लगभग दो किमी की परिधि से घिरा पार्वती ताल बेहद खूबसूरत था. ताल किनारे चहल-कदमी करते हुए पंकज और मैं तीनों साथियों को पंचस्नान करते देख रहे थे. वे श्रद्धा में डूब-उतरा रहे थे. पूरन और महेश दा ने बकायदा बोतलों में घर के लिए पवित्र जल भी भर लिया. कुछ देर बाद वे वापस शिव मंदिर के पास आए और मंदिर के अंदर गए. मंदिर में लगा बोर्ड बता रहा था कि यह मंदिर 1972 में बना और 2002-03 में इसका पुनरुद्धार किया गया. यह मंदिर कुटी की महिला मंगल दल की देख-रेख में है. (Sin La Pass Trek 16)
मैं खामोश होकर छोटा कैलाश के शांत शिखर और उसके दाहिनी ओर आगामी कल तय किये जाने वाले रास्ते को निहार रहा था. यह सिनला पास था जिसे पारकर हमें आगे दारमा घाटी में उतरना था. मुझे यह पास बेसिक माउंटेनियरिंग कोर्स की भाषा में ‘हाईटगेन’ करने जैसा महसूस हो रहा था. सूकून देने वाली बात यह थी कि इस दर्रे में बर्फ नहीं दिख रही थी वरना इसे पार करने के बारे में सोचना पड़ता. सांझ धीमे-धीमे घिरने लगी तो हम वापस लौट पड़े.
सिनला पास पार करना है, यह सुनकर महेश दा, पूरन और संजय थोड़ा चिंतित प्रतीत हो रहे थे. मैंने उनसे कारण पूछा तो सबके अपने-अपने सवाल थे. वहां सांस अटक जाती है बल… आक्सीजन कम होते जाती है बल… चला नहीं जाता है बल…
मैं हैरान-परेशान कि उनके दिमाग में ये बे-सिर पैर के खयाल कहां से आ रहे हैं. पूछने पर उन्होंने बताया कि पंकज ने बताया कि आधी रात में उन्हें चलना पड़ेगा नहीं तो बाद में कई दिक्कतें आ जाएंगी और भी बहुत कुछ कहा बल!
मैंने उन्हें शांत कर बताया कि ऐसा कुछ नहीं है. यह दर्रा बहुत ही आसान है, कुछ उंचाई में हम जाएंगे और फिर उसे पारकर नीचे उतर जाएंगे दारमा घाटी में. यह एक तरह से ट्रैकिंग ही है, जैसी हम रोज करते आ रहे हैं. जहां तक सांस की दिक्कत वाली बात है, वह बीस हजार फिट के बाद आती है. और मैं अपने कोर्स में साढ़े तेइस हजार की उंचाई पर जा चुका हूं बिना आक्सीजन के.
उन्होंने सहमती में सर हिलाया तो सही लेकिन उनकी बैचेनी अभी गई नहीं थी. वे सब असमंजस में थे कि दो लीडरों में किसकी बात पर भरोसा किया जाय. ज्योलिंकांग में कुछ दुकानें भी थीं. यात्रा सीजन अब खत्म होने को था तो ज्यादातर कपाट बंदकरअपने घरों को लौट चुके थे. बस एक ही दुकान खुली थी. पंकज उस दुकानदार से कल के रास्ते के लिए आलू के परांठे बनाने की बात तय करने लगा. उसी वक्त एक शख्स हमसे पूछने लगे कि हमें जाना किधर है. उन्होंने अपना नाम मानसिंह कुटियाल बताया और वह कुटीगांव के ही निवासी थे. हमने उन्हें बताया कि हम सिनला होते हुए दारमा जा रहे हैं तो वो सतर्क हो उठे. उन्होंने कहा कि, वह हमें दर्रा पार करवा देंगे. इसके एवज में वह 1800 रुपये ही लेंगे, वैसे औरों से वो 2500 तक लेते हैं. फिर वह शुरू हो गए कि दर्रा कितना खतरनाक है. रास्ता भटकने वाला है. ऊपर से पत्थरों की बरसात तो इतनी होती है कि बस पूछो मत और हवा तो ऐसी चलती है कि अब गिरे तब गिरे. Sin La Pass Trek 16
मानसिंह की बातों से साथियों की दहशत बढ़ने लगी. मैंने उन्हें समझाया कि हम माउंटेनियर हैं और हिमालय को बखूबी जानते-समझते हैं. मैंने कुटी गांव के कई परिचितों का हवाला दिया तो झेंपते हुए बात बदलकर कहने लगे-
दरअसल मैंने कई बंगालियों को दर्रा पार कराया है न. अब आप सब तो यहीं के हुए, दर्रा इतना भी टफ नहीं है. वैसे भी आपने कोर्स किए ही ठहरे. सुबह आराम से जाना. रास्ते में मार्क लगे हैं’ हमसे हाथ मिलाकर वह छूटते हुए बोले, ‘कभी मिलना हो धारचूला में, मेरा टूर का काम है वहां…
अंधेरा घिरने लगा तो मानसिंह से पीछा छुड़ाकर हम वापस टीआरसी के बैरकों में लौट आए. टीआरसी की मैट्रस बिछी हुई थी तो मैं चुपचाप हो उसमें लेट गया. बाकी साथी बाहर ही थे. आधे-एक घंटे बाद मुझे बताया गया कि सुबह दो बजे उठकर ढाई बजे दर्रे की चढ़ाई शुरू कर देंगे. दुकानदार को रास्ते के लिए पराठे-अचार को बोल दिया है. जितनी जल्दी संभव हो, हमें निकल जाना है. उनकी बातें सुन मैं और चिड़चिड़ा गया कि उच्च हिमालय में पहली बार आए साथियों के मन में डर बिठाना क्या सही है. कुछ देर में साथी आए और मुझे भोजन के लिए कहने लगे. मैंने मना कर दिया लेकिन वह नहीं माने. मजबूरन मैं खाने के लिए टीआरसी की रसोई में गया तो सही लेकिन खाना मुश्किल से ही खा पाया. ऊंचाई में होने और मेरी बातों को नहीं सुने जाने की वजह से मेरा गुस्सा बढ़ता जा रहा था, लेकिन टीम को सकुशल दर्रा पार करा उन्हें उनके घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी के चलते मैं चुप ही रहा.
बैरक में आज आर्मी के एक साहब भी रुके थे. वह अपनी टीम के साथ एलआरपी के अभियान पर थे. एलआरपी मतलब, ‘लांग रूट पेट्रोलिंग.’ आर्मी समेत आईटीबीपी के गश्तीदल सीमाओं की देखरेख के लिए हर हमेशा इस तरह के अभियान पर निकलते रहते हैं. इनका अभियान महीनों तक चलता है. इसी में एक और अभियान होता है, ‘एसआरपी.’ शॉटरूट पेट्रोलिंग. यह अभियान मात्र एक या दो दिन का होता है.
साथी लोग बैरक में लौट आए तो महेश दा और पूरन ने भजनों से समां बांध दिया. मुझे महसूस हुआ कि इस उंचाई में अपने प्राणों के डर को कम करने के लिए वो भक्ति का सहारा लेने में लगे हैं. कुछ देर बाद भजन बंद हुए तो मैं अपने स्लीपिंग बैग में यह कहते हुए घुस गया कि – सुबह मुझे डिस्टर्ब मत करना, हम सब साढ़े पांच के बाद मूव करेंगे.’
सुबह चार बजे से अफरा-तफरी मची हुई थी. पूरन ने डरते हुए मुझे उठाने की कोशिश की लेकिन मैं नहीं उठा. पांच बजे मैं उठा तो देखा कि सभी तैयार बैठे हैं. मैं फ्रैश हो साढ़े पांच बजे चलने के लिए तैयार हो गया. रकसेक कांधों में डाल हम सभी ज्योलिंगकांग से आगे सिलना दर्रे की ओर बढ़ चले. Sin La Pass Trek 16
जारी…
– बागेश्वर से केशव भट्ट
पिछली क़िस्त: कुटी गाँव का महाभारत के साथ सम्बन्ध
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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