पुराने मास्टरों और साथ पढ़ चुकी लड़कियों को जिस तरह और जितना इस युग में याद किया जा रहा है वैसा मानव-सभ्यता के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ.
पैंतीस-चालीस से लेकर पैंसठ-सत्तर के लोगों के बीच फेसबुक पर धड़ल्ले से पुराने क्लासफेलोओं को ढूंढा जा रहा है और नित नए ग्रुपों की सर्जना हो रही है. नंबरों की अदलाबदली के बाद ये ग्रुप वाट्सएप पर नया अवतार लेते हैं और फिर ग्रुप के सदस्यों में ब्राह्ममुहूर्त में एक दूसरे की जीएम करने से लेकर गयी रात तक जीएन करते जाने का सिलसिला चलता है. सूचना क्रान्ति के आधार पर दिन भर में अर्जित किये गए धार्मिक-राजनैतिक और सामाजिक ज्ञान से निर्मित श्लील-अश्लील दृश्य-श्रव्य रचनाओं का भीषण आदान-प्रदान होता है. ये रचनाएँ संतोषी माता के व्रत के महात्म्य से आरम्भ हो कर घटिया लतीफों और ब्लड प्रेशर रोकने के उपायों से गुजरती हुईं दर्ज़न भर दर्शकों के सम्मुख कार की छत पर सार्वजनिक सेक्स का मजा लूट रहे किसी अंग्रेज जोड़े के वीडियो तक पहुँचती हैं. पुरुषों के बीच चलने वाले ऐसे रचना-आधारित आदान-प्रदानों में देसी-विदेशी महिलाओं के अन्तरंग चित्र-चलचित्रों की भरमार रहती है और उनकी और उनके फ़ोनों की मेमोरी उनसे अटी होती है. महिलाओं के सर्कल्स में भी ऐसा होता होगा पर मुझे उस बारे में अधिक ज्ञान नहीं.
अपनी सत्ताइसवीं-अट्ठाईसवीं एनीवर्सरी पर आयोजित डिनर में मटर-पनीर और वेज मंचूरियन परोसते हुए महात्माजी अपनी शरीके-हयात की प्रशंसा करते हुए मेहमानों को बताते हैं – “अरे ये भी तो पहले नहीं लेती थीं पर अब हमने इन्हें व्हिस्की पीना सिखा दिया दिया है. बच्चे भी सेटल हो गए हैं तो एक-दो आराम से ले लेती हैं.” कुछ देर तक नोएडा-गुडगाँव-बंगलूर में सेटल हो रहे अपने भुसकैट बच्चों द्वारा अर्जित उपलब्धियों के बखान के बाद महात्मा जी मेहमान-पत्नी से मुखातिब होते हैं – “भाभीजी बिलकुल नहीं लेतीं क्या?” लजाने का नाटक करती मुटल्ली भाभीजी कहती हैं – “नहीं भाईसाहब हमें कड़वी लगती है. वैसे गोवा में एक बार इन्होंने वाइन पिलाई थी, वो ठीक थी! यहाँ तो ढंग की कोई चीज मिलती ही नहीं!”
पिछले तीस सालों से एक ही शहर में साथ रहने को अभिशप्त रहे दो स्कूली दोस्त दस हजारवीं बार अपनी गाड़ियों में डिस्पोजल-भुजिया-नमकीन कार्यक्रम करते हुए इमोशनल हो जाते हैं – “चल मेहता को फोन लगाते हैं यार!” मेहता भी क्लासफेलो रहा है और सत्तर किलोमीटर दूर अपने शहर में बड़ा आदमी बन चुकने के बाद वह भी ऐसे ही डिस्पोजल-भुजिया-नमकीन कार्यक्रम में शिरकत कर रहा है. मेहता के साथ पर्याप्त दोस्ताना गाली-गुप्ता होता है और तदुपरांत मेहता से बदायूं वाले टिबरीवाल का नंबर लिया जाता है. बदले में मेहता को रोहतक वाले अशरफ अली का नंबर दिया जाता है.
कॉलेज फंक्शन में एक बार “इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा” गाने के कारण अंतर्राष्ट्रीय ख्याति बटोर चुकी लीना चड्ढा दिन में दस बार अपनी डीपी बदलने के कुटैव से ग्रस्त हैं. उनके वो सर्राफ हैं और बिजनेस के सिलसिले में उनका अक्सर बाली-थाईलैंड जाना होता है. झेंपती हुई किशोर बेटी कहती है – “मम्मा आप सेल्फी तो ठीक से लिया करो ना, शंटी भैया कह रहे थे मेरी डबल चिन दिख रही है इस वाली में!”
लीना चड्ढा से मन ही मन मोहब्बत करने वाले भूतपूर्व झंडू गीतकार प्रशांत चतुर्वेदी ने जब से रामदेव के प्रोडक्टों के डिस्ट्रीब्यूशन का काम शुरू किया उनकी सतत कंगाली को पहली बार विराम लगा. उन्होंने बड़ा वाला फोन लेकर अपनी फेसबुक प्रोफाइल बनाई और सबसे पहले अब लीना चड्ढा गुप्ता बन चुकी अपनी पुरानी लपट को खोज निकाला. “… थोड़ा मुटा गयी है बस!” अपनी प्रशस्त तोंद को सहलाते हुए उन्होंने खुद को विचारों में आश्वस्त किया और लैला-मजनू जैसी किसी मौत की कल्पना में डूब कर अपने गीतकार को जगाया. फिलहाल दोनों एक दूसरे की हर पोस्ट पर पान का पत्ता बनाते हैं. कॉलेज के वाट्सएप ग्रुप में प्रौढ़ कुंठितों के मध्य दोनों की आशिकी की दबी जुबान चर्चा है.
इन सौहार्दपूर्ण घटनाक्रमों के अगले और वृहदस्तरीय लेवल को ओल्ड स्टूडेंट्स रीयूनियन कहते हैं जिसकी तफसीलें आपको आगे बताई जा रही हैं:
हमारी जन्मजात उत्सवधर्मिता की मांग है कि हम आपस में मिलें. खूब मिलें. इतना मिलें, इतना होहल्लड़ करें कि शान्ति से सोचने का एक पल नसीब न हो, टाइम मैनेजमेंट का भुस भर जाए. इस राष्ट्रीय मिलन यज्ञ में बड़ी से बड़ी समिधा समर्पित करने हेतु देश भर के ओल्ड स्टूडेंट ग्रुप्स के बीच सतत खलबली मची रहती है. अपने उन अध्यापकों के प्रति सम्मान प्रदर्शन करने को उनकी आत्माएं दिन-रात आंदोलित रहती हैं एक ज़माने में जिनकी पिछड़ी दीखते ही भगवान से उन्हें उठा लेने की दुआएं किये जाने की रस्म जरूरी हुआ करती थी. इन ग्रुपों की मान्यता है कि जिन मास्टरों ने बचपन में उन्हें मुर्गा बनाया था उन्हें भरपेट मुर्गा खिला कर ही अपने पापों का प्रायश्चित किया जा सकता है.
हाल के वर्षों में ओल्ड स्टूडेंट्स रीयूनियनों ने डेस्टीनेशन वेडिंग का दर्जा हासिल कर लिया है.
फेसबुक पर 1977 में बागेश्वर के भराड़ी गाँव के राउमावि के पांचवीं (क) में पढ़े हुओं का अलग ग्रुप है और 1998 में हार्वर्ड से इंटरनेशनल रिलेशंस में मास्टर्स वालों का अलग. 1981 में कल्लूपुर पडरौना के राइका में इंटर साइंस साइड बोर्ड के दस फेलियरों ने अपना ग्रुप बनाया हुआ है और आईआईटी, मदरास बैच के 1984 कम्प्यूटर साइंस ग्रेजुएटों ने भी. इन समूहों का ऐसा आतंक है कि आप जबरिया किसी में घुसा दिए जाते हैं. आप अपने को ओल्ड स्कूल बॉयज ग्रुप से अलग करते हैं तो अगली सुबह कोई आपको क्लास ऑफ़ 1977 में चिपका देता है. आप किंडरगार्टन ग्रुप से बच निकलेंगे तो स्कूल्स ऑफ़ माय सिटी आपको दबोच लेगा. हर कोई आपको बताना चाहता है कि भैये अभी तो हम तुम्हें बच्चा ही समझते हैं चाहे तुम खुद को कितना बड़ा तीसमारखां समझते रहो. तुम्हारी तोंद के साइज़ के रेडीमेड कपड़े बनाना अभी फैक्ट्रियों ने शुरू नहीं किया है पर हम तो तुम्हें तब से जानते हैं जब तुम निक्कर पहन कर स्काउट-गाइड की परेड करते थे.
इन आयोजनों का एक स्व-नियुक्त संयोजक होता है. रीयूनियन के वेन्यू से उसके आवास की दूरी का कम होना इस पद के लिए प्रमुख अर्हता होती है. होटल बुकिंग से लेकर टेंटहाउस और स्टार्टर्स-खाने से लेकर दारू तक के इंतजाम का जिम्मा इस संयोजक के कन्धों पर होता है.
ग्रुप के सदस्यों के लिए अपने-अपने जीवनसाथियों को साथ लाने और स्टेज पर गाना गवाने को अनिवार्य शर्त बनाया जाता है. एक नियत मोटी रकम देकर ओल्ड स्टूडेंट अपना सम्मान भी करवा सकता है.
बूढ़े और जर्जर हो गए मास्टरों को उनके घरों से उठाकर लाया जाता है और उनके इतनी बार पैर छुए जाते हैं कि भय लगने लगता है अगली बार चरणस्पर्श करने पर गुरूजी माँ की गाली न देने लग पड़ें. पांचेक मिनट तक पता ही नहीं चलता कि किया क्या जाना है. ग्रुप इसकी कोई प्लानिंग करके नहीं आया है. फिर कोई मंच पर आता है और माइक थामकर कुछ अंटसंट बोल कर कार्यक्रम की शुरुआत कर देता है.
नवनीत वर्मा अपनी बीवी को प्रिंसिपल के दफ्तर की वह खिड़की दिखा रहा है जिसका शीशा तोड़ने का किस्सा वह उसे एक लाख बार सुना चुका है. कमल सडाना फिजिक्स में जोशी सर के साथ चीयर्स कर रहा है जो फिजिक्स की स्पेलिंग एफ से लिखने पर उसकी हर बार तुड़ाई करते थे. ताड़ तो सभी मित्र एक-दूसरे की बीवियों को रहे हैं पर आशीष कक्कड़ स्कूल में अपने बेस्ट फ्रेंड रहे मनोज तुलसियानी की बीवी को इतना ताड़ चुका है कि उसकी खुद की बीवी उसे “एक बार वापस होटल पहुंचो जरा!” की धमकी देकर अपनी चौथी वोदका खींच रही है. स्पोर्ट्स वाले राणा सर टुन्न होकर अपने से तीस साल छोटे, लहालोट हो रहे ओल्ड स्टूडेंट्स को अश्लील लतीफे सुना रहे हैं. स्टेज पर मोहम्मद रफ़ी का गाना गा रहे सतविंदर सिंह की हूटिंग हो रही है और दर्शकगण ‘शीला की जवानी’ की मांग कर रहे हैं.
दारू कम पड़ गयी है और सब संयोजक सुशील को कोसना शुरू कर चुके हैं. अपनी गाड़ी से अपनी प्राइवेट दारू पी कर वापस आ रहा प्रकाश राठी सुशील पर पिल पड़ता है – “चार हजार एक कपल का लिया सुसील ने और साली ऐसी घटिया ब्रांड ले कर आया. कम पड़ गयी अलग ऊपर से! हटाओ पैन्चो!” इमरजेंसी में और दारू मंगाई जाती है.
स्टेज पर हाहाकार मचा हुआ है और लड़के संस्कृत वाले सर से खोपड़ी हिला-हिला कर किया जाने वाला चुटिया डांस सीखने पर आमादा हैं. अधपियी-अधखाई-उकता चुकी बीवियां नाराज होकर अपने-अपने कोपभवन पहुंचने की प्रतीक्षा कर रही हैं. अंगरेजी के सर के इस साल सत्तर का हो जाने की खुशी में उन्हें एक शाल दिया जाना था पर सुशील शाल लाना भूल गया है. उसे फिर गालियाँ खानी पड़ती हैं. लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अंगरेजी सर ढेर होकर सो गए हैं. अपने बैच का सबसे बड़ा बौड़म माना जाने वाला रविन्दर मौज में आकर उनका उपनाम लेकर कहता है – “टेस्टट्यूब की पेंदी फट गयी बे!”
अब जाकर पार्टी का माहौल बना है. स्कूल की रौनक किसी आलीशान बैंकट हाल से कमतर नहीं लग रही. पार्टी रात के तीन बजे तक चलती है.
ओल्ड स्टूडेंट्स अपनी-अपनी गाड़ियों में बैठ कर अपने अड्डों को जाने लगे हैं. प्रिंसिपल के दफ्तर के बाहर सरस्वती की पुरानी प्रतिमा लगी हुई है. उसके सामने बरामदे पर मुलायम चांदनी पसरी हुई है. वहां से गुजर रहा लड़खड़ाता प्रकाश राठी मुंह में भरे मसाले की पीक को बरामदे के फर्श के ठीक बीचोबीच थूकता हुआ मुदित होकर अपने आप से कहता है – “मज़ा आ गया स्साला …!”
पीक के कुछ छींटे उड़कर सरस्वती प्रतिमा की नाक और गालों पर ठहर गए हैं. शुक्र है रात का समय है, इन छींटों को इस वक्त देखा नहीं जा सकता.
– अशोक पाण्डे
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