पंकज अब अपनी रौ में आ गया था. सुबह जल्दी उठो के नारे के बाद उसने कमान अपने हाथ में ले ली. मैं मुस्कुरा दिया. चाय पीने के बाद हमने नागन्यालजी से विदा ली और नागलिंग गांव के किनारे से ढलान का रास्ता पकड़ लिया. खेतों को पार कर आगे पहुंचे तो ऊपर से झरते हुए एक खूबसूरत झरने के दीदार हुए. (Sin La Pass Trek 21)
मैं और महेशदा कुछ पल रुके तो पकंज ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए चेताया कि आज बीस किलोमीटर चलना है. नागलिंग से सैला, उर्थिंग, बोवलिंग होते हुए दर तक लगभग 18 किमी पैदल चलना था. तब दर तक सड़क पहुंची थी. अब तो दातूं गांव तक कच्ची सड़क बन गई है.
करीब नौ बजे सैला पहुंचे तो एक मकान के आंगन में बैठकर दिन का भोजन करना तय हो गया. आसपास नजर घुमाई तो अहसास हुवा कि सैला गांव काफी ऊंची व तीखी चट्टानों की जड़ पर है और जिस आंगन में हम बैठे थे, वहां दो मंजिले मकान में पोस्ट आफिस व दुकान के साथ-साथ रहने की भी व्यवस्था थी. बैठे-बैठे सैलागांव के सुंदर सिंह सैलाल से गपशप चलने लगी. उन्होंने बताया कि सैला के पार ‘चलगांव’ में चलालों के करीबन पच्चीस मवासे रहते हैं. गांव अब भी पूरी तरह आबाद है. लेकिन हमारे लिए दिक्कतें भी कम नहीं हुवी.
सैलालजी ने दुकान से अपना सामान लिया और जरा घर में कुछ काम छूटा है कह गावं के रास्ते को नापना शुरू कर दिया. मैं उन्हें जाते हुए देख रहा था और तब तक वो पुल पार पहुंच गए थे. नीचे धौलीगंगा गर्जना करते हुए अपनी आमद दर्ज करा रही थी. पार चलगांव आने-जाने के लिए इस धौलीगंगा नदी पर टूटे-फूटे तख्तों व लकड़ी के टुकड़ों को मिलाकर बना कच्चा झूलापुल सिहरन पैदा कर रहा था. पता चला कि 1996 में आई धौलीगंगा की बाढ़ पक्के झूलापुल के साथ-साथ ढाकबंगले व कई खेतों को भी अपने साथ बहा ले गई. (Sin La Pass Trek 21)
भोजन तैयार हुआ तो हम बाहर बरामदें की देहरी में ही थाली लेकर बैठ गए. ट्रैकिंग में भोजन इतना स्वादिष्ट लगता है कि वर्णन करने में गूंगे से गुड़ के स्वाद बताने वाली जैसी बात हो जाती है. भोजन के बाद आगे निकलने के लिए रकसैक पीठ पर लाद आगे बढ़े ही थे कि आईटीबीपी चैकपोस्ट पर एकाएक मित्र कंचन परिहार पर नजर पड़ी. कंचन बागेश्वर से ही था और आईटीबीपी में तब इस जगह पोस्टिंग पर था. हम सब गले मिले. रकसैक फिर से नीचे उतारकर उसकी बैरक में घुस गए. इस दुर्गम इलाके में दोस्तों से औचक मुलाकात हो जाने से वह अभी तक सहज नहीं हो पा रहा था. उसकी तो खैर ड्यूटी थी, जहां का आदेश मिला बोझा-राइफल कांधे में टांग निकलना पड़ता है. हम पहले ही अपनी भूख से ज्यादा खाना खा चुके थे तो यहां कुछ लेने का सवाल ही नहीं था. लेकिन दोस्त मानने को तैंयार नही था और उसने अपने किट से ड्राईफ्रूटस, जैम, चाकलेट, जूस आदि जबरदस्ती हमारे रकसैक में डाल दिए.
आज धारचूला तक जाना है पर उसने रुकने के लिए ज्यादा जिद नहीं की. इसके बाद भी उसका मन नहीं माना तो मेरा रकसैक अपने कंधे में डाल थोड़ा आगे तक आता हूं, कहते हुए हमारे साथ करीब तीन किलोमीटर दूर उर्थिंग तक आ गया. उर्थिंग में एक बड़ा सा मैदान और तीखी चट्टानें दिखाई दीं. कंचन ने बताया कि यहां टूर वाले कैंप लगाते हैं और इन चट्टानों में रॉकक्लाइंबिंग कराते हैं.
ऊपर रास्ते से कुछ खच्चरों को आते देख हमने कंचन से कहा कि क्या ये सामान ले जाने को तैयार हो जाएगा, हम भी टाइम पर पहुंच जाते. कंचन को खच्चर वाला जानता था तो आसानी से सौदा तय हो गया. रकसैक ढोते-ढोते अब तक हम खुद ही खच्चर जैसे बन गए थे. ऐसे में वे खच्चर हमें उस वक्त अलादीन के जिन्न की तरह लगे. खच्चरों पर सामान लदवाकर और कंचन भाई से विदा लेकर हम अब हवा हो गए.
उतार-चढ़ाव भरे रास्तों को पारकर बोवलिंग गांव की बाखलियों से गुजरते वक्त देखा कि इस गांव में बिजली के पोल तो दिख रहे थे लेकिन बिजली का दूर-दूर तक पता नही था. खेत में काम कर रहे एक बुजुर्ग मिले तो उनसे इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि यहां तीस परिवार रहते हैं. अब गांव में पोल खड़े हो गए हैं तो हमारे चले जाने तक बिजली भी सायद आ ही जाएगी.
गांव से आगे का रास्ता भूस्खलन से टूटा हुआ था. किलोमीटर भर की तिरछी ढलान लिए इस रास्ते की सेहत ठीक नहीं थी. रह-रह के मिट्टी-पत्थर गिर रही थी. ऊपर की ओर नज़र गड़ाए लगभग भागते हुए हमने इसे पार किया. बाद में पता चला कि हमारे निकल आने के बाद पंचाचूली बेस कैंप के ट्रैक पर जा ट्रैकरों का एक दल इस भूस्खलन की चपेट आ गया और उनके एक सदस्य की मौत हो गई थी.
इस खतरनाक रास्ते को पार करने के बाद मुझे याद आया कि एक बार हिमालयी क्षेत्र में लोगों के कठिन जीवन संघर्ष पर बातें करते हुए करन नागन्यालजी ने दारमा घाटी में अपने बचपन को याद करते हुए बताया कि दर से आगे पंगबावै में रास्ता बहुत ही डरावना और खतरनाक था. पारम्परिक प्रवास में उस रास्ते से हमारे साथ याक समेत अन्य जानवरों का भी काफिला चलता था. उन्होंने मुझे पंगबावै की जब फोटो दिखाई तो फोटो देख सिहरन सी उठी. आश्चर्य हो रहा था कि उस वक्त में कितने जीवट लोग होते होंगे जिन्होंने ये रास्ता बनाया होगा और फिर उस पर चलने का भरोसा भी किया होगा. (Sin La Pass Trek 21)
आगे सड़क के अवशेष दिखाई देने लगे थे जो दर नामक जगह तक थे. दर में पहुंचते ही आरईएस के अधिकारी जीवन सिंह धर्मशक्तू से मुलाकात हुई. वह यहां बेदांग के दौरे पर निकले थे. हमारे सिनला से आने की बात जान वह बहुत खुश हुए. उन्होंने सिनला दर्रे में बने लाल निशान के बावत जानना चाहा तो हमने बताया कि वे अभी बने हैं, उनसे हमें बहुत मदद मिली. उन्होंने पुराने लोगों का जिक्र कर बताया कि
पहले के जमाने में हिमालय की कठिन चढ़ाई और दर्रे पार करने के लिए बुजुर्ग लोग अपने साथ सूखीलाल मिर्च रखते थे और रास्ते में जहां आक्सीजन की कमी होती थी वे सूखी मिर्च चबाना शुरू कर देते थे. मिर्च लगने के बाद हू-हा होने पर सांस की प्रक्रिया तेज हो जाती थी और फेफड़ों को ज्यादा आक्सीजन मिलने से आदमी भला-चंगा हो जाता और कूदते-फांदते दर्रे को पार कर लेता था.
धर्मशक्तूजी ने यह किस्सा इतने मजेदार ढंग से सुनाया कि हम काफी देर तक हंसते रहे. हमारे अलादीनी जिन्न रूपी खच्चर भी सामान समेत पहुंच चुके थे. उन्हें यहां से सामान लेकर वापस लौटना था. नीचे सड़क में पहुंचे तो पता चला कि आज विश्वकर्मा दिवस की वजह से सभी चालक अपने वाहनों की पूजा में मग्न हैं. रकसैक कांधों में डाल सड़क पर पैदल मार्च शुरू कर दिया. घंटेभर बाद एक जगह जीप दिखी मगर उसके मालिक ने भी विश्वकर्मा पूजा का हवाला देकर आने से मना कर दिया. हम आगे बढ़ने लगे तो उसने चारसौ रूपयों में बात तय की. सामान समेत खुद को उस जीप में लादकर आगे बढ़े तो बीसेक मिनट बाद उन्होंने जीप किनारे लगाकर धोषणा की ‘लो जी आगे रोड बंद है.’
बाहर आ देखा तो आगे सड़क गायब थी. तीन किलोमीटर के चार सौ रुपये जीप वाले ने हमारी मजबूरी का फायदा उठाकर ले लिए और उस पर वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था. चढ़ने-उतरने का यह सिलसिला आगे तवाघाट तक चलता रहा. जगह-जगह सड़कें गायब थी. उनके बीच फंसी जीपों का मनमाना किराया और पैसे कमाने के चक्कर में उनकी रफ्तार हमें डराती रही लेकिन उन्हें इससे कोई मतलब नहीं था. किसी तरह शाम को धारचूला पहुंचे तो सांस वापस लौटआई.
होटलों के खस्ता हाल देखकर टीआरसी को ही भागे. आज यहां पानी की समस्या नहीं थी. काली नदी पार विदेश जाने का अब मन नहीं था तो होटल में खाना खाकर मीठी नींद के आगोश में हो लिए. सुबह बागेश्वर की बस में बैठे तो अब इतने दिनों की यात्रा के बाद बिछड़ने की पूर्व बेला में गुजरे वक्त को यादकर हम बे-सिर-पैर के किस्सों में टाइम पास करने लगे. शाम को बागेश्वर पहुंचने पर सभी अपने-अपने घोंसलों को उड़ गए. महेशदा ने भी दूसरे दिन नैनीताल का रास्ता पकड़ा.
व्यांस-दारमा घाटी की यह रोमांचभरी यात्रा भूले नहीं भूलती. मन बार-बार गुंजी, कालापानी, कुट्टी, नागलिंग में ही उड़ता रहता है. इस यात्रा में मुझे हिमालय को नए तरीके से समझने के साथ धैर्य बनाए रखने की अद्भुत सीख मिली जिसे मैं अब अपने हिमालयी अभियानों में बखूबी इस्तेमाल करते आ रहा हूं. (Sin La Pass Trek 21)
समाप्त.
– बागेश्वर से केशव भट्ट
पिछली क़िस्त: नागलिंग गांव में सात बार सूर्योदय और सात बार सूर्यास्त होने का किस्सा
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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