काफल ट्री के नियमित लेखक, उत्तराखण्ड पुलिस में कार्यरत प्रमोद साह ने अपने छात्र जीवन तथा उसके बाद की डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट से जुड़ी स्मृतियाँ साझा की हैं.
आज सुबह-सुबह अल्मोड़ा से जब यह मनहूस खबर आई कि उत्तराखंड में जन संघर्षों के प्रतीक आमजन के लिए आजीवन लड़ते रहे. योद्धा डॉक्टर शमशेर सिंह बिष्ट नहीं रहे. पहले तो मैंने साल 2018 को कोसा आखिर यह क्या हो रहा है. तमाम सामाजिक सरोकारों के व्यक्ति तेजी से हमसे विदा क्यों हो रहे हैं ? गीतकार नीरज के बाद परसों ही साहित्यकार समालोचक विष्णु खरे हमसे विदा हुए थे. और आज अल्मोड़ा से यह विचलित करने वाली खबर कि डॉक्टर शमशेर शेर नहीं रहे. मेरी यादों में कुछ तस्वीरें जो धुंधली थीं साफ होने लगी सबसे पहले चांचरीधार में चिपको आंदोलन के दौर की कुछ तस्वीरें, जिसमें एक प्रभावशाली युवा नेता के रूप में हमने डॉक्टर शमशेर को देखा.
दूसरी तस्वीर 1978 के शुरुआत की है. जब द्वाराहाट में अपने लगभग 2 साल की आपातकाल की जेल यात्रा के बाद विपिन त्रिपाठी वापस आए थे उनके साथ जेल में ही बंद दूसरे साथी डॉक्टर शमशेर सिंह भी थे. द्वाराहाट की जनता ने ढोल-नगाड़े के साथ इन दोनों जन नेताओं का स्वागत किया, विपिन त्रिपाठी के गरजने वाले अंदाज से हम परिचित थे. लेकिन उनके साथ एक मजबूत विमर्श और तर्क से भरी दूसरी आवाज जिसने ज्यादा प्रभावित किया वह डॉक्टर शमशेर सिंह बिष्ट की थी. जिसने जेल में बिताए अपने अनुभव के साथ अपने सामाजिक सरोकारों और आने वाले दिनों में अपनी संघर्ष की दिशा का प्रारूप पेश किया था. हालांकि तब मेरी आयु 11 बर्ष थी. शब्दों को समझने की सामर्थ्य नहीं थी. लेकिन तस्वीर मस्तिष्क में जो थी. वह आगे साफ होती रही.
1984 आते आते फिर एक बार “नशा नहीं रोजगार दो” आंदोलन की धूम कुमाऊं में हुई. तब हम विपिन त्रिपाठी के साथ हल्ला गुल्ला करने और नारे लगाने वाली टीम के लड़कों में शामिल हो चुके थे. अल्मोड़ा कई बार चेतना प्रिंटिंग प्रेस में शमशेर सिंह बिष्ट जी से विपिन त्रिपाठी जी के साथ मिलना हुआ. हर बार उनसे मिलने के बाद एक अलग तरह की सरसराहट और उत्तेजना भीतर तक भर जाती थी. उनके प्रति सम्मान लगातार बढ़ता गया. ‘नशा नहीं रोजगार’ दो आंदोलन इमरजेंसी में जे.पी मूवमेंट के बाद का तत्कालीन उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा आंदोलन हुआ जिसके सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव तत्कालीन उत्तर प्रदेश की राजनीति में देखे गए.
नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन के दौरान की मुलाकातों के बाद वर्ष 1987 में जब मैं गोपेश्वर में एलएलबी का छात्र था तब बस में द्वाराहाट से गोपेश्वर तक का सफर डॉक्टर शमशेर सिंह बिष्ट जी के साथ करने का मौका मिला, फिर क्या था सफर में जैसे पूरे आंदोलनों की एक किताब मिल गई, मैं इस सफर में उनसे बहुत कुछ जानना चाहता था और उन्होंने बड़ी सरलता से, मुझे टटोल कर अपने सामाजिक जीवन के अनुभव उपलब्धि, विचार और संघर्ष की दिशा को बहुत बारीक और सरल शब्दों में मुझसे साझा किया. उस दिन कि वह यात्रा दशोली ग्राम स्वराज मंडल गोपेश्वर में पर्यावरणविद चण्डी प्रसाद भट्ट के यहां तक थी. मैं भी चंडी प्रसाद भट्ट से उनके पर्यावरण शिविरों के माध्यम से जुड़ा था. चण्डी प्रसाद जी का मुझे बहुत प्यार मिलता था. इसलिए भी विचार और संपर्क में डॉक्टर शमशेर बिष्ट ने उदारता दिखाई फिर थोड़े दिनों बाद मैं नौकरी में आ गया.
उधर अल्मोड़ा चेतना प्रिंटिंग प्रेस की ओर आना-जाना भी कम हो गया हां एक बार गोपेश्वर में आयोजित उमेश डोभाल स्मृति समारोह मे फिर डॉक्टर शमशेर बिष्ट जी से अच्छी बातचीत हुई. उधर ‘लोक संघर्ष वाहिनी’ उनके नेतृत्व में उत्तराखंड में एक संघर्षशील ताकत के रूप में उभर रही थी. उत्तराखंड राज्य निर्माण के संघर्ष में उत्तराखंड लोक वाहिनी की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही और आंदोलन को महत्वपूर्ण पड़ाव में रणनीतिक दिशा दी.
यह उत्तराखंड का दुर्भाग्य रहा कि राज्य गठन के बाद लोकवाहनी के भीतर चले अंदरूनी मतभेदों ने डॉक्टर शमशेर सिंह बिष्ट का सार्वजनिक जीवन से थोड़ा मोह भंग कर दिया, उन्होंने खुद को अब समेटना शुरू कर दिया. हालांकि भीतर पीड़ा बहुत गहरी थी.
पिछले दिनों पेट की बीमारी, जो आंदोलन के दिनों की लापरवाही का ही परिणाम थी, बढ़ गई. उसी के कारण आज अचानक आप चल दिए, आपका इस तरह जाना, उत्तराखंड के जन संघर्षों के धरातल में हमेशा अंखरता रहेगा. आप हमेशा यादों में रहेंगे. आपका संघर्ष समाज को संकल्प और दिशा देता रहेगा अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजली डॉ शमशेर सिंह बिष्ट.
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