[हाल में नैनीताल के बीरभट्टी के समीप हुए हादसे में दिवंगत हुए पुलिसकर्मियों को लेकर सोशल मीडिया के कुछ हिस्सों में जिस तरह की टिप्पणियां और प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं वे विचलित करने वाली थीं. इसे लेकर हमने दो अलग-अलग आलेख लगाये थे. आज इस विषय पर हमारे अभिन्न सहयोगी और हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात अमित श्रीवास्तव की यह बेहद संवेदनशील टिप्पणी ध्यान से पढ़े जाने की दरकार तो रखती ही है, यह बताती है किस तरह हमारा समाज एक ऐसे खौफनाक दोराहे पर आ खड़ा हुआ है जहां आपको अपनी पक्षधरता को चुनना बेहद महत्वपूर्ण हो गया है – सम्पादक] (Social Media Turns Everything into Farce)
“एक्सीडेंट तो किसी का भी हो सकता है… रोज़ ही होता है”
ये तीसरी गलीज टिप्पणी थी. मैं इस घटना के बाद सोशल मीडिया घटना के बारे में पढ़ रहा था. नहीं, मैं उस ज़ुबान के लिसलिसेपन को महसूस कर रहा था जिसका अंदरूनी हिस्सा किसी कठोर पत्थर हृदय के साथ बद्ध था. मैं कहना चाहता था कि हाँ रोज़ होते हैं एक्सीडेंट, लोग रोज़ मरते हैं. एक्सीडेंट होने की और आपके मरने की प्राययिकता, आपके सड़क पर होने के समानुपात में होती है. जैसे ट्रैफिक सिग्नल पर खड़े जवान की, गाड़ियों से उगले जाते ज़हर को पीने की प्राययिकता किसी भी अन्य से ज़्यादा होती है, उसी तरह से ख़ाकी का वो जवान जो चौबीस में से अट्ठारह घण्टे सड़क पर भागता है उसके, उन्हीं लाखों पलों में से किसी एक पल सड़क पर ही मर जाने की सम्भावना किसी भी अन्य इंसान से ज़्यादा होती है. उसे उस वक्त कि जब वो नौकरी के लिए, से, के कारण सड़क पर है आप नौकरी पर होना मानते हैं? (Social Media Turns Everything into Farce)
“शिकारी खुद शिकार हो गया… इनको कोई मतलब नहीं जाम-जूम से, खुद हूटर बजाते निकल लेते हैं!”
ये थी दूसरी टिप्पणी. मैं कुछ अटकता सा महसूस कर रहा था कंठ में. इन विचारों को तर्क बनाने के वजूहात की तलाश में मैं देर तक पिछले सालों में घूमता रहा. मुझे कुछ हिंसाएं मिलीं तर्क नहीं. मेरी शिक्षा, समझ और सामाजिकी किसी लिहाज से इन्हें तर्क नहीं मान सकती. ये डॉ., डेंग्यू से क्यों नहीं मर जाते? उसी पुल के नीचे दबकर क्यों नहीं मर जाते बनाने वाले? तेरे घर में कोई है सेना में, तू क्या जाने अपनों के मरने की पीड़ा? इसकी कोई औलाद नहीं है ये क्या समझेगा बच्चों के खोने का दर्द? हो सकता है उस दर्द का अहसास न हो, हो सकता है लेकिन दर्द के दर्द का अहसास. तुम्हारी चोट का दर्द नहीं पहुंचता मुझतक, लेकिन चोट से रोने का दर्द तो पहुंचता है न.
“दारू पीकर चला रहा होगा!”
यही पहला गलीच कमेंट मिला था उस वॉल पर. इसके प्रतिउत्तर में मेरे पास बहुत सूखती सी एक ज़ुबान थी, भर्राया हुआ सा एक गला था जिसमें कांटे उग आए थे और एक नम आंख थी. इसका कोई जवाब या तर्क हो ही नहीं सकता था क्योंकि इसके मूल में तर्क था ही नहीं. सदियों से एक ख़ास किस्म की नफरत और ज़हर इसी ख़ाकी के लिए जो इनके ज़ेहन में पल रही है ये उसी का वमन था, तर्क की जगह, भावना की जगह, विचार की जगह. अजीब है न. आप उस ढांचे के मारे भी हैं, आपको उस ढांचे की आदत भी है. आप बदलाव नहीं देखते क्योंकि आप बदलाव देखना भी नहीं चाहते.
इन तीन टिप्पणियों के बाद मेरे पास सिवाय ख़ामोशी के कुछ नहीं था. बेचैन उंगलियां फिर वहां ठहर गईं जहां कुछ लोगो ने इस घटना, इस दृश्य और इस तोड़ देने वाले मंजर पर अपने दिल की कुछ नमी रखी थी. वहां भी ठहरी उंगलियां जहाँ ‘मारे गए’ (नहीं, शहीद नहीं! ऐसा कोई शब्द अमानवीय सरकारी शब्दकोष में नहीं) जवानों के परिवार के लिए लोगों को क्राउड फंडिंग का सहारा लेना पड़ रहा था. (किसी को फर्क पड़ता है कि इस वाक्य की समाप्ति ‘लेना पड़ रहा था!’ पर हुई है.) तात्कालिक ही सही, कुछ सुकून हासिल हुआ.
जाओ पवित्र आत्माओ, जाओ. इस सुकून से जाओ कि इस धरती पर इस देश में कुछ लोग हैं, जिन्हें तुम्हारे जाने का दुःख है. (Social Media Turns Everything into Farce)
मारे गए पुलिसवालों के परिवारों को क्राउड फंडिंग के सहारे छोड़ देना क्या खुद सरकार की बदनामी नहीं है
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अमित श्रीवास्तव. उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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