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अंग्रेजों के ज़माने का पटवारी हुआ गुमानसिंह

जीवन भर हल्द्वानी (Haldwani) में रहे स्व. आनन्द बल्लभ उप्रेती (Anand Ballabh Upreti) राज्य के वरिष्ठतम पत्रकार-लेखकों में थे. हल्द्वानी से निकलने वाले साप्ताहिक ‘पिघलता हिमालय’ अखबार के संस्थापक-सम्पादक रहे आनन्द बल्लभ उप्रेती एक सधे हुए कहानीकार भी थे. उनका कहानी संग्रह ‘आदमी की बू’ काफी चर्चित रहा था. इसके अलावा हल्द्वानी नगर के इतिहास पर उनकी लिखी पुस्तक ‘हल्द्वानी: स्मृतियों के झरोखे से’ एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है जिसे आप काफल ट्री में आद्योपांत पढ़ चुके हैं. पेश है उनकी एक मजेदार कहानी.

पटवारी गुमान सिंह
-आनन्द बल्लभ उप्रेती

गुमान सिंह पटवारी का जमाना भी अपने आप में एक अलग ही जमाना था. पटवारी के मुकाबले किसी बड़े से बड़े हाकिम की कोई औकात नहीं थी. वह राजस्व अधिकारी भी था, पुलिस अधिकारी भी और जंगलात का अधिकारी भी. भरा-भरा और गठीला शरीर था गुमान सिंह पटवारी का. रौबदार एंठी हुई मूछें. दोनाली बन्दूक कंधे पर लटकाये जब वह चलता था तो अच्छे-भले लोग रास्ते से हट जाया करते थे. यों चेहरे के रौबदाब से कड़क लगता था लेकिन स्वभाव का बुरा नहीं था. गुमान सिंह पटवारी फतेसिंह चपरासी को हमेशा अपने साथ रखता था. यद्यपि फतेसिंह का रौब भी कम नहीं था लेकिन था वह बौने कद का. पटवारी के पीछे फुदक-फुदक कर चलने का अंदाज सभी को रोमांचित कर जाता था. गुमान सिंह पटवारी का जिस गांव की ओर दौरा होता, जी हुजूरी में बिछ-बिछ जाते लोग. खूब दावतें उड़तीं, आवभगत होती. पटवारी, उसका चपरासी और गुमास्तों की मूंछे हमेशा तर रहतीं.एक बार हुआ यों कि एक गांव के लोगों ने पटवारी को उसकी औकात बतानी चाही. उन्होंने मिल कर एक निर्णय ले लिया और अब उस दिन का इन्तजार था जब पटवारी उनके गांव में आये. वह दिन भी आ गया. दूर पगडंडी से पटवारी अपने गुमास्तों के साथ आता दिखाई दिया. गांव के सारे लोग प्रधान के आंगन में एकत्रित हो गये. हुक्का भरी गयी, हंसी-ठिठोली का दैर शुरू हो गया. ज्यों ही पटवारी आंगन में पहुंचा सभी ने पीठ फेर ली. न राम-राम न दुआसलाम. पटवारी सकपका सा गया. एक अनहोनी घटना थी यह उसके जीवन की और पटवारीगिरी के इतिहास की.

गुमास्ते ने सामान नीचे रखा. गुमान सिंह पटवारी आंगन की दीवार पर गुमसुम बैठ गया. वह समझ गया कि गांव वाले चाहते क्या हैं. वह दीवार के ऊपर खड़ा हो गया और रसभरी गदराई नारंगियों की ओर इशारा कर जोर-जोर से चिल्लाया- “किसने लगाया बीच गांव में कांटेदार नारंगी का पेड़? सरकार की हुक्म उदूली के जुर्म में सारे गांव को हवालात में डाला जायेगा …”

बस इतना सुनना था कि सारे गांव वालों की अकड़ ढीली पड़ गयी, चिलम ठंडी पड़ गयी और माथे से पसीना टपकने लगा. उन्होंने आव देखा ना ताव, पकड़ लिए पैर पटवारी के. गिड़गिड़ाने लगे – हुजूर गलती हो गई. मायबाप, गरीब परवर हम तो आपकी छाया में पलते हैं. लौंडे-लफाड़ों के कहे पर आ गये. बकरा तैयार है, बासमती के चावल बीन कर रखे हैं, ताजा दही और घी निकालने की देरी है हुजूर. आप बैठिये तब तक मलाईदार दूध गरम हुआ जा रहा है. गुमान सिंह पटवारी मूंछें ऊपर कर बदरंग हो आये दांतों को बाहर निकाल कर बैठ गया.
रिटायर होने के बाद गुमानसिंह पटवारी अक्सर अपने जीवन काल के अनेकों खट्टे-मीठे अनुभवों किस्से-कहानियों को सुना-सुना कर मस्त हो जाया करता था. लेकिन जिस घटना को उसने डायरी में लिख कर पांच रूपये के नोट के साथ सहेजकर रख छोड़ा था वह उसके लिए बहुत बड़ी महत्वपूर्ण थी.

यह असौज का महिना था. मौसम बड़ा सुहावना था. धूप खिली हुई थी. घरों के चारों ओर धान, मडुवा, मदिरा के खेत लहलहा रहे थे. धान के खेतों से आ रही भीनी-भीनी खुशबू प्रफुल्लित कर रही थीं. महुवे की छितराई बालें हवा में झौकों के साथ गरदन हिला-हिला कर मस्त हुई जा रही थी. थोकदार करमबीर सिंह के घर में उसके पोते का यज्ञोपवीत संस्कार था. पटवारी गुमानसिंह ने जब यहां पहली बार चार्ज संभाला था, तब उसके पास विक्टोरिया क्रास से सम्मानित किए गए मेजर कर्मबीर सिंह के घर आगमन पर अगवानी करने का फरमान डिप्टी कमिश्नर के दफ्तर से आया था और आस-पास के पचास ग्राम प्रधानों को लेकर थोकदार करमबीर सिंह की अगवानी के लिए वह बाअदब हाजिर हुआ था. यद्यपि रिटायरमेंट के बाद करमबीर सिंह का रौब-दौब ठंडा पड़ गया था लेकिन वर्षों बाद भी वह उसे भूला नहीं था. वैसे भी वो खाते-पीते घर का थोकदार तो था ही. इस लिए उसके पोते का यज्ञोपवीत संस्कार हो और उसमें आस-पास के सभी ग्राम प्रधान, जाने-माने लोग और खास कर पटवारी आमंत्रित न किये जांए ऐसा कैसे हो सकता था.

बड़ा भव्य आयोजन था. सैकड़ों लोग वहां उपस्थित थे, कर्मकांड की प्रक्रिया चल रही थी, मंत्रोच्चारण के साथ हवन के धुंए की सुगंध वातावरण को मोहक बनाए हुई थी, महिलायें गीत गा रही थीं. एक कोने में हल्के स्वर में ढोल-दमाऊ वादन चल रहा था, पास के ही बड़े मैदान में भोजन बनाया जा रहा था, अलग-अलग टोलियों में लोग तम्बाकू की गुड़गुड़ाहट के साथ गपिया रहे थे. हँसी ठट्ठा भी चल रहा था.

“अरे दूर रास्ते में कोई अंग्रेज साहब जैसा लग रहा है” एक बच्चा दौड़ा-दौड़ा आया. सभी चैकन्ने हो गए और सबकी निगाहें उधर ही टिक गयीं.

“अरे वो तो इधर ही आत दिखाई दे रहा है. उसके साथ और गुमास्ते भी हैं.”

“क्या पता दौरे पर आया हो और किसी पटवारी-पधान को डाक बंगले में न पा कर इधर ही आ गया हो”

“अरे उसे क्या पता यहां होंगे सभी पटवारी-पधान.”

“किसी ने बता दिया होगा.”

“अब खैर नहीं, क्या कर दे ये लाल बन्दर”

“अच्छे-भले काम में बिध्न-बाधा.”

यज्ञशाला में मंत्रोच्चारण चल रहा था. बटुक के बाल उतारे जाने थे. उसके शरीर पर हल्दी का उबटन लगा दिया गया था. एक बड़ी सी परात में बैठा दिया गया था और नाई उस्तरे को हाथ में ही रगड़-रगड़ कर बाल उतारने लगा था. महिलायें रंगोली पिछौड़ा ओढ़े मांगलिक गीतों के साथ उसे घेर कर खड़ी हो गई थीं. तभी दनदनाता अंग्रेज अपने गुमास्तों के साथ आंगन में पहुंच गया.

वहां उपस्थित लोगों ने आव देखा न ताव लहलहाते खेतों को रौंदते हुए दौड़ पड़े. नाई उस्तरा थामे ही दौड़ पड़ा, महिलायें गौशाला की ओर लपक पड़ीं, रसोइए धोती समेटते हुए रसोई छोड़ कर दौड़ पड़े. ढोल बजाने वाले का तो दमाऊ भी लुढ़क कर दूर जा गिरा. अंग्रेज साहब की समझ में कुछ नहीं अया. वह देख रहा था क्षण भर पहले सजी सँवरी महिलायें गीत गा रही थीं, पंडित मंत्रोच्चारण कर रहे थे, वाद्ययंत्र बज रहे थे अब केवल वहां परात में बैठा आधे बाल उतरे बच्चा और एक हुक्का गुड़गुड़ाता बहुत ही बूढ़ा सा व्यक्ति रह गए थे. उसकी समझ में क्या आया पता नहीं लेकिन एकबारगी उन्मुक्त भाव से वह हँसा और उनके पीछे दौड़ रहा था. वह दौड़ पड़ा.
वह दौड़ पड़ा उस व्यक्ति के पीछे जो मडुवे की छितराई बालों वाले खेत से होकर दौड़ रहा था. लग यों रहा था कि वह उसे पकड़ने की पूरी कोशिश में है. दौड़ने वाला तो सरपट भागे जा रहा था लेकिन अँगरेज़ साहब दो-चार छलांग के बाद औंधा गिर पड़ता. उसे इस बात का पता नहीं था कि मडुवे की बालें आपस में टकराकर ऐसे उलझ जा रही हैं कि उसे आगे बढ़ने से रोके दे रही हैं. उसे यह भी समझ नहीं आ रहा था कि जिस व्यक्ति के पीछे दौड़ रहा है वह क्यों नहीं गिर रहा है. दरअसल वह यह नहीं देख पा रहा था कि दौड़ने वाला पहले हाथों से बालें इधर-उधर कर ले रहा है, फिर दौड़ रहा है. बहुत कोशिश के बाद भी अंग्रेज साहब दौड़ नहीं सका और थक-हार कर आंगन में लौट आया. वह खूब हँसा और जेब से नोटबुक निकाल कर थर-थर कांप रहे बूढ़े से बोला- “ये डौड़ने वाला कौन होना मांगता?”

“हुजूर पटवारी है यह”

“वेरी गुड, पटवारी”

“नाम क्या होना मांगता?”

“हुजूर गुमान सिंह”

“वैल, गुमान सिंह पटवाड़ी.”

उसने नोट बुक में कुछ दर्ज कर लिया. उसने बूढ़े की ओर हाथ हिलाया, परात पर बैठे बच्चे के गालों पर हाथ हिलाया, परात पर बैठे बच्चे के गालों पर हाथ फेरा और चला गया.

स्थिति सामान्य हो गई. लोग धीरे-धीरे फिर एकत्रित होने लगे. कर्मकांड शुरू हो गया. डरी-सहमी महिलायें मंगलगीत गाने लगीं. रसोइये काम पर लग गए. लेकिन दूर-पास से आए अतिथि बहुत देर तक सकपकाए से गुमसुम बैठे रहे. आस-पास के ग्राम प्रधान और पटवारियों को इस बात की चिन्ता सताने लगी कि अंग्रेज साहब गुमान सिंह पटवारी के पीछे दौड़ा और जाते वक्त उसने अपनी डायरी में उसका नाम नोट कर लिया. गुमान सिंह पटवारी की तो सारी ही अकड़ ढीली पड़ गई थी. यों आदतन अपनी मुंछों पर हाथ फेरना उसने जारी रखा था लेकिन मन ही मन बहुत भयभीत हो उठा था वह.

यज्ञोपवीत संस्कार की रस्म पूरी हो गई थी. लेकिन भोजन की तैयारी के साथ भी अंग्रेज साहब के यहां आने और उसके बाद की भागमभाग पर चर्चा जारी थी. लोग कह रहे थे कि अच्छा हुआ वह मडुवे के खेत में अनमनी गया नहीं तो वह पटवारी जी को पकड़ ही लेता.

“अच्छा क्या हुआ यारो” एक बूढा पधान बोल उठा “यह तो और बवाल हो गया. अरे पकड़ लेता तो यहीं धमका तो जाता, अब तो नाम लिख ले गया है नाम, न मालूम क्या कर दे. पटवारी जी की तो नौकरी धार में लग गइै.”

गुमान सिंह पटवारी को पहली बार लगा कि पटवारीगिरी भी कभी जानलेवा हो सकती है. वह कई दिनों तक अपने आप को संयत नहीं कर सका. दिना में एक बार डाक बंगले के चक्कर लगा आता और तसल्ली कर लेता कि वहां कोई साहब तो नहीं आया है. दिन बहुत गुजर गए लेकिन अभी तक कोई ऐसा पत्र उसे नहीं मिला जिसमें उसकी नौकरी के लिए खतरा पैदा हो गया हो. लेकिन नींद में भी कभी-कभी वह अंग्रेज साहब को ही देखता और उसकी नींद उचाअ होकर रह जाती. घर के लोग भी उसकी इस हरकत पर परेशान थे लेकिन भयभीत वे भी थे. आखिर अंग्रेज साहब के दौरे पर पटवारी का वहां मौजूद न होना बहुत बड़ी बात थी. फिर उससे बड़ी बात यह कि उसके पीछे दौड़ा और उसका नाम लिख गया.पौष का महिना बीतने वाला था और मरक संक्राति के पर्व पर बागेश्वर में मेले की तैयारियां होने लगी थीं. माघ माह लगते ही यहां दूर-दूर से श्रद्धालु संगम में स्नान करने तो जुटते ही थे साथ ही वहां एक बहुत बड़ा तिजारती मेला भी लगता था. गांवों से नाचते-गाते स्त्री पुरुष आते और एक अनोखी ही छटा बिखेर जाते. रात-रात नाचते-गाते मस्त हो जाते लोग. सरकारी तौर पर यहां खेल-कूद का आयोजन भी होता. अंग्रेज अपने इष्ट-मित्रों और साथियों के साथ सपरिवार इस मेले में लगने वाले तमाशे को देखने पहुंचते.

मकर संक्राति का पर्व भी आ गया. हजारों लोग सरयू और गोमती के संगम पर एकत्रित हो गए. पुलिस की टुकड़ी से घिरा डिप्टी कमिश्नर डाइविल कई अंग्रेज सथियों के साथ वहां पहुंच गया. अंग्रेज मेमों की खिलखिलाहट से नुमाइश-खेत की भीड़ एक किनारे की ओर सिमट गई और थोड़ी ही देर में दौड़ प्रतियोगिता शुरू की जानी थी. “राबर्ट, टुम बोला था कि एक पटवाड़ी टुम को दौड़ में पीछे़ कर डिया. हम डेखना मांगता डार्लिंग.” एक मेम ने जिज्ञासा जाहिर की.

“ओ नो! राबर्ट टुम टो डौड़ में चैम्पियन होटा. कौन हराना मांगता टुमको?”

राबर्ट ने अपनी डायरी निकाली. पन्ने पलट कर बोला “ओ! यही होना मांगता. पटवाड़ी गुमान सिंह.” उसने पास ही खड़े अर्दली ड्यूटी पर तैनात गुमान सिंह पटवारी को बुला लाया. गुमान सिंह अंग्रेज साहब को देखते ही थर-थर कांपने लगा. उसे लगा कि आज अंग्रेज गोली ठोक कर ही मानेगा.

मेमें पटवारी की कड़क मूंछों ओर गठीले शरीर को एकटक देखती रहीं और दौड़ में राबर्ट की पीछे छोड़ने वाले की तारीफ में आपस में ही सिर हिला-हिला कर कुछ गिटर-पिटर करने लगी. वह बहुत भयभीत था, लेकिन उसके गठीले शरीर को ललचाई नजरों से घूर रही मेम ने उसे रोमांचित भी कर दिया था. वह कनखियों से ताड़ रहा था शरारत भरी नजरों से घूर रही मेम की चुलबुली अदाओं को और खुली गोरी बांहों को. एक क्षण के लिए वह कहीं खो सा गया. सोचने लगा आज घर जाकर बताऊंगा सरूली को कि गोरी मेम कैसे फिदा हो गयी थी उस पर. होंठों में एक शरारत भरी मुस्कान भीतर ही भीतर कौंधी. लेकिन दूसरे ही क्षण उसने बलि के बकरे की तरह पाया अपने को.

राबर्ट पटवारी के सामने तन कर खड़ा हो गया. उसने जेब से बटुवा निकाला और पांच रुपये का कड़क नोट उसके हाथ में पकड़ाते हुए उसकी पीठ थपथपाने लगा. “वैल पटवाड़ी, वैल. हम बहुत खुश होना मांगटा. टुम टो बहुत टेज डौड़ा उस डिन. हम टुमाड़े पीछे डौड़ा. वेरी गुड, वेरी गुड. ये उस डिन का बकसीस हाय और टुम आज भी डौड़ेगा.”

अंग्रेज मेमें कभी दौड़ में चैम्पियन रहे राबर्ट की ओर दखतीं और कभी पटवारी की ओर. गुमानसिंह तो जैसे नींद से जाग पड़ा. उसने कस कर राबर्ट को सल्यूट मारा, कनखियों से मेमों की ओर देखा और भीड़ में गुम हो गया.

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  • पटवारी की महिमा वाकई निराली होती है .
    कुमाऊं क्षेत्र के एक पटवारी के चित्रण की शानदार गाथा है . लेखक स्व. आनन्द बल्लभ उप्रेती को विनम्र श्रद्धांजलि ????
    धन्यवाद दाज्यू ?

  • एक सुनी हुई पटवारी की कहानी है मैं सुनाना चाहता हूं पर बहुत छोटी है और बहुत अच्छी भी एक बार पटवारी साहब एक गांव में पैमाइश करने गए वहां पर उन्होंने खेत की नाप जोक करी अब वह घर के लिए वापस चल पड़े तभी एक कुत्ता पटवारी के ऊपर भौंकने लगा और उनके पीछे पीछे उनको दौड़ाने लगा पटवारी जी भागे भागते रहे और लगभग आधा किलो मीटर दौड़ने के बाद एक ऊंची पुलिया आई पटवारी जी हांफते हुए जैसे तैसे उसके ऊपर चढ़ गए कुत्ता ऊपर नहीं चढ़ पाया पटवारी जी बहुत क्रोधित हुए उस कुत्ते के पर, तब वह बोले की तेरे पास एक बीघा भी जमीन होती तो तब तुझे बताता पटवारी क्या चीज होती है। वाकई पटवारी बहुत बड़ी चीज होती है।

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