर था जिस दौरान मुझे अपने पिताजी के व्यक्तित्व के छिपे पहलुओं को जानने का मौका मिला. पिताजी के पास पैसे रहते नहीं थे. उनके लिए अपनी शराब के अलावा दूसरी कोई चीज अहम न थी. यह पैसे बचाने के लिए ही था कि वे मुझे बोझ के साथ इतना लंबा सफर करवा रहे थे. हालांकि बोझ तो उन्होंने भी उठा रखा था. लंबा सफर था, सो समय काटने के लिए पहली बार उन्होंने मेरी बातों का गंभीरता से और बातचीत में पूरी तरह शामिल होकर जवाब दिया.
मैंने उनसे पूछा कि आपने सात बार फौज में अफसर बनने की लिखित परीक्षा पास की लेकिन ऐसा क्या कि हर बार इंटरव्यू में फेल हो गए. किसी से थोड़ी सिफारिश नहीं लगा सकते थे क्या? पिताजी को लेकर यह सवाल अक्सर मेरे मन में उठता था. पिताजी ने मेरी उत्सुकता को शांत करते हुए अपने इंटरव्यू के बारे में विस्तार से बताया कि पहले छह इंटरव्यू में तो उन्हें हर बार लगा कि उनका चयन हो जाएगा पर नहीं हुआ. छठे इंटरव्यू के बाद उन्हें अपनी कामयाबी का इतना यकीन था कि उन्होंने गांव में नया घर भी बनवा लिया कि वे इसी घर में लोगों को बुलाकर पार्टी देंगे. लेकिन इस बार भी निराशा ही मिली. सातवीं बार जब इंटरव्यू था, तो उन्होंने उन दिनों पहाड़ के एक बड़े अफसर से मिलने की कोशिश की पर नाकाम रहे. किसी तरह हिम्मत कर उन्होंने अपने इंटरव्यू को लेकर एक दूसरे अफसर तक संदेश भिजवाया. यह दूसरे अफसर भी पहाड़ के चंद राजाओं के वंशज थे. किसी ने पिताजी को चंद-चंद का मेल होने पर मिलने वाले फायदे की पट्टी पढ़ाई थी. उस अफसर तक संदेश पहुंच जाने की खबर मिलने के बाद पिताजी अपने चयन को लेकर बहुत आशान्वित हो गए थे और संभवत: यही वजह थी कि चयन न होने की खबर पाकर वे अवसाद में उतरते चले गए, इतना गहरे कि फिर पूरे जीवन उससे उबर न सके.
उस पैदल यात्रा के दौरान मैंने उन पर सवालों की बौछार कर दी थी क्योंकि अपने पिता के बारे में मैं कुछ नहीं जानता था और मुझे लग रहा था कि उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा बातें जानने का ऐसा मौका शायद मुझे फिर कभी न मिले. मैंने उनसे उनके शौक के बारे में पूछा. यह जानकर मुझे सुखद हैरानी हुई कि पिताजी ने युवतर दिनों में कविताएं भी लिखीं और वह भी अंग्रेजी में. अब मुझे समझ आ रहा था कि मैं भी कम उम्र से ही कविताएं क्यों लिखने लगा था.
मैंने उनसे जिद की कि एक कविता तो सुनाएं और उन्होंने मुझे एक कविता सुनाई –
द नेवर एंडिंग स्काई
द मून एंड द स्टार्स
द ब्युटिफुल अर्थ
एवरीथिंग विल ऑलवेज रिमेन
ओन्ली वी विल नॉट बी देयर
टु विटनेस द ब्यूटी
कविता सीधे मेरे दिल में उतर गई. वह थी ही ऐसी. उसमें कुछ ऐसा तत्व था जो अचानक मुझे उदास कर गया. मुझे याद है पिता और मैं सुस्ताने के लिए उसी वक्त एक पेड़ के नीचे बैठ गए. दोपहर की धूप थी. मुझे पिता का चेहरा बहुत क्लांत लगा. वह अपने अवसाद से लड़ते हुए थक गए थे. आज सोचता हूं उन्होंने अपने अवसाद से लड़ने का कितना गलत तरीका चुना. वे उसी उम्र में गुजर गए जिस उम्र में मैं आज हूं. वह भी क्या कोई उम्र थी पिताजी ये दुनिया छोड़कर जाने की. जाने कितनी बार मैं यह सवाल कर चुका हूं. क्या करूं उनका जिक्र आते ही मेरे जहन में यही सवाल उठ खड़ा होता है.
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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