पश्चिम ने हमें आधुनिकता और विकास की एक बढ़कर एक अवधारणाएं दी, जिन्हें हमने अपने जीवन में उतारा और प्रगति की राह पर आगे बढ़े. इन समस्त नवाचारों में जिसने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया, वो है- अटैच लैटबाथ, अर्थात संयुक्त विष्नानागार. यहाँ विष् , विष वाला विष् नहीं, विष्टा वाला विष् है.
इस आधुनिकता ने हमें सिखाया है कि जिस कमरे में खाओ, उसी में हग लो. बस पांच-छः फिट की दूरी पर. हाइजीन का भारतीय विचार ब्राह्मणवादी था. त्याज्य था. हाइजीन का पाश्चात्य विचार आधनिक है. ग्राह्य है. यह न केवल हाइजीन, वरन पारिवारिक मूल्यों और प्रेम को बढ़ाने वाला भी है.
मैं धन्यवाद देता हूँ अटैच लैटबाथ की संकल्पना को जिसके कारण हम सब परिवार के सदस्य सदा करीब रहते है. न केवल करीब रहते हैं, एक दूसरे के स्वास्थ्य से परिचित भी रहते हैं. उस मलमार्जन कक्ष से बाहर आते वे ध्वनि-संकेत, एक तरह के मोर्सकोड हैं, जिनसे परिवार एक-दूसरे की ख़बर रखता है. मोर्सकोड तो पहले भी प्रचलित था, पर गला खँखारने वाला था. विशेष रूप से बिना दरवाजों या बिना कुंडी वाले, घर से बाहर बने प्रक्षालनालयों में जब कोई पूछता था- अंदर कोई है? तो अंदर साधनारत व्यक्ति किसी आशंकित घोड़े की तरह ज़ोर से हिनहिनाता अर्थात गला खँखारता था, और थोड़े-थोड़े समय पर इसे दोहराता रहता था. आधुनिक अटैच लैटबाथ ने इस समस्या से मुक्ति दे दी. अब आप आवश्यक कार्य करते हुए सब से निरंतर वार्तालाप भी कर सकते हैं. व्यक्ति ही नहीं, लैटबाथ भी आपसे बात करता है.
पहले ज़ोर से दरवाजा बंद करने की आवाज़ और फिर कार्यसमाप्ति की घोषणा करती वो फ्लश की मधुर ध्वनि- घड़घड़घड़घड़- घड़प. पजम्मे से हाथ पौंछते हुए आप बाहर निकलते हैं और कमरे में बैठीं श्रीमती जी की सहेलियों से आपकी निगाहें मिलती हैं. वे मुस्कुरा कर आपको देखती हैं, मानो पूछ रही हों- कैसी हुई? आप विजयी मुस्कान से उनको देखते हैं और गुनगुनाने लगते हैं- फिर से उड़ चला, उड़ के छोड़ा है जहाँ….
अनेक बार ऐसी परिस्थिति का पूर्वाभास होने पर कि बाहर चार सुंदरियां बैठी हैं, आप प्रयास करते हैं कि अंदर की ध्वनियाँ बाहर न जाएँ. परन्तु सर्द मुल्कों के सूरज की तरह वहाँ की हवा भी अपनी मर्जी की मालिक है. वह चाहे तो चुपचाप निकले, चाहे तो सबको बता कर. कई बार तो चिल्ला-चिल्ला कर बताती है कि मैं बाहर आ रही हूँ.
बंदूक के, स्कूटर के, कार के, सबके साइलेंसर बन गए, परन्तु उसके लिये कोई साइलेंसर न बना आजतक.
अमृतलाल नागर ने अपने व्यंग्य बाबू पुराण में मैकाले कृपा से सम्पन्न हुई अनेक तरह की क्रांतियों का उल्लेख किया है. जिनमें अंग्रेजी पठन क्रांति, जी हुज़ूर क्रांति, विलायत गमन क्रांति प्रमुख हैं. परंतु वे सबसे प्रमुख क्रांति के बारे में लिखना भूल गए- लैटबाथ क्रांति. और क्रांति सी क्रांति! यूँ समझिये कि जैसे सीधे खड़े हेगल को फिर से उल्टा खड़ा कर दिया गया हो.
पहले घर में खाते थे और बाहर निकालते थे. अब बाहर खाते हैं और घर में निकालते हैं. इससे बड़ी क्रांति और क्या होगी भला? इस पर भी यदि पुरीष प्रकोष्ठ का स्थापत्य पाश्चात्य शैली का हो, तो इसे क्रांति पर भी क्रांति मानिये.
मैं तो सदा प्रशंसक रहा हूँ अंग्रेजों का. अपने प्रस्तुतीकरण से वे रेत को रजत बना सकते हैं. कल टीवी पर एक कार्यक्रम देख रहा था. प्रस्तोता ने थोड़ी सी मदिरा को पात्र में डालकर सूँघा, मुँह में रख कर गोल-गोल घुमाया और पी गया. फिर चेहरे पर असीम संतृप्ति का भाव लाकर बोला- थोड़ा फ्रूटी टेस्ट है, स्मोकी फ्लेवर है, पिंच ऑफ सिनेमन है, थोड़ी-थोड़ी स्पाइसी भी फील हो रही है. ओवरऑल इसका टेस्ट अमेजिंग है.
आहा! कितना अद्भुत वर्णन था. लगा मदिरा नहीं, कोई स्वास्थ्यवर्धक पेय हो. इसी तरह लैटबाथ का वर्णन भी वे इस तरह करते हैं जैसे ईडन गार्डन हो. उनके पखाने के विज्ञापनों को देख कर लगता है मानो इसमें बस जाएँ. और सच मे बसने जैसी स्थिति बनती जा रही है.
इन पाश्चात्य पुरीष प्रक्षालनालयों को शौचालय नहीं, शोचालय कहना चाहिये. आसान शब्दों में- सोचालय. जहाँ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान प्राप्त किये जाते हों. याद आता है वो दौर भी जब प्रकृति असहयोग कर रही होती थी, खुद से जूझते हुए पन्द्रह मिनट बीत जाते थे, घुटने की कंदुक-खल्लिका संधि में से कंदुक अलग भाग रहा होता था और खल्लिका अलग. और लगता था कि आज मलोत्सर्ग के चक्कर में प्राणोत्सर्ग हो जाएगा. पर भला हो अंग्रेजों का. उनका इकबाल बुलंद रहे. हर पखाने में यूनियन जैक फहराये. महारानी की कृपा और उनके गुमाश्ते मैकाले के आशीर्वाद से अब हम भी उकड़ूँ बैठने की कुप्रथा से मुक्त हो चुके हैं. हम तो सोचालय से भी आगे बढ़ गये हैं. हमारा वाला तो अब पुस्तकालय-वाचनालय बनने की ओर अग्रसर है. जहाँ बैठ कर हम ह्यूम की तरह अनुभववाद पर विचार करते हैं.
महारानी की प्रेरणा से अब हम स्वयं महाराजा हैं. हर वो व्यक्ति जो प्रातः पाश्चात्य शैली का प्रयोग करता है, हगेंद्र है. बाकायदा पैर पर पैर रख कर बैठिये और अपना दरबार लगाइये. प्राचीन काल में जब झुंड में खेत जाते थे और वहाँ पहुँच कर विसर्जन के लिये विसर्जित हो जाते थे, तब आदमी भीड़ में होकर भी अकेला होता था. अब आदमी अकेला होकर भी अकेला नहीं है. कल्पनायें और भीतर-बाहर से आती आवाज़ें उसके साथ रहती हैं.
अफ़सोस है कि चिरकीन वक़्त से पहले गुजर गये. आज अटैच लैटबाथ के जमाने में उनकी शायरी नई ऊंचाइयों को छू रही होती. अंग्रेजी कमोड पर आत्मकेंद्रित खुद से बातें करते उनके कलाम, जमाने से बातें कर रहे होते. ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूँ क्योंकि मैं खुद अनेक बार व्यंग्य लिख कर बाहर आता हूँ. बाहर तो आता हूँ, पर कभी-कभी दरवाज़ा खुला छूट जाता है.
बिस्तर पर बैठ कर खाना खाते हुए, नज़र पॉट पर पड़ती है. मैं गुनगुनाने लगता हूँ- मेरा मुझ में कुछ नहीं, सब तेरा. श्रीमतीजी आती हैं, पहले मुझे फिर पॉट को देखती हैं, चिल्लाती हैं- कितनी बार कहा है इसका ढक्कन गिराया करो और बाथरूम का दरवाज़ा बंद रखा करो. मैं कहता हूँ- प्रिये, हम कब तक सच से मुँह मोड़ेंगे? ये पॉट ही सत्य है, भोजन मिथ्या है. जिस तरह इसका मुँह खुला रहता है, सोचता हूँ भोजन सीधा इसी में डाल दूँ. पर पुराने बरातियों की तरह यह भी कच्चा भोजन स्वीकार नहीं करता है.
इतना दर्शनशास्त्र पढ़ा, परन्तु शब्द आकाश का और गंध पृथ्वी का रूप है यह अटैच लैटबाथ से समझ आया. कभी-कभी मामला उलट भी जाता है. लगता है कि गंध आकाश का और शब्द पृथ्वी का रूप है. शब्द जब भयानक हो तो पृथ्वी काँप जाती है.
उत्तर आधुनिकता में मुझे लगता है कि हमारे बिस्तर के अंदर ही व्यवस्था कर दी जाएगी. हमें उठ कर भी नही जाना पड़ेगा. लेटे-लेटे ही..
“अरे क्या भीतर ही पूरी किताब लिख लोगे, या बाहर भी निकलोगे?”
श्रीमतीजी आवाज़ दे रही हैं. मैं आप लोगों से फिर चर्चा करूँगा. “आ रहा हूँ.”
घड़घड़घड़घड़- घड़प.
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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