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बीना नायर का वह सबके सामने मेरे दाहिने गाल को चूम लेना

पहाड़ और मेरा जीवन – 58

(पिछली क़िस्त: मनोज भट उर्फ गब्बू से पढ़े गणित के ट्यूशन के नहीं दिए गए पैसों का किस्सा

बारहवीं की परीक्षाओं के बाद ऐसी स्थिति बनी कि कुछ महीने एकदम खाली थे. तय हुआ कि मैं उन दिनों मध्यप्रदेश में बड़वाह नामक जगह में सीआईएसफ के ट्रेनिंग सेंटर में तैनात अपने पिता के पास जाऊं. मां और छोटी बहन भी उनके साथ ही रह रही थीं. मैं राजस्थान में आठवीं की परीक्षा देकर पिथौरागढ़ आ गया था और तब से अपनी मां और छोटी बहन से नहीं मिल पाया था. बड़ा भाई भी कुछ समय वहां रहकर आया था. उन दिनों उसने हम दोनों में सिर उठाकर बड़ा आकार लेते ईगो को संतुष्ट करने वाली एक बात बताई थी. वहां सेंटर में क्वॉर्टर गार्ड के आगे से सड़क जाती थी. क्वॉर्टर गार्ड में हथियार रखे जाते हैं जिनकी रखवाली के लिए वहां जवानों की एक टोली तैनात रहती है. क्वॉर्टर गार्ड के सामने से कोई भी अफसर गुजरता, तो ये जवान उसे सलामी देते हैं. सलामी देने का अंदाजा बहुत आकर्षक होता है. सैनिकों की टुकड़ी का लीडर पूरी आवाज में सलामी शस्त्र का कमांड देता है और बाकी सैनिक राइफल को उछालकर पिछले पैर से जमीन पर आवाज करते हुए उसे सलामी की मुद्रा में लाते हैं. Sundar Chand Thakur Memoir 58

एक दिन बड़ा भाई किसी काम से क्वॉर्टर गार्ड के सामने से जा रहा था. उसने सफेद रंग की नेकर पहनी हुई थी, जैसी सीआईएसएफ के अफसर पहनते हैं. जैसे ही भाई क्वॉर्टर गार्ड के सामने पहुंचा वहां से लीडर ने कड़क आवाज में बाकी जवानों के साथ उसे सलामी ठोक दी. एक पल को तो वह घबरा ही गया. पर जो हो चुका था उसे वापस कैसे किया जाता. बेहतरी इसी में थी कि वह अफसर की तरह बर्ताव करते हुए वहां से निकल ले. वैसे सलामी मिलते ही अपने आप उसकी चाल में अफसरपना आ गया. भाई ने जब यह बात बताई तो मुझे बहुत हंसी आई. वैसे भाई के लिए सैनिकों की सलामी मिलने से ज्यादा फख्र की बात यह हुई कि ट्रेनिंग सेंटर के कमांडेंट ने उसे अपने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का न्योता दे दिया, जिसे उसने सहर्ष स्वीकार किया और दो महीने कमांडेंट के घर जाकर उनके बच्चों को पढ़ा हमारे पूरे परिवार का नाम किया क्योंकि सेंटर में यह बात आग की तरह फैल गई कि मेजर (नॉन कमीशंड ऑफिसर्स के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला बोलचाल का शब्द) ठाकुर का बेटा बहुत होनहार है.

बड़े भाई ने लौटकर मुझे ये सब बातें बताईं. उसने मां, बहन और पिताजी के बारे में भी बहुत कुछ बताया. जाहिर है कि बड़वाह पहुंचने तक मैं बहुत कौतुहल और उत्तेजना से भर चुका था. मैं खासकर सफेद नेकर पहनकर क्वॉर्टर गार्ड के सामने से गुजरना चाहता था और झूठ क्यों कहूं, मन ही मन, तो मैं कमांडेंट के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने की मीठी कल्पना भी कर ही रहा था. मैं छोटी बहन को देखने और उसे लाड़ करने को भी बहुत उतावला हो रहा था. उसे बड़े भाइयों का प्यार मिल ही कहां पाया था. आज जब याद करता हूं तो छोटी बहन और बचपन की मेरी बेटी में मुझे कोई फर्क नहीं दिखता.

जम्मू में हम तीनों भाई बहनों की एक तस्वीर है, जिसमें मैं सावधान की मुद्रा में खड़ा हूं और बीच में काले रंग की मैक्सी पहने छोटी बहन और साथ में बड़ा भाई खड़ा है. मुझे लगता है बस यही एक तस्वीर है हमारे पूरे बचपन की जिसमें हम भाई बहन साथ खड़े हैं. बहन तब तक पांचवीं कक्षा में आ गई थी और एक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रही थी. यह सोचकर भी कि हमारी इतनी खराब हालत होते हुए भी वह अंग्रेजी स्कूल में पढ़ती है, मेरा अहं फूल जाता था. 

बड़वाह पहुंचने के बाद दिन कैसे गुजर गए, पता ही नहीं चला. मेरे पास वक्त इफरात में था. मैं खाना खाता था, सोता था और डायरी लिखता था. मां से भी बहुत बातें होती थीं. मां से मुझे पिताजी के किस्से ज्यादा जानने को मिले कि यहां उन्होंने शराब पीकर क्या-क्या गुल खिलाए. पिताजी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह थी कि वे पीने के बाद जोर-जोर से बोलने लगते थे. एक दिन वे बाहर मार्केट में जाकर पीकर आए. कोई भलामानस उन्हें सेंटर के गेट पर छोड़कर गया, जहां से मेरी मां को बुलाया गया. मां ने पड़ोसन के पतियों को हाथ जोड़े और आधी रात पिताजी को नशे से धुत हालत में घर लाया गया.

एक बार और वे सेंटर में ही अपने दोस्तों के साथ पीकर आउट हो गए. उनके इस तरह पीकर आउट होने के किस्से बनने लगे. एक बार पीने से रोकने के लिए उन्हें क्वॉर्टर गार्ड में ही नजरबंद करके रखा गया. मां को यह सब अकेले ही झेलना पड़ा था. उसने बहुत ही मजबूत दिल के साथ वे सारी स्थितियां झेली होंगी. हमें देखकर उसे थोड़ा सुकून मिला होगा कि कोई तो है जो उसके साथ है. इसी सांत्वना से उपजी भावनाओं में बहकर उसने पिता की तमाम करतूतें हमारे सामने उजागर कीं. हालांकि मैं तब भी अपने पिता को बहुत गर्व से देखता था क्योंकि मेरे भीतर का कवि उन्हें विपरीत स्थितियों के बीच अकेले लड़ते हुए व्यक्ति के रूप में देखता था.

मुझे लगता था कि वे असल में अफसर बनने की कूवत रखते थे पर दुर्भाग्य से बन नहीं पाए और अब उनके सामने शराब के अलावा ऐसा कुछ चमकदार न बचा था, जिसकी आकांक्षा में वे दिल लगाकर जीवन गुजारते. जिन्हें उनकी कहानी पता न हो उनके लिए इतना जानना जरूरी है कि वे दसवीं तक पढ़ाई करने के बाद फौज में भर्ती हो गए थे और फौज में नौकरी करते हुए उन्होंने सात बार लिखित परीक्षा पास कर सर्विस सिलेक्शन बोर्ड का इंटरव्यू दिया था और उन्हें हर बार असफलता झेलनी पड़ी थी. उसी के बाद उनका दिमाग असंतुलित हुआ था और वे फौज छोड़कर चले आए थे. यहां अब वे परिवार की गुजर-बशर के लिए दोबारा नौकरी कर रहे थे. इस नजरिए से देखते हुए मैं पिता के सौ खून भी माफ कर सकता था. मां की शिकायतों पर मैं हैरान होता था, पर मुझे पिता पर गुस्सा तो फिर भी नहीं आया. अलबत्ता मैं पिताजी को खुश करने के लिए कोई बड़ा काम करने की फिराक में रहता. इसलिए मैंने भी मां से कहा कि वह मेरे लिए ट्यूशन खोजे. मैं सफेद नेकर पहनकर कई बार क्वॉर्टर गार्ड के आगे से निकला कि जैसे बड़े भाई को अफसर समझ वहां खड़े गार्डों ने उन्हें सलामी दे दी थी, मेरे साथ भी ऐसा कुछ हो जाए, मेरी ओर भी किसी बड़े अधिकारी का ध्यान जाए और मुझे भी उनके बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने की पेशकश हो. मैं धड़कते दिल के साथ एक हाथ नेकर की जेब में डाले और दूसरे से अपनी जुल्फें संवारते क्वॉर्टर गार्ड के सामने से गुजरा कि अब आई कि तब आई गार्ड की सलामी देने की आवाज, मगर वहां तो किसी ने हूं की चूं नहीं की.

मुझे सलामी तो नहीं मिली पर मां ने जल्दी ही तीन-चार ट्यूशनों का जुगाड़ कर दिया. हमारे सामने वाले ब्लॉक में ही एक सरदार जी रहते थे, जो बैंड मास्टर थे यानी परेड करवाने वाले बैंड के आगे हाथों में चमकदार ऊंची छड़ी लेकर चलते थे. उनके बेटे थे विक्की और लाली और एक बेटी थी सोनू. सोनू की अब शादी हो चुकी और विक्की की भी. दोनों अमेरिका में हैं. लाली एक जूते की कंपनी में सेल्स का हेड है.

मैं जब इन बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता था, तो इनके ठीक ऊपर वाले घर में एक दक्षिण भारतीय नायर परिवार रहता था. इस परिवार में दो जुड़वा बहनें थीं- लीना और बीना नायर. दोनों ने कॉलेज के फर्स्ट इयर की परीक्षाएं दी थीं. यानी पढ़ाई में वे मुझसे एक साल सीनियर थी. ये दोनों बहनें बाकी बच्चों के साथ घर के बाहर खुली जगह में बांस के दो खंभे गाड़ नेट बांधकर एक कामचलाऊ कोर्ट में बैडमिंटन खेला करती थीं. मैं खुद बैडमिंटन का खिलाड़ी था, सो जल्दी ही मैं भी उनके और दूसरे बच्चों के साथ खेलने लगा. देखते-देखते हमारी दोस्ती बढ़ने लगी.

एक बार हम पास में बह रही एक नदी के किनारे पिकनिक मनाने भी गए. बच्चों की माताएं भी साथ थीं. मैंने यह महसूस किया कि लीना और बीना दोनों बहुत ही घरेलू और निश्छल लड़कियां थीं, जिनके जीवन में अच्छे दोस्तों का निर्वात था. इसलिए मुझसे उनकी घनिष्ठता बढ़ने में देर नहीं लगी. एक बार बीना बीमार पड़ गई और दो दिन तक नीचे नहीं आई. खबर मिली तो मैं उनके घर उसे देखने गया. जिस बिस्तर पर वह लेटी हुई थी मैं उसी के पायताने बैठा. उसकी मां जब मेरे लिए पानी लेने हमें अकेला छोड़कर गई, तो बीना ने एक ऐसी बात कही, जो आज तक मेरे जहन में अटकी हुई है. उसने मेरी ओर अपनी आंखों में पानी भरकर कहा – अब तुम आ गए मुझे पूछने, तो देखना सुबह तक बिलकुल ठीक हो जाऊंगी. इस वाक्य में एक शिकायत भी छिपी हुई थी कि मैं पहले क्यों नहीं उसे देखने. और वह सचमुच अगले दिन ठीक भी हो गई.

मैं बड़वाह में दो महीने के करीब रहा. वहां से मुझे वापस पिथौरागढ़ लौटना था, जहां मैं अब कॉलेज की लाइफ शुरू करने वाला था और इसके लिए बहुत उतावला था. वापसी में पिताजी मेरे साथ आ रहे थे. उन्होंने ही किसी ट्रेन में टिकट लिया था. हमारे पास एक सूटकेस और दो बैग थे. सूटकेस पुराना था जिसके ऊपर चमड़े की चेपी लगी हुई थी. यानी वह पहले किसी दुर्घटना का शिकार हो चुका था- कोई उसे खोल पाने में अक्षम रहने पर उसके प्लास्टिक को काटकर अंदर का सामान ले उड़ा था. जाहिर है ऐसा हादसा उसी के साथ हो सकता था, जो बेहोशी में सफर करने का आदी हो. मेरे पिताजी ऐसा ही करते थे इसलिए यात्राओं में उनके साथ अजीबोगरीब दुर्घटनाएं होती रहती थीं. मां ने मुझे आगाह किया था कि मैं सफर के दौरान सतर्क रहूं. पिता ने स्टेशन जाने के लिए बाजार से तांगा बुलवा लिया था. हमें छोड़ने के लिए आसपास के कुछ लोग जमा हो गए थे. मां, छोटी बहन, सरदार अंकल का परिवार, लीना, बीना और उनकी मां. दो महीने रहने के बाद सबसे एक अपनत्व-सा हो गया था. मां तो रो रही थी. मैंने जब उनके पैर छुए और सबकी ओर घूमकर नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़ तांगे की ओर कदम बढ़ाए, तो अचानक बीना मेरी ओर आई और आंसुओं से भरी आंखे लिए उसने दोनों हाथों से मेरा सिर पकड़ मेरे दाहिने गाल को चूम लिया. यह मेरे अब तक के जीवन में किसी हमउम्र लड़की से मिलने वाला पहला चुंबन था. दोनों ही बहनों ने एक दिन पहले ही उन दिनों आर्चीज की दुकान से मिलने वाली रंगबिरंगे पन्नों वाली डायरी में मेरे लिए अपने हृदय के उद्गार लिखे थे. उसमें बीना ने चार लाइनों में कोई बहुत खूबसूरत बात लिखी थी, जिसका मतलब था कि जीवन में कुछ भी करना पर मुझे मत भूलना. मैं आज बीना को बताना चाहता हूं कि मैं सचमुच उसे नहीं भूला. इसीलिए तो लिख रहा हूं उसके बारे में इतना डूबकर और इतना कुछ.

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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Girish Lohani

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