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मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं, परिस्थितियां उसकी गुलाम हैं

पहाड़ और मेरा जीवन – 52 ( Sundar Chand Thakur Memoir)

(पिछली क़िस्त: इस विपुला पृथिवी को मैं जानता ही कितना हूं)

शीर्षक में इस्तेमाल की गई उपरोक्त पंक्ति ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा के दिनों की मेरी डायरी में दर्ज है और जहां तक मुझे याद है मैं बहुत समय तक इस पंक्ति को अपनी ईजाद मानता रहा था. मैं खासकर अपने से छोटे बच्चों से बातें करते हुए उन्हें यह लाइन जरूर बोलता था. एक और पंक्ति जिसका मैंने बहुत इस्तेमाल किया और जो बाद में मेरे भतीजे उन्मुक्त को भी कंठस्थ हो गई, वह भी इसी डायरी के पहले पन्नें में दर्ज है – Do what you are doing by the best way of doing that. कालांतर में मैंने इसे बदलकर Do whatever you are doing in the possible way of doing it कर दिया था. डायरी में इन सूक्तियों को पढ़कर मैं उतना नहीं चौंका, पर 2 जनवरी 1986 के दिन डायरी में जो दर्ज है, उसे पढ़कर मैं हैरान रह गया क्योंकि अब इक्यावन साल की उम्र में जबकि मैं ज्यादातर तथाकथित बुरी आदतों व लतों से लगभग बाहर निकल चुका हूं और जीवन ने मुझे जो भी सिखाया उसे थोड़ी गंभीरता से आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित कर देना चाहता हूं और उसके लिए आए दिन जिस सामग्री यानी कंटेंट का विडियो बनाकर सोशल मीडिया के सुपुर्द कर रहा हूं, लगभग वही कंटेंट मुझे यहां पढ़ने को मिला. ( Sundar Chand Thakur Memoir)

यानी मेरी तामसिक जीवनशैली यूं ही नहीं थोड़ी सुधरकर आध्यात्मिक रंग में निखरना शुरू हुई, वे तत्व कहीं भीतर बहुत पहले से मौजूद थे. एक बार पुन: मैं यहां डायरी की पंक्तियां हूबहू दे रहा हूं ताकि आपको भी यकीन आ सके कि वाकई वे तत्व बहुत पहले से भीतर छिपे हुए थे, बीज रूप में– “मानव हृदय वास्तव में अत्याधिक चंचल होता है. इसमें जितनी तीव्रता से विचारों का आगमन होता है, प्रत्यागमन भी उसी तीव्रता से हो जाता है. मानव आत्मा उस दीप शिखा के समान है जिससे प्रकाश रूपी सत्य, सद्गुण सभी गुणों के परिमार्जित लक्षण चारों दिशाओं में रोशन होते हैं. प्रत्येक मानव की आत्मा लगभग समान ही होती है. कठोर से कठोर हृदय, क्रूर से क्रूर मानव में भी आत्मा के कई गुण जैसे दयालुता, विनम्रता आदि छिपे होते हैं. लेकिन तब भी सभी प्रकार के मनुष्य इस धरा पर हैं. कोई क्रूर तो कोई दयालू. कोई कठोर तो कोई विनम्र. जब सबकी आत्मा एक जैसी तो यह अंतर क्यों? बस यहीं पर तो असर है परिज्स्थितियों का. खुद मानव द्वारा उत्पन्न परिस्थितियां ही आत्मा के प्रकाश को सोख लेती हैं व निस्सहाय पड़े मानव को मजबूर कर देती हैं कि वह क्रूर अथवा कठोर बने. फिर स्वयं में कितना आत्मबल है, यह भी हमें परिस्थितियों के वश में हो जाने से बचाने की चेष्टा करता है. युद्ध होता है इसके और परिस्थितियों के बीच. यदि स्वयं का आत्मबल दृढ़, मजबूत व शक्तिशाली है, तो क्या मजाल कि परिस्थितियां हम पर हावी हो जाएं वरन् हम परिस्थितियों पर हावी हो जाएंगे एवं परिस्थितियां हमारी दास बन जाएंगी. बस यही तो जीवन में पाई सबसे बड़ी विजय होगी.” ( Sundar Chand Thakur Memoir)

अब मुझे समझ आता है कि उन संघर्ष भरे दिनों में भी कई बार जब हम पर अंधकार टूटकर गिरा, तब भी क्यों मैंने हार नहीं मानी बल्कि और दृढ़ता के साथ मैंने कदम बढ़ाए. संभवत: मेरे दिमाग में यह बात घर कर चुकी थी कि कैसी भी परिस्थितियां हों, इंसान के आत्मबल को वे पराजित नहीं कर सकतीं. इस डायरी में चौंकाने वाली बातों का सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता. बल्कि अब मैं आप लोगों को 1986 के पहले दिन यानी 1 जनवरी की डायरी के पन्ने से कुछ हिस्से पेश कर रहा हूं, जिन्होंने मुझे अचरज में डाला कि क्या वाकई ऐसा सोचने वाला मैं ही था और क्या उस कच्ची उम्र में, पिथौरागढ़ जैसे सीमांतीय जिले में रहते हुए, मैं अपने सोच में इस हद तक परिपक्व हो चुका था? आप भी पढ़िए परिपक्वता की यह बानगी और कृपया पढ़ते हुए याद रखें कि मैं नवीं से लेकर बारहवीं तक बड़े भाई के साथ पिथौरागढ़ में किराए के कमरे में रहा था और इस दौरान अपनी मां से एक बार भी नहीं मिल सका था क्योंकि हमारे पास इतने पैसे न थे कि मैं ऐसा कर पाता. इस पृष्ठभूमि में पढ़ें मैंने जो इस डायरी में लिखा – “नये वर्ष के आगमन पर हृदय से विभिन्न प्रकार की भावनाएं विस्फूटित हो रही हैं. सर्वप्रथम मैं यही कहना व सोचना चाहूंगा कि मेरे लिए वर्ष 1986 संघर्षपूर्ण व मेरी व्यक्तिगत भावनाओं एवं विचारों का द्योतक हो. इस वर्ष मैं उन सभी कष्टों को झेलने की प्रबल इच्छा रखता हूं जो कि बाह्य रूप से कठोर, कसीले एवं दुख देने वाले हों परंतु आंतरिक रूप से सुख, शांति एवं समृद्धि देने वाले हों.”

सोलह साल के लेखक की डायरी

भाषा पर ध्यान दें तो मैंने बहुत से भारी शब्दों का इस्तेमाल किया है. इसकी वजह शायद यह है कि उन दिनों मैंने जो साहित्य पढ़ता था, उसका बड़ा हिस्सा छायावाद से निकलता था. कविताओं में रवींद्र नाथ टैगोर के अलावा मैं सुमित्रा नंदन पंत को पढ़ रहा था, इसलिए लाजमी था कि मेरी भाषा पर भी इसका असर पड़ता. लेकिन अभी हम भाषा की बात नहीं करते सिर्फ भाव की बात करते हैं. और भाव यह है कि यह जो लड़का अभी दसवीं पास करके ग्यारहवीं में गया है, वह किसी भी परिस्थिति में हार नहीं मानना चाहता. वह जानता है कि उसे अपना मार्गदर्शन खुद करना है. इसीलिए डायरी में हमें ऐसे वाक्य पढ़ने को मिलते हैं – “जहां तक पिछले वर्ष की घटनाओं का सवाल है तो मैं यही सोचता हूं कि सिवाय दो-तीन घटनाओं के किसी भी घटना में मेरे बुद्धिमान, तेजस्वी, साहसी आदि होने का प्रमाण नहीं मिलता.

मुझे इस बीते वर्ष में अपने हाईस्कूल के result को देखकर ही सबसे ज्यादा निराशा हुई. अभी तक मुझे अपने प्राप्तांकों पर विश्वास नहीं है. तदोपरांत NCERT के लापरवाही से दिए exam में असफलता का मुझे गम है.” यानी मैं अपने हाईस्कूल के परीक्षाफल को भुला नहीं पाया था, पर मुझे ज्यादा दुख NCERT के उन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर चलाए जाने वाले नैशनल टैलंट सर्च की परीक्षा को लेकर हुआ. उस परीक्षा के पहले चरण में अपने स्कूल से अकेला मैं पास हुआ था. मेरी कक्षा के होनहार साथी भी परीक्षा पास नहीं कर पाए थे. दूसरे चरण की परीक्षा के लिए मुझे दिल्ली जाना था. मैंने दिल्ली जाकर इम्तिहान दिया पर परीक्षा कक्ष में बैठे हुए ही मैं जान गया था कि मैं पास न हो पाऊंगा क्योंकि मुझे पता ही नहीं था कि परीक्षा में क्या पूछा जाने वाला है. मैं mental reasoning में बहुत तेज था पर इस बार विषयगत सवाल पूछे गए थे. मुझे दुख इस बात का हुआ कि मैं पास होने पर मिलने वाली अच्छी-खासी छात्रवृत्ति से वंचित हो गया था. ( Sundar Chand Thakur Memoir)

अब मैं डायरी के उन पन्नों को पढ़ता हूं, तो उस वक्त के खुद पर थोड़ा तरस आता है और फक्र भी होता है क्योंकि मैं भले ही तब निरा सोलह बरस का रहा हूं, पर था परिस्थितियों से अकेले मुकाबला करने को पूरी तरह तत्पर, यह मानते हुए कि कितनी भी सख्त हो जाएं, वे मुझे पराजित नहीं कर सकतीं.  

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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  • वाह. बढ़िया सरल अभिव्यक्ति. धीरे धीरे रे मना से आगे शीर्ष की ओर पहुँचने का टेढ़ा मेड़ा रास्ता जिसमें कदम कभी सुस्त तो कभी दौड़ लगा आखिरकार क्या कुछ पाएंगे इसका इंतज़ार बना रखने में समर्थ पटकथा.

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