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घंटों निहार सकते हैं ॐ पर्वत के प्राकृतिक श्रृंगार को

साथियों की त्योरियां चढ़ने पर पंकज मुस्करा दिया. उसने सफाई दी, “अरे! कोर्स में यही सब सिखाया जाता है… क्या पता कब क्या मुसीबत आ जाए… इसलिए यह सब जरूरी होता है… वैसे भी आगे सिनला पास पार करना है तो आप सभी की एक तरह से फिटनेस भी जरूरी थी.” उसकी बातें सुनकर सभी हंस पड़े कि अच्छा बेवकूफ बनाया… भट्टजी ने भी तो कोर्स किया है और वो सिर्फ छाता लेकर आए हैं…! (Sin La Pass Trek 11)

इससे पहले कि बात ज्यादा बढ़ती, बैरक के बाहर से पंकज ने आवाज दी, “सब बाहर आओ.. जल्दी…” हम हड़बड़ाते हुए बाहर निकले तो उसने सामने की ओर इशारा किया. वाह! क्या अद्भुत नजारा था!! ॐ पर्वत तक बाहें फैलाए घाटी जैसे हमें अपनी ओर खींच रही थी. ॐ पर्वत में बर्फ कम थी लेकिन इस जगह प्रकृति का के इस शृंगार को हम देर तक निहारते रहे.

घाटियों को निग़ाह में रखते हुए अपनी दाहिनी ओर ओर देखा तो एक पर्वत का आकार पेट की नाभी की तरह दिखाई दिया. लिपुलेख दर्रे की ओर हमें मंदिर तक जाने की इजाजत थी तो उस ओर निकल पड़े. मंदिर के पास एक हेलीकॉप्टर का कंकाल दिखाई दिया. बारी-बारी से सभी उसमें सवार होकर ‘साउथ इंडियन मूवी’ के हीरो की तरह फोटो खिंचाते रहे.

बाद में पता चला कि 1993 में इस हैलीकॉप्टर से कुछ प्रशासनिक अधिकारी यहां सैर के लिए आए थे. अचानक हैलीकॉप्टर का संतुलन बिगड़ गया और किसी तरह पायलट उसे इन चट्टानों में उतार पाने में कामयाब हुआ और एक बड़ी दुर्घटना होते-होते रह गई. हैलीकॉप्टर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया लेकिन अधिकारियों की जान बच गई और फिर वे पैदल गुंजी लौटे. बाद में इन अधिकारियों में जान बचाने के एवज में यहां एक शिव मंदिर बनवा डाला.

नाभीढांग से आगे लिपूलेख के दर्रे के तिरछे रास्ते पर दर्जनभर घोड़े-खच्चर व्यापारियों का सामान लादे तकलाकोट से वापस लौट रहे थे. लिपूलेख की मोहक घाटी हमें अपनी ओर खींच रही थी लेकिन सरहद की बेड़ियों में जकड़े हम वापस बैरक की ओर लौट आए. रात्रि भोजन के लिए टीआरसी में मालूमात की तो पता चला की तकलाकोट की बंद गोभी के सांथ रोटी, चावल-दाल का इंतजाम हो जाएगा. एक डाइट साठ रुपये लगेंगे. साठ रुपये! तब बहुत ज्यादा लगे. इससे पहले हर पड़ाव में हम तीस-चालीस रुपए में खा और रह रहे थे, यहां रहने का किराया भी अलग से देना था. (Sin La Pass Trek 11)

खाना रात आठ बजे निर्धारित था तो हम तब तक के लिए अपने बैरक में घुस गए. बाहर बहुत ठंडक थी. बैरक में कुछ देर गपियाते हुए ठंड से राहत मिली. पुरदा किस्सों की पूरी खान थे तो उसके किस्से सुनकर  हम सभी पेट पकड़ दोहरे होते रहे.

आठ बजने को आए तो हम टीआरसी के डायनिंग हॉल में घुस गए. कड़ाके की ठंड से सिहरन हो रही थी. थोड़ी ही देर में भोजन सज गया. तकलाकोट की तिब्बती बंद गोभी के साथ भारतीय आटे से बनी रोटियों के स्वाद से तो जैसे मजा आ गया. साठ रुपये डाइट की भरपाई के लिए हम भोजन पर पिल पड़े. रोटियां आनी बंद हो गईं और एक डोंगे में चावल आया तो उसे भी निपटाकर आवाज मारी. थोड़ा सा चावल फिर आया और फिर रसोइए महाराज ने हाथ जोड़ लिए कि अब सब खत्म हो गया. वह हैरत में था कि इस उंचाई में इन लोगों ने इतना कैसे खा लिया, जबकि उंचाई में तो भूख घटती चली जाती है. अब उसे कैसे समझाते कि हम नाजुक कैलास-मानसरोवर यात्री नहीं बल्कि ठेठ पहाड़ी पर्वतारोही हैं और ऊपर से साठ रुपए का हिसाब भी पूरा करना है. 

बैरक में रजाई ने ठंड को दरवाजे से बाहर निकाल फैंका था तो हिमालय की गोद में गहरी नींद के आगोश में मीठे सपनों में देर तक खोये रहे. (Sin La Pass Trek 11)

जारी…

– बागेश्वर से केशव भट्ट

पिछली क़िस्त: महाकाली नदी के उद्गम पर स्थित मां काली का भव्य मंदिर

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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.

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